भारतीय संविधान में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का अलग अलग दायित्व है। मीडिया को स्वतंत्र रखा गया था। वह जनता का प्रतिनिधित्व करें। इसके लिए उसे कोई अधिकार संविधान ने नहीं दिए। केवल इतना अधिकार दिया, कि वह अपनी बात स्वतंत्रता से लिख सकता है, बोल सकता है। उसकी आवाज को जनता जनार्दन की आवाज माना जाएगा। पिछले कुछ समय से कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका की कार्यप्रणाली को देखें, तो ऐसा लगता है, कि देश में जो भी हो रहा है। वह सब कार्यपालिका कर रही है। इसमें न्यायपालिका की भूमिका सरकार द्वारा किए गए कार्यों में अपनी सहमति प्रकट करना अथवा सरकार की सुविधानुसार निर्णय को टालना है। इसी तरह विधायिका भी बड़े से बड़े मुद्दे में संसद और विधानसभाओं में कार्यपालिका के इशारे पर जितना बोलने की अनुमति दी जाती है। उतना ही सांसद और विधायक बोल पाते है। मीडिया की स्थिति भी कुछ इसी तरह की बन गई है। कार्यपालिका जो निर्देश देती है, मीडिया भी उसका अक्षरस पालन करना मजबूरी है। जिसके कारण देश में पहली बार कार्यपालिका की सर्वोच्चता देखने को मिल रही है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जब पदभार गृहण कर रहे थे। तब उन्होंने सरकार के साथ सहयोग करने की बात कही थी। लोकसभा, राज्यसभा तथा विधानसभाओं में सत्ताधारी दल के सदस्य ही अध्यक्ष निर्वाचित होते हैं। वह भी सरकार के कामकाज को सुगम बनाने का काम कर रहे हैं। संसद और विधानसभाओं में सदस्यों को 1 मिनट 2 मिनट 5 मिनट में बड़े से बड़े मुद्दों पर अपनी बात कहनी होती है। संसद और विधानसभा के सत्रों की अवधि लगातार कम होती जा रही है। विवादास्पद मामलों में सत्ता पक्ष भी विपक्ष की तरह हंगामा करने का कोई मौका नहीं छोड़ता है। जिसके कारण संसद और विधानसभाओं में भी कानूनों और नियमों को लेकर जैसा विचार विमर्श होना चाहिए, वैसा नहीं हो पाता है। जल्दबाजी एवं हंगामे के बीच में बिना किसी चर्चा के कार्यपालिका अपनी सुविधानुसार नियम कायदे कानून बनवाकर लागू कर देती है। जिसके कारण भारत जैसे देश में दूरगामी परिणामों को देखते हुए जिस तरह के निर्णय अथवा कानून विधायिका को बनाने चाहिए थे, वैसे कानून नहीं बन पा रहे है। अब तो न्यायपालिका भी सरकार की मंशा को देखते हुए मामलों की सुनवाई कर रही है। हाल ही में वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने लिखा है, इस समय अदालतों को किसी भी हाल में कार्यपालिका को कार्य करने से नहीं रोकना चाहिए। उन्होंने तो यहां तक लिखा है, कि ब्रिटेन में जिस तरह कार्यपालिका को असीमित अधिकार मिला हुआ है। वैसा ही भारत में होना चाहिए। कोरोनावायरस के संक्रमण और आर्थिक आपदा को देखते हुए साल्वे का यह कथन काफी महत्वपूर्ण है। वहीं पिछले दिनों वरिष्ठ वकील दुष्यंत दुबे ने लिखा है कि यह कैसा समय है। जब विधायिका और न्यायपालिका दोनों का काम लगता है, स्थगित हो गया है। सभी काम की जवाबदारी केवल कार्यपालिका निभा रही है।
पिछले वर्षों में जिस तरह से न्यायपालिका तथा विधायिका में कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ़ा है। सारी संवैधानिक संस्थाओं में कार्यपालिका का हस्तक्षेप प्रत्यक्ष देखने को मिल रहा है। हर संवैधानिक संस्थान कार्यपालिका के प्रत्येक निर्णय और कार्यों को आगे बढ़ाने में उसका सहयोग कर रहा है। उससे लगता है कि प्रधानमंत्री के रूप में जो फैसला नरेंद्र मोदी जी लेते हैं। तीनों स्तंभ उसका पुरजोर समर्थन करने में लग जाते हैं। चौथा स्तंभ मीडिया भी अब इस मामले में पीछे नहीं रहा। भारत में सबसे ज्यादा भरोसा लोगों को न्यायपालिका