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वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं,रुतबा ज़रूरी

वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं,रुतबा ज़रूरी

वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं,रुतबा ज़रूरी
कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने गत लगभग एक वर्ष तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमल नाथ से चले आ रहे मतभेदों व विवादों को बहाना बनाते हुए आख़िरकार  कांग्रेस पार्टी से अपना नाता तोड़ ही लिया। हालांकि सिंधिया के कांग्रेस को असहज करने वाले कई बयानों से इस बात के क़यास लगाए जाने लगे थे कि मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार के संचालन मात्र को लेकर ही उनकी नाराज़गी नहीं चल रही है बल्कि साथ साथ भारतीय जनता पार्टी से भी उनकी नज़दीकियां बढ़ने की ख़बर भी आने लगी थी। बहरहाल उन्होंने कांग्रेस छोड़ी या कांग्रेस ने उन्हें निकाला,दोनों ही स्थिति में उनका नाता कांग्रेस पार्टी से टूट गया है । सिंधिया ने सोनिया गाँधी को भेजे गए अपने पार्टी इस्तीफ़े में जिन वाक्यों का प्रयोग किया है वे वाक़ई क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। उन्होंने लिखा है कि -"18 साल तक कांग्रेस का सदस्य रहने के बाद अब मेरे लिए यह समय कांग्रेस छोड़ने का है। मैं अपना इस्तीफ़ा सौंप रहा हूं। आप यह बखूबी जानती हैं कि मेरे लिए यह स्थिति एक साल से अधिक समय से बन रही थी। मेरा मक़सद राज्य और देश की सेवा करना रहा है। मेरे लिए कांग्रेस में रहते हुए यह करना संभव नहीं रह गया था। मैंने अपने लोगों और कार्यकर्ताओं की आकांक्षाओं को देखते हुए यह महसूस किया कि यह सबसे अच्छा समय है कि मैं अब एक नई शुरूआत के साथ आगे बढूं। मैं आपको और कांग्रेस पार्टी के मेरे सभी सहयोगियों को धन्यवाद देता हूं कि मुझे देश की सेवा करने के लिए एक प्लेटफ़ॉर्म दिया।" और इस पत्र के साथ ही सिंधिया ने उस पार्टी से नाता तोड़ लिया जिसने न केवल उन्हें बल्कि उनके पिता को भी समय समय पर पद,प्रतिष्ठा व पूरा मान सम्मान दिया। और इसी तरह माधवराव  सिंधिया व  ज्योतिरादित्य अर्थात दोनों ही  पिता-पुत्र ने अपनी पूरी क्षमता के अनुसार वक़्त पड़ने पर हमेशा देश की संसद से लेकर सड़कों तक कांग्रेस पार्टी की धर्मपिरपेक्ष विचारधारा का प्रचार प्रसार व बचाव दोनों ही काम बख़ूबी अंजाम दिया। संसद में इन दोनों ही पिता-पुत्र के दिए गए अनेक भाषण जो दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक राजनीति के विरुद्ध तथा धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में दिए गए,आज भी संसद के रिकार्ड में दर्ज हैं। इतना ही नहीं बल्कि जिस तरह माधव राव सिंधिया को राजीव गाँधी का बिल्कुल क़रीबी माना जाता था वैसा ही रिश्ता राहुल गाँधी व ज्योतिरादित्य के मध्य भी था। 
बहरहाल सवाल यह है कि इन ख़ानदानी संबंधों को ताक़ पर रखते हुए ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस से नाता तोड़ते समय अपने त्याग पत्र में जिन शब्दों का इस्तेमाल किया है क्या वास्तव में वे सही व समझ में आने वाले हैं ? जैसे की उन्होंने लिखा है कि - "मेरा मक़सद राज्य और देश की सेवा करना रहा है। मेरे लिए कांग्रेस में रहते हुए यह करना संभव नहीं रह गया था"। उनके इस वाक्य से एक सवाल यह उठता है कि क्या देश की सेवा करने के लिए किसी पार्टी प्लेटफ़ॉर्म का होना ज़रूरी है ? या क्या कोई  बड़ा पद या रुतबा हासिल किये बिना  'राज्य और देश की सेवा कर पाना ना' मुमकिन नहीं है? