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प्रधानमंत्री पद के लिए भाग्य ने नहीं दिया साथ

प्रधानमंत्री पद के लिए भाग्य ने नहीं दिया साथ

भारतीय राजनीति में ऐसे कई चर्चित नाम हैं जो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठ पाए। राजनीति के संयोग उनके पक्ष में थे, किन्तु भाग्य ने साथ नहीं दिया। ऐसे राजनीतिज्ञों में सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवानी, ज्योति बसु, शरद पवार, प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह जैसे नेता शामिल हैं। वहीं पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, चन्द्रशेखर, इन्द्र कुमार गुजराज, एचडी देवगौड़ा भाग्य के सहारे प्रधानमंत्री बने। 
2019 के लोकसभा चुनाव में भाग्य के सहारे प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शरद पवार मुलायम सिंह, ममता बैनर्जी नीतीश कुमार, चन्द्रबाबू नायडू, मायावती जैसे नेता प्रधानमंत्री की दौड़ में सबसे आगे है। भाजपा और कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावना नहीं होने से क्षेत्रीय छत्रप प्रधानमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे है। वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए दिन-रात एक कर रहे हैं। वहीं भाग्य के सहारे प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में आधा दर्जन नेता भाग्य के सहारे दौड़ में शामिल है। 
यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वर्ष 2004 में एनडीए को पराजित किया था तब सत्ता की कमान कांग्रेस गठबंधन ने सोनिया गांधी को दी थी। विपक्ष खासतौर पर भाजपा ने उन्हें विदेशी महिला कहकर इतने तीर छोड़े कि वो प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गईं थीं। यह सच है कि तब कांग्रेस और गठबंधन के नेता यही चाह रहे थे कि सोनिया गांधी ही देश की प्रधानमंत्री बनें, लेकिन बढ़ते विरोध और लगातार उनके परिवार पर होते हमलों को देखते हुए उन्होंने खुद ही डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसके बाद देश में सोनिया गांधी की छवि त्याग करने वाली नेत्री की बन गई। 
भाजपा के लौहपुरुष कहे जाने वाले कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी की ओर नजर करते हैं। जिन्होंने रामरथ यात्रा निकालकर पूरे देश में भाजपा को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई थी। राजनीतिक कद में उनके सामने कोई दूसरा टिकता ही नहीं था। संघ के गठबंधन के विरोध से वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। 2009 में जब लोकसभा चुनाव हुए थे, तो भाजपा ने उन्हें बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार मैदान में उतारा था। बदकिस्मती से तब यूपीए की सरकार बन गई और आडवाणी प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए। इसके बाद 2014 के आमचुनाव में आडवाणी के शिष्य गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया गया। उनका प्रधानमंत्री का सपना तो टूटा ही, मोदी सरकार में उन्हें मंत्री पद तक नहीं मिला। यही नहीं बल्कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति पद से भी उन्हें नहीं नवाजा गया। आमतौर पर यही कहा जाता है कि ईमानदारी और मेहनत के बावजूद यदि आपकी किस्मत आपका साथ नहीं दे रही है तो फिर सब कुछ होने के बावजूद आप पद पाने से रह जाते हैं। इसका जीता जागता उदाहरण लालकृष्ण आडवाणी हैं। आडवाणी सात बार के लोकसभा सांसद रहे, चार बार राज्यसभा सदस्य रहे और सबसे बड़ी बात कि 2002 से 2004 तक उन्होंने उप प्रधानमंत्री के तौर पर भी कार्य किया, लेकिन वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। 
यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी राजनीति में आना नहीं चाहती थीं। उन्हें मनाने के लिए तमाम कांग्रेस के कद्दावर नेता उनसे संपर्क करते रहे, लेकिन उन्होंने अपने बच्चों और परिवार को प्राथमिकता देते हुए राजनीति में सक्रिय होने से मना किया। 1996 में वह कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद सोनिया गांधी ने 1997 में पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। 1998 में वह पार्टी अध्यक्ष बनाई गईं। उनके राजनीतिक सफर में यूपीए का दस वर्ष का शासनकाल भी है, लोकसभा चुनाव 2019 में सोनिया गांधी एक बार फिर उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से उम्मीदवार हैं। 

प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री की कुर्सी 
कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में प्रणब मुखर्जी का नाम भी समय-समय पर प्रधानमंत्री के लिये लिया जाता था। वह हर बार प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए। वहीं राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अर्जुन सिंह का नाम भी प्रधानमंत्री बनने वाले नेताओं की सूची में शुमार होता है। अपने आला कद के बावजूद वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। प्रणब मुखर्जी की बात होती है तो राष्ट्रपति बनने के बावजूद उनके मन में प्रधानमंत्री बनने की ललक जरुर बनी  रही। दरअसल प्रणब दा ने 25 जुलाई 2012 को राष्ट्रपति पद की शपथ ली तो वहीं कानाफूसी भी हुई कि वो तो प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेना चाहते थे, लेकिन शायद किस्मत में यही था, इसलिए उन्हें राष्ट्रपति पद मिल गया। इंदिरा गांधी के समय में ही प्रणब दा पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखते थे। जब 1984 में इंदिरा जी की हत्या हुई, तो यही कहा जा रहा था कि प्रणब दा को ही प्रधानमंत्री बनाया जाएगा, लेकिन सत्ता हाथ में आते-आते रह गई। मानमनौवल के बाद राजीव गांधी को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया गया। 2004 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हारी। तब भी यही समझा जा रहा था कि इस बार प्रणब मुखर्जी ही प्रधानमंत्री होंगे, क्योंकि उस समय पार्टी में तो वो नंबर एक की पोजीशन रखते थे। 2011-12 में जब राष्ट्रपति चुनाव हुए तो पार्टी नेताओं ने राष्ट्रपति प्रणब दा को बनाया। इस प्रकार पार्टी के प्रति बफादार और राजनीतिक कौशल के बेजोड़ खिलाड़ी होने के बावजूद प्रणब दा कभी प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। 

