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समाजवाद के बिना संविधान अधूरा 

समाजवाद के बिना संविधान अधूरा 

टी वी नहीं होने के कुछ फायदे भी हैं यद्यपि कुछ नुकसान भी हैं कि कई घटनाओं की तुरंत जानकारी नहीं मिल पाती। मुझे एक मित्र ने बताया कि कुछ दिनों पहले भाजपा के एक राज्यसभा सांसद श्री राकेश सिन्हा जी ने कहा कि संविधान से समाजवाद शब्द हटा देना चाहिए। वैसे भी इन दिनों समाजवाद वैश्विक स्तर पर हमलों से ग्रस्त है और विशेषत: उदारीकरण के दौर के बाद। शायद उसकी वजह यह है कि उदारीकरण के दौर के बाद दुनिया में आर्थिक विषमताओं की जो खाई बढ़ी है वह इतनी चिंताजनक है कि लोग जब कभी भी उन तथ्यों को सुनते हैं तो चौकते भी हैं और आक्रोशित भी होते हैं। आजकल पूंजीवाद के तर्कें को दुनिया में प्रचार और उनके पक्ष की सूचनाओं को पहुंचाने का एक बड़ा माध्यम संयुक्त राष्ट्र संघ बन गया है। जिस प्रकार कारपोरेट अपनी संपत्ति या मुनाफे का कुछ हिस्सा दान में देकर या सीएसआर के नाम से खर्च कर गरीब दुनिया को उप.त करते हैं और यह बताने का प्रयास करते हैं कि पूंजीवाद गरीबों की बहुत मदद कर रहा है यह भी उसी खेल का हिस्सा लगता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी रिपोर्ट में भारत में गरीबी कम होने की बात कही थी और बताया था कि भारतीयों की प्रति व्यक्ति औसत आय रू.126000 प्रति वर्ष है। हालांकि इसी रपट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय रू.57480 और बिहार में रू.42240 प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष है। यानी बिहार में लगभग-लगभगरू.3500 और उत्तर प्रदेश में लगभग रू.4600 प्रतिमाह। देश के पैमाने पर देखें तो आंकड़ा रू.8500 प्रतिमाह का ही आता है जबकि औसत आय जब निकाली जाती है तो अमीर और गरीब सबको मिलाकर ही औसत निकाला जाना है। यानी श्री मुकेश अंबानी की 300 करोड़ प्रतिदिन की आय और गांव के मजदूर की रू.3000 प्रतिमाह की आय, सामाजिक विधवा व, निराश्रित पेंशन पाने वालों की रु.1000  प्रतिमाह की आय भी इसमें शामिल होती है और इसलिए दुनिया के इन देशों के बारे में जो गरीबी सूचकांक की रपट संयुक्त राष्ट्र संघ ने जारी की उसके अनुसार दुनिया में गरीबी घट रही है। इस रपट के अनुसार 2006 से 2016 के बीच देश में 27 करोड लोग गरीबी रेखा से बाहर आए हैं। इस सूचकांक में गरीबी को तय करने के लिए 8 कसौटियां बनाई गई थी। जिनमें पोषण की कमी-शिशु मृत्यु दर में कमी-रसोई गैस का इस्तेमाल-स्वच्छता-पीने का पानी-बिजली-मकान तथा संपत्तियों का अभाव तय किया गया था। शायद भारत सरकार के कुछ महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों और गरीबी घटने के आंकड़ों के रहस्य की अंतर कथा आप इससे जान सकते हैं। 