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह कि क्या 'राज्य और देश की सेवा' करने के लिए अपने वैचारिक दृष्टिकोण व सिद्धांतों की भी बलि दी जा सकती है ?या फिर सत्ता और रुतबा हासिल करने की ग़रज़ से भी इस तरह का वैचारिक परिवर्तन संभव है? और यदि ऐसा है फिर तो सारे गिले शिकवे, किसानों के हितों की बातें करना, मध्य प्रदेश के सत्ता सञ्चालन में ख़ामियां निकालना आदि सब कुछ एक बहाना था। और शिकवा तो केवल यही था कि मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री कमलनाथ को क्यों बनाया गया ज्योतिरादित्य सिंधिया को क्यों नहीं ? निकट भविष्य में यह बात और साफ़ हो जाएगी कि सिंधिया ने वास्तव में 'राज्य और देश की सेवा' न कर पाने की छटपटाहट में कांग्रेस छोड़ी या सत्ता में पद व रुतबा हासिल करने के लिए। 
एक सवाल यह भी है कि यदि  'राज्य और देश की सेवा' करने के लिए किसी पार्टी या पद अथवा रुतबे का होना ज़रूरी है फिर आख़िर महात्मा गाँधी ने बिना पद और रुतबे के देश की सेवा कैसे की ? विनोबा भावे से लेकर अन्ना हज़ारे तक और आज के समय में कैलाश सत्यार्थी,मेधा पाटकर,राजेंद्र सिंह,सुनीता कृष्णन जैसे अनेक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिनके पास न कोई रुतबा है न कोई पद और न ही किसी राजनैतिक दल से इनका संबंध है। परन्तु ये सभी और इन जैसे भारत के अनेक सपूत देश की सेवा में दिन रात लगे हुए हैं। इन्होंने बिना किसी दल या रुतबे के स्वयं को देश सेवा के मार्ग में कभी असहज तो नहीं महसूस किया ? सही पूछिए तो यदि  निः स्वार्थ रूप से सामाजिक कार्यों को अंजाम देने वाले ऐसे सामाजिक कार्यकर्त्ता न हों तो देश का कल्याण ही संभव नहीं। क्योंकि सत्ता भोगी राजनेताओं की अवसरवादिता के चलते तो देशवासियों का विश्वास ही नेताओं से उठता जा रहा है। वास्तव में ऐसे ही अवसरवादी नेताओं की वजह से ही आज देश की धर्मनिरपेक्षता दांव पर लग चुकी है और कट्टरपंथी साम्प्रदायिक शक्तियों का दिनोंदिन बोल बाला होता जा रहा है। 
'वैचारिक धर्म परिवर्तन' करने वाले ज्योतिरादित्य कोई पहले महत्वपूर्ण नेता भी नहीं हैं। इससे पहले नेहरू ख़ानदान के ही चश्म-ए-चिराग़ वरुण गाँधी अपनी माता मेनका गाँधी के साथ अपनी ख़ानदानी वैचारिक फ़िक्र की तिलांजलि दे चुके हैं। कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक गोविन्द बल्लभ पंत के सुपुत्र जिन्हें कांग्रेस ने हमेशा मान सम्मान पद पहचान सब कुछ दिया था वे भी कांग्रेस से रिश्ता तोड़ भाजपा में शामिल हो चुके थे। कांग्रेस के एक और क़द्दावर नेता रहे हेमवती नंदन बहुगणा की पुत्री रीता बहुगुणा भी रुतबे व पद की तलाश में भाजपा में शामिल होकर योगी आदित्य नाथ की टीम में शामिल होकर 'देश व राज्य की सेवा ' बख़ूबी कर रही हैं। यहाँ तक कि लाल बहादुर शास्त्री के भी एक साहबज़ादे भाजपा में ही समां चुके हैं। अवसरवादी नेताओं के ऐसे उदाहरणों से भारतीय राजनीति का इतिहास पटा पड़ा है। सही पूछिए तो देश को वैचारिक अंधकार में डालने वाले यही नेता हैं जिन्हें ख़ुद नहीं पता कि वे कब तक धर्मनिरपेक्षता का आवरण ओढ़े रहेंगे और कब साम्प्रदायिकता का जामा ओढ़ लेंगे। परन्तु निश्चित रूप से नेताओं की इस स्वार्थपूर्ण व ढुलमुल सोच का प्रभाव उस भोली भाली जनता पर भी पड़ता है जो अपने नेता को आदर्श मान कर उसकी जयजयकार किया करती है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के 'देश व राज्य की सेवा 'के कथित जज़्बे ने एक बार फिर यह प्रमाणित कर दिया है कि कलयुग के इस दौर की राजनीति में पद प्रतिष्ठा,सत्ता व रुतबा अधिक ज़रूरी है न कि विचारधारा या वैचारिक प्रतिबद्धता। 

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