के ऊपर था। न्यायपालिका संविधान को दृष्टिगत रखते हुए सरकार के बनाए हुए कानूनों नियमों के अनुसार लोगों के मौलिक अधिकार की समीक्षा करके स्वतंत्र निर्णय करती थी। उसे सारे लोग स्वीकार करते थे। पिछले कई वर्षों से सुप्रीमकोर्ट, हाईकोर्ट, चुनाव आयोग, सीबीआई जैसी संस्थाएं, लोकसभा, राज्यसभा के कामकाज है। सरकार का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप एवं प्रभाव देखने को मिल रहा है। न्यायपालिका भी सरकार के किसी भी निर्णय पर उसकी संवैधानिक समीक्षा कर अवरोध बनना नहीं चाहती है। जिसके कारण पिछले वर्षों में अथवा पिछले माहों में न्यायपालिका ने जिस तरीके से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के साथ सहयोग किया है। उसको लेकर अब यह कहा जाने लगा है, कि भारत में कार्यपालिका ही सर्वोच्च है। न्यायपालिका और विधायिका कार्यपालिका के सामने बोने हैं। जिसके कारण भारत में अब जो है, वह सरकार ही है।
कोरोनावायरस संक्रमण के बाद जिस तरह की स्थितियां देश में देखने को मिल रही हैं। उसमें गरीब और अमीर की लड़ाई भी अब सामने दिखने लगी है। सरकार ने विदेशों से लोगों को भारत बुलाया उनके लिए सारे इंतजाम किए। क्योंकि यह विशिष्ट वर्ग था। गरीबों के मामले में सरकार की सोच अलग है। गरीबों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोनावायरस के संक्रमण को देखते हुए जब लॉकडाउन की घोषणा की। तो केवल 4 घंटे का समय गरीबों को दिया। जिसके कारण करोड़ों मजदूर और गरीब जो अपना घर छोड़कर विभिन्न राज्यों में रोजी रोजगार और नौकरी के लिए गए थे। वह वहीं फंसे रह गए। उनके पास रहने के लिए छत भी नहीं है। लॉकडाउन के कारण सब काम धंधे बंद हो गए है। बाहर भी नहीं निकल पा रहे हैं। ना वह पैदल जा पा रहे हैं। ना उनके लिए सरकार ने ट्रेन और बस का प्रबंध किया। जगह जगह पर उन्हें रोकने के लिए जो क्वॉरेंटाइन सेंटर बनाए गए। उनमें कोई सुविधाएं नहीं है। वहां पर फिजिकल डिस्टेंस का भी पालन नहीं हो पा रहा है। उन्हें खाना भी नहीं मिल पा रहा है। इसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट और अन्य संस्थाएं उनकी व्यथा सुनने के लिए तैयार नहीं है। स्थिति यह बन गई है कि अब लोग कहने लगे हैं की जेल भेज देते, तो वहां कम से कम दो टाइम का भोजन और रहने के लिए छत तो मिलती। लेकिन क्वॉरेंटाइन सेंटर मैं जिस तरह से लोगों को बंद करके रखा है। उससे तो अच्छे कांजी हाउस हैं। जहां पर पशुओं को रखा जाता है। 1 महीने से अधिक समय हो गया। रोज कमाने खाने वाले मजदूर और कामगार आज अपने छोटे -छोटे बच्चों के साथ यहां से वहां भटक रहे हैं। खाना नहीं मिल रहा है। सरकार उनकी बात नहीं सुन रही है। विधायिका मौन साधे हुए बैठी हैं। न्यायपालिका चुप है। वह कह रही है, ऐसे समय पर हमें सरकार का सहयोग करना है। लेकिन गरीबों को सहयोग कौन करेगा। इसको लेकर कोई सोच नहीं है। जगह-जगह पर अब यह गरीब निकलकर, अपना विरोध प्रदर्शन कर रहा है। उसे अभी भी लगता है, कि सरकार और न्यायपालिका उसकी बात सुनेगी। उसे घर भेजने की व्यवस्था करेगी। क्वॉरेंटाइन सेंटर्स की हालत सुधरेगी। अस्पतालों में इलाज मिलेगा। लेकिन अब उसका यह भरोसा भी धीरे-धीरे टूटता चला जा रहा है। कहा जाता है, भूख से बड़ी कोई आग नहीं होती है। आज देश में करोड़ों लोग लॉकडाउन लागू होने के बाद बच्चों को दो टाइम का भोजन नहीं दे पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में अब गरीबी और अमीरी के बीच में जो खाई बनकर सामने आई है। आगे चलकर इसके बड़े दुष्पिरिणाम देखने को मिल सकते हैं।
(लेखक- सनत जैन)
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