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करीला में कम आती हैं महिला श्रद्धालु करीला मेला में दो दिन शेष, तैयारियां अंतिम दौर में

करीला में कम आती हैं महिला श्रद्धालु करीला मेला में दो दिन शेष, तैयारियां अंतिम दौर में

रंगपंचमी पर जिले के करीला में लगने वाले मेला में 10 से 15 लाख तक श्रद्धालु पहुंचते हैं। करीला मेला में न केवल मध्यप्रदेश से बल्कि राजस्थान, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात आदि प्रदेशों से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। मगर इनमें महिला श्रद्धालुओं की संख्या सैकड़ों में सिमटकर रह जाती है। यह स्थिति तब है जबकि इस धार्मिक स्थान के बारे में यह प्रचलित है कि यहां जगत जननी मां सीता ने काफी समय तक निवास किया था। यह तब की बात है जब मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने सीता का लोकोपवाद के चलते परित्याग कर दिया था। तब मां जानकी यहां स्थित बाल्मीकि आश्रम में रहीं थीं। जानकी मैया मातृ शक्ति की प्रतीक हैं और श्रद्धालुओं का यह अटूट विश्वास है कि मां जानकी की कृपा से सूनी गोद भर जाती है। बावजूद इसके रंगपंचमी के अवसर पर लगने वाले करीला मेला में महिला श्रद्धालु बहुत ही कम पहुंचती हैं। जबकि महिलाएं भी धार्मिक कार्यक्रमों में बढ़-चढक़र हिस्सा लेती हैं एवं उनकी धर्म और संस्कृति में अगाध श्रद्धा रहती है। मेला में महिला श्रद्धालुओं की कम उपस्थिति के पीछे क्या कारण हो सकते हैं, यह तो सोच का विषय हो सकता है मगर फिर भी महिला श्रद्धालुओं की इस धार्मिक स्थल पर मेला के समय कम उपस्थिति विचारणीय जरूर है।
आमतौर पर मेला खासकर धार्मिक स्थानों पर लगने वाले मेलों की चर्चा करते ही साधु-संतों की जमात, प्रवचन के लिए लगे हुए विशाल पांडालों का चित्र जेहन में उभरने लगता है मगर करीला इन मेलों से एकदम अलग हटकर है। न तो यहां साधु-संतों का जमावड़ा होता है और न ही कथा के पांडाल सजते हैं। इसके विपरीत पहले कभी चर्चा थी कि करीला में द्विअर्थीय संवादों पर फूहड़ नृत्य पेश किया जाता है। हालांकि अब प्रशासन की सख्ती और श्रद्धालुओं की जागरूकता के चलते इस तरह के आयोजनों पर काफी हद तक रोक जरूर लग गई है मगर अभी भी करीला की पहचान उसके राईनृत्य और गीतों के कारण ही है। प्रशासन की सख्ती के बाद अश£ील और फूहड़ नृत्य पर भले ही रोक लग गई हो लेकिन अभी भी मेला में महिला श्रद्धालुओं की संख्या में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। हर साल रंगपंचमी पर लगने वाले इस मेला में आने वाले श्रद्धालुओं को कई लोग धुर ग्रामीणों का मेला कहने से भी नहीं हिचकते हैं और कई मायनों में यह मेला ग्रामीणों और खासकर पुरुषों का मेला ही माना जाता है। क्योंकि रंगपंचमी के दिन यहां लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ में महिला श्रद्धालुओं की भीड़ सैकड़ों में ही सिमटकर रह जाती है। खास बात यह है कि यह स्थान जानकी मैया का है, जिन्हें भगवान श्रीराम ने लोकोपवाद के चलते त्याग दिया था। माना जाता है कि उस समय यहां पर आदिकवि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था। जहां जगत जननी जानकी ने लव और कुश को जन्म दिया था। हालांकि महिला श्रद्धालु पंचमी के बजाए सप्तमी के दिन करीला में पहुंचती हैं। इस धार्मिक स्थल पर महिला श्रद्धालुओं की कम संख्या में पहुंचने की वजह लोग यह भी मानते हैं कि करीला में पहले द्विअर्थी गीतों पर फूहड़ नृत्य होता था जबकि हकीकत यह भी है कि यह मेला रात में लगता है साथ ही पहले यह स्थान निर्जन और दुर्गम था, इस कारण महिलाएं इस मेले में कम जाती थीं। बहरहालए अब मेला को नया कलेवर देने के प्रयास जारी हैं। इनमें धार्मिक आयोजनों के प्रयास तो नहीं हुए हैं मगर नौटंकी, डांस पार्टी आदि पर सख्ती से रोक लगी हुई है। इसके अलावा कभी अवैध शराब बिक्री के लिए भी मेला कुख्यात था मगर अब धीरे-धीरे शराब बिक्री पर अंकुश लग गया है। 
मां के आशीर्वाद से भरती है गोद फिर क्यों....
ऐसी मान्यता है कि करीला स्थित जानकी मैया ने लव-कुश को यहीं जन्म दिया था इस कारण मैया के दर पर नि:संतान दंपत्ति अगर सच्चे हृदय से मनोकामना करते हैं तो उनके आंगन में बच्चों की किलकारी जरूर गूंजती है। प्रकृति ने स्त्री को ही जननी बनने का गौरव प्रदान किया है और यहां जानकी मैया की कृपा से माता की गोद भरती है। इसके बावजूद भी रंगपंचमी पर महिला श्रद्धालु यहां मां का आशीर्वाद लेने के लिए कम ही आती हैं। इसके पीछे के कारण सुरक्षा, शराब बिक्री, फूहड़ नृत्य सहित धार्मिक आयोजनों की कमी हो सकती है। इस विषय में प्रशासन और मंदिर ट्रस्ट को विचार करके नई स्वस्थ परंपराएं भी शुरू करनी चाहिए ताकि मेला में हर वर्ग की बराबर की भागीदारी हो सके।
अन्य दिनों में महिला श्रद्धालु ज्यादा:
रंगपंचमी के अलावा करीला स्थित जानकी मैया के दरबार में पहुंचने वाले भक्तों में महिलाओं की संख्या अधिक रहती है। प्रत्येक पूर्णिमा पर एवं तीज-त्यौहारों पर भी बड़ी संख्या में महिला श्रद्धालु करीला पहुंचती हैं।

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