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सिंधिया का फैसला

सिंधिया का फैसला

सिंधिया का फैसला 
मध्य प्रदेश में भाजपा ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने पाले में करके कांग्रेस सरकार की जड़ें हिला दी हैं। सिंधिया गुट के 20 विधायकों के इस्तीफे के बाद मंगलवार दोपहर में कांग्रेस के और विधायक ने इस्तीफा दे दिया। यह पूरा घटनाक्रम एक दिन का नहीं है। इसकी पटकथा लंबे समय से लिखी जा रही थी और दिल्ली से मध्यप्रदेश तक बैठे कांग्रेस के नेताओं को इसकी भनक भी नहीं लगी। आभास तो था मगर सब सिंधिया के भाजपा में न जाने को लेकर आश्वस्त थे। लेकिन कहा जाता है कि राजनीति में कब क्या हो जाए...कुछ ऐसा ही अब हुआ है। राहुल गांधी के साथ सड़क से लेकर संसद की राजनीति में हर वक्त साथ खड़े दिखने वाले ज्योतिरादित्य ने जब पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दिया, तो उसकी टाइमिंग भी गौर करने वाली है। 10 मार्च को उनके पिता माधव राव सिंधिया की संयोगवश जयंती भी थी और उन्होंने चोला बदलने का यही दिन तय किया। पिता जीवन की आखिरी घड़ी तक देश की सबसे पुरानी पार्टी से जुड़े रहे, बेटे ने पिता की जयंती पर उसी पार्टी को छोड़ देने की घोषणा की जिससे वह खुद 18 सालों तक जुड़े रहे। इसे महज इत्तेफाक कहेंगे या फिर यह ज्योतिरादित्य की सोची-समझी रणनीति है। वह आखिर क्या संदेश देना चाहते हैं।
ज्योतिरादित्य ने हालांकि 9 मार्च यानी को कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष के नाम इस्तीफे की चिट्ठी लिखी थी, लेकिन सार्वजनिक घोषणा पीएम नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात के बाद 10 मार्च को किया। महज 26 साल की उम्र में संसद की दहलीज लांघने वाले माधवराव सिंधिया ने राजनीतिक करियर की शुरुआत जनसंघ से की थी, लेकिन यह साथ ज्यादा लंबा नहीं चला और मां विजयाराजे की राजनीतिक लाइन से हट 1977 में कांग्रेस में चले गए। पूर्व पीएम राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव के कार्यकाल में उन्हें अहम मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभालने का भी मौका मिला। 1986 से 1995 तक कांग्रेस की अलग-अलग सरकारों में रेल राज्य मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री, नागरिक उड्डयन और पर्यटन मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली। कांग्रेस की कमान जब 90 के दशक में सोनिया गांधी ने संभाली तो वह उनके मुख्य सेनापतियों में एक रहे । 2001 को यूपी के मैनपुरी में चॉपर क्रैश में उनकी मौत हो गई।
पिता की मौत के ठीक बाद बेटे ज्योतिरादित्य ने उनकी राजनीतकि विरासत संभाली और कांग्रेस को अपना लॉन्च पैड बनाया। पिता की तरह उन्हें भी कांग्रेस सरकार में मंत्री बनने का मौका मिला और 2012 से 2014 के बीच पावर मिनिस्ट्री का कार्यभार संभाला। ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस से खूब ख्याति पाई तो वहीं अंत-अंत में अपनी जमीन भी खोनी पड़ी और 2019 में पारंपरिक गुना सीट से लोकसभा चुनाव हार गए। शायद यही वजह रही होगी, जब ज्योतिरादित्य को पार्टी छोडऩे की जरूरत महसूस होने लगी हो। हालांकि, उन्होंने सोनिया के नाम चिट्ठी में पार्टी छोडऩे की वजह अपने लोगों के लिए काम न कर पाना गिनाया है।
ग्वालियर के सिंधिया परिवार की सियासत कांग्रेस से शुरू होकर जनसंघ पहुंची थी। वर्तमान में ज्योतिरादित्य सिंधिया को छोड़कर बाकी सब भाजपा में थे। मगर अब उन्होंने राजमाता विजयाराजे सिंधिया का सपना पूरा कर दिया है। मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सरकार तो बनाई लेकिन बहुत कोशिशों के बावजूद ज्योतिरादित्य सिंधिया सीएम नहीं बन सके। इसके छह महीने बाद ही लोकसभा चुनाव में हार सिंधिया के लिए दूसरा बड़ा झटका साबित हुई। सीएम ना बन पाने के बावजूद लगभग 23 विधायक ऐसे हैं, जिन्हें सिधिया के खेमे का माना जाता है। इसमें से छह को मंत्री भी बनाया गया। इन्हीं में से कुछ विधायकों ने कमलनाथ की सरकार को मुश्किल में डाल दिया है। लोकसभा चुनाव में हार के बाद से ही ज्योतिरादित्य सिंधिया खुद को अकेला महसूस कर रहे हैं। बार-बार मांग करने के बावजूद उन्हें मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष का पद भी नहीं मिला, जिसने आग में घी काम का काम किया है। इसी बीच शिवराज सिंह चौहान से मुलाकात ने विवाद को और हवा दे दी। हालांकि, ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा कि वह कांग्रेस कभी नहीं छोडऩे वाले हैं। नवंबर 2019 में कांग्रेस पार्टी के सभी पदों को छोड़कर दबाव बनाने की कोशिश की लेकिन उनकी यह कोशिश भी काम नहीं आई।

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