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बॉलीवुड में इसलिए महानायक हैं अमिताभ

बॉलीवुड में इसलिए महानायक हैं अमिताभ

बॉलीवुड में इसलिए महानायक हैं अमिताभ 
मेगास्टर अमिताभ बच्चन की बढ़ती उम्र भी उनके काम करने के हौसले को कम नहीं कर पा रही है। वह सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहते हैं और अपनी डेली एक्टिविटी को पोस्ट करते रहते हैं। इस बार उन्होंने सोशल मीडिया पर बताया है कि उन्हें एक बात का अफसोस हमेशा रहता है। उन्होंने फेसबुक पर अपनी कुछ तस्वीरें शेयर की है। जिसमें वह अलग लुक में नजर आ रहे हैं। अयान मुखर्जी की 'ब्रह्मास्त्र' के लिए हाल ही में अमिताभ मनाली में शूट कर रहे थे।
फिल्मों में आने के पहले भी अमिताभ ने संघर्ष किया। फिल्मों में आने के बाद उनकी संघर्ष की राह और कठिन हो गई। उन्होंने जो फिल्में की वे बुरी तरह फ्लॉप हो गईं। कई लोगों ने उन्हें घर लौट जाने की या कवि बनने की सलाह भी दे डाली। ‘जंजीर’ के हिट होने के पहले तक उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। 
सात में से एक हिन्दुस्तानी 
अजिताभ ने अमिताभ की कुछ तस्वीरें निकाली थीं, उन्हें ख्वाजा अहमद अब्बास के पास भिजवा दिया गया था। उन दिनों वे सात हिन्दुस्तानी फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे थे। इन सात में एक मुस्लिम युवक का रोल अमिताभ को प्राप्त हुआ। इस चुनाव के वक्त अब्बास साहब को यह नहीं मालूम था कि अमिताभ कवि बच्चन के साहबजादे हैं। उन्होंने उनसे अपने नाम का अर्थ पूछा था। तब उन्होंने कहा था, अमिताभ का अर्थ है सूर्य, और यह गौतम बुद्ध का एक नाम भी है। अब्बास साहब ने अमिताभ से साफ कह दिया था कि वे इस फिल्म के मेहनताने के रूप में पाँच हजार रुपए से अधिक नहीं दे सकेंगे। इसके बाद जब अनुबंध पर लिखा-पढ़ी की नौबत आई। अमिताभ की वल्दियत पूछी गई तो कवि बच्चन के सुपुत्र होने के नाते अब्बास साहब ने साफ कह दिया कि वे उनके पिता से इजाजत लेकर ही उन्हें काम देंगे। अमिताभ को कोई आपत्ति नहीं थी। अंततः उन्हें चुन लिया गया। 1969 में जब अमिताभ की यह पहली फिल्म (सात हिन्दुस्तानी) दिल्ली के शीला सिनेमा में रिलीज हुई, तब अमिताभ ने पहले दिन अपने माता-पिता के साथ इसे देखा। उस समय अमिताभ जैसलमेर में सुनील दत्त की फिल्म रेशमा और शेरा की शूटिंग से छुट्टी लेकर सिर्फ इस फिल्म को देखने दिल्ली आए थे। उस दिन वे अपने पिता के ही कपड़े कुर्ता-पाजामा शॉल पहनकर सिनेमा देखने गए थे, क्योंकि उनका सामान जैसलमेर और मुंबई में था। इसी शीला सिनेमा में कॉलेज से तड़ी मारकर उन्होंने कई फिल्में देखी थीं। उस दिन वे खुद की फिल्म देख रहे थे। 
अब्बास साहब अपने ढंग के निराले फिल्मकार थे। उन्होंने कभी कमर्शियल सिनेमा नहीं बनाया। उनकी फिल्मों में कोई न कोई सीख अवश्य होती थी। यह फिल्म चली नहीं, लेकिन प्रदर्शित हुई, यही बड़ी बात थी। रिलीज होने से पहले मीनाकुमारी ने इस फिल्म को देखा था। अब्बास साहब मीनाकुमारी का बहुत आदर करते थे। वे अपनी हर फिल्म के ट्रायल शो में उन्हें जरूर बुलाते थे। वे उनकी सर्वप्रथम टीकाकार थीं। ट्रायल शो में मीनाकुमारी ने अमिताभ के काम की तारीफ की थी, तब अमिताभ लजा गए थे। 
संघर्ष जारी था
संघर्ष के दिनों में अमिताभ को मॉडलिंग के ऑफर मिल रहे थे, लेकिन इस काम में उनकी कोई रुचि नहीं थी। जलाल आगा ने एक विज्ञापन कंपनी खोल रखी थी, जो विविध भारती के लिए विज्ञापन बनाती थी। जलाल, अमिताभ को वर्ली के एक छोटे से रेकॉर्डिंग सेंटर में ले जाते थे और एक-दो मिनट के विज्ञापनों में वे अमिताभ की आवाज का उपयोग किया करते थे। प्रति प्रोग्राम पचास रुपए मिल जाते थे। उस दौर में इतनी-सी रकम भी पर्याप्त होती थी, क्योंकि काफी सस्ता जमाना था। वर्ली की सिटी बेकरी में आधी रात के समय टूटे-फूटे बिस्कुट आधे दाम में मिल जाते थे। अमिताभ ने इस तरह कई बार रातभर खुले रहने वाले कैम्पस कॉर्नर के रेस्तराओं में टोस्ट खाकर दिन गुजारे और सुबह फिर काम की खोज शुरू।
संकट के समय हास्य अभिनेता मेहमूद के भाई अनवर अली, जिन्होंने 'सात हिन्दुस्तानी' फिल्म में अमिताभ के समान ही एक रोल किया था, मदद को आए। वे अंधेरी में मेहमूद भाईजान के बंगले के एक फ्लैट में रहते थे। मेहमूद ने उन्हें एक लाल जगुआर गाड़ी भी दे रखी थी। अमित भी अनवर के साथ रहने लगे थे। दोनों काम की तलाश में एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो साथ-साथ ही जाया करते थे।

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