शरद पवार की विश्वसनीयता  
प्रणब दा की तरह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद चंद्र गोविंदराव पवार भी ऐसे ही कद्दावर नेता रहे हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री पद का स्वाद नहीं चख पाया। शरद पवार चार बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे, सात बार लोकसभा का चुनाव जीता और तमाम तरह के दांव खेलते और कांग्रेस में आते-जाते रहे, बावजूद उनकी किस्मत में प्रधानमंत्री पद नहीं था। शरद पवार समय-समय पर प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहे, लेकिन पार्टी में उनकी विश्वसनीयता नहीं रही कि उन्हें बतौर प्रधानमंत्री आगे किया जा सकता। 1998 में देवेगौड़ा की सरकार गिरने के बाद शरद पवार प्रधानमंत्री बनाए जा सकते थे, क्योंकि यह वही समय था जबकि सोनिया गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था। शरद पवार संसद में विपक्ष के नेता थे। यह जिम्मेदारी खुद सोनिया गांधी ने उन्हें सौंपी थी। पार्टी में लगातार साजिश रचने के आरोप उन पर थे। कांग्रेस के ही नेताओं ने उनका विरोध किया। जब शरद पवार ने कांग्रेस से बाहर कदम रखा तो उनके साथ पार्टी के महज दो नेता ही थे। इसमें शक नहीं कि शरद पवार एक कद्दावर नेता हैं, लेकिन 1991 में जब राजीव गांधी की हत्या हुई थी, तो शरद पवार सोनिया गांधी को मनाने उनके पास गए थे। उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष पद स्वीकार करने के लिए मना रहे थे। इसके बाद 1999 में वही शरद पवार सोनिया गांधी का विरोध करते हुए विदेशी महिला के नाम पर पार्टी छोड़ नई पार्टी बना ली। 

प्रधानमंत्री बनने से चूके ज्योति बसु 
पश्चिम बंगाल में बतौर मुख्यमंत्री राजनीतिक इतिहास रचने वाले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राजनेता ज्योति बसु पश्चिम बंगाल में 23 वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे। वर्ष 1996 के आम चुनाव के दौरान चर्चा आम हुई कि वह भारत के प्रधानमंत्री बने। एक समय ऐसा भी राजनीति में आया था कि गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेसी दल ताकतबर हो गए थे और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने की स्थिति में थे। इस थर्डफ्रंट की ओर से ज्योति बसु को बतौर प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करने पर विचार भी हुआ। गठबंधन में शामिल किसी भी दल को या उनके नेताओं को ज्योति बसु के नाम पर आपत्ति भी नहीं थी। पर कम्युनिस्ट  पार्टी की बैठक में तय हुआ कि सरकार में शामिल होंगे और बाहर से ही समर्थन जारी रखा जाएगा। ज्योति बसु भी नहीं चाहते थे कि केंद्रीय समिति के फ़ैसले को बदला जाए। बस यही वजह रही कि ज्योति बसु भी प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए। 

राजनीति के चाणक्य अर्जुन सिंह 
कांग्रेस के कद्दावर नेता अर्जुन सिंह भारतीय राजनीति में चाणक्य की भूमिका में रहे हैं। अर्जुन सिंह तीन बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। जब पंजाब उग्रवाद के दौर से गुजर रहा था तो अर्जुन सिंह को पंजाब का राज्यपाल बनाया गया, जहां से वो सफल होकर निकले। पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह भारत के उन कद्दावर नेताओं में शुमार थे, जिन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना गया। ऐसे अनेक अवसर भी आए जब आभास हुआ कि अर्जुन सिंह प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। उनके स्थान पर नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री घोषित किया गया, तब अर्जुन सिंह का नाम पर भी चर्चा में था। नरसिम्हा राव राजनीति से रिटायरमेंट लेने वाले थे, लेकिन उनकी किस्मत ने जोर मारा और प्रधानमंत्री बन गए। प्रबल दावेदार अर्जुन सिंह प्रधानमंत्री बनने से रह गए। 2004 में जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार किया, तो फिर से अर्जुन सिंह का नाम आगे किया गया। लेकिन नीयति को तो कुछ और ही मंजूर था। तब मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री सामने आए, और अर्जुन सिंह प्रधानमंत्री बनने से रह गए। 

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