2014 के बाद भारत सरकार ने उज्जवला गैस योजना-स्वच्छता अभियान -प्रधानमंत्री आवास योजना-हर गांव का विद्युतीकरण आदि अभियान शुरू किए हैं। इसी प्रकार मातृत्व के अवकाश से लेकर बच्चे के जन्म तक सुविधा और कुछ पैसे देने के कार्यक्रम भी शुरू हुए हैं। जो कसौटियां संयुक्त राष्ट्र संघ ने तय की थी उनके आधार पर देश में अब तक 27 करोड़ और इसी प्रकार रहा तो सन 2020 के बाद 30 से 40 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा के बाहर सरकार के अनुसार आ जायेंगे। हालांकि मैं सरकार को मित्रवत चेतावनी जरूर देना चाहता हूं कि गरीबी से उबरने के आंकड़े तैयार करने में कहीं देश के गरीबी की सीमा रेखा की संख्या को ही मत लांघ जाना, वरना किसी दिन पता चलेगा कि देश में गरीब तो 32 पर  करोड़ थे और 40 करोड़ गरीबी से मुक्त हो गए। आंकडों की खेती से कुछ भी सम्भव है। 
दूसरी तरफ ऑक्सफैम ने पिछले कुछ वर्षें से यह क्रम शुरू किया है कि विश्व आथ्Zिाक मंच की बैठक के पहले जब संयुक्त राष्ट्र संघ के अतिरंजित आंकड़े मंच पर प्रस्तुत होते हैं तभी ऑक्सफैम भी अपने आंकड़े रखकर एक तुलनात्मक मंच और सूचना प्रदान करता है। ऑक्सफेम के मुताबिक दुनिया में भारत सहित आथ्Zिाक असमानता बहुत बड़ी है तथा भारत में 63 अरबपतियों के पास देश के आम बजट की राशि से यानी लगभग 39 लाख करोड़ से अधिक की संपत्ति है। इन 63 लोगों के पास भारत के 95 करोड लोगों से 4 गुना ज्यादा संपत्ति है। उदारीकरण के दौर के पहले भारत में जो विषमता थी वह 10 गुने से अधिक बढ़ गई है। 63 अरबपतियों की संपत्ति देश की जीडीपी के 15प्रतिशत पर पहुंच गई है। और क्रेडिट सुईस कंपनी के अनुसार भारत का दुनिया के अमीरों में छठवां स्थान हो गया है इसीलिए आथ्Zिाक सामाजिक खुशहाली के मुद्दे पर भारत बहुत पीछे है। सीएसआर से अमीरों का क्रूर चेहरा उदार मुखोटे में पेश किया जा सकता है परंतु गरीबी नहीं मिट सकती। सीएसआर  भी सरकार और उद्योग जगत की कठपुतली है। इसलिए कि जो 12000 करोड रुपए वर्ष 2019 में खर्च किए गए थे उनका अधिकांश हिस्सा गुजरात और महाराष्ट्र में खर्च हुआ ना कि पहाड़ी राज्यों में। ना उत्तर प्रदेश ना बिहार में। कारण साफ है कि, राजसत्ता गुजरात में हैं और धन सत्ता मुंबई में।  सीएसआर वैसे भी एक प्रकार का धोखा है। क्योंकि सीएसआर के नाम पर अपने मुनाफे का कुछ प्रतिशत जो कंपनियां खर्च करती हैं इसके लिए उन्हें करों में छूट मिल जाती है। जो सबसे मुख्य समस्या हैं वह बढ़ रही है आथ्Zिाक विषमता की। सबसे मुख्य समस्या यह कि, आर्थिक विषमता की खाई दिन प्रतिदिन बढ रही है।  और सरकारों का इस तरफ कोई ध्यान नहीं है।  हालत यह है कि, केंद्र सरकार से लेकर राज्य की सरकारें तक उधारी पर चल रही हैं। इनका प्रशासनिक खर्च बढ़ता जा रहा है। 2010 से 2019 के 10 वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों का खर्च जो लगभग 18लाख करोड रुपये  प्रतिवर्ष का था बढकर लगभग साढे तिरेपन लाख करोड रुपए का हो गया है। यानी औसतन 211करोड़ रुपया प्रति घंटे से बढ़कर 612 करोड़ रुपये प्रति घंटा देश की जनता को सत्ता और प्रशासन के सफेद हाथियों पर खर्च करना पड़ रहा है। केंद्रों और राज्यों की उधारी दूसरी तरफ 6.2 लाख करोड़ से बढ़कर 2019 में 12.5लाख करोड़ रुपए हो गई है। यानी केंद्र और राज्य मिलकर प्रति घंटे 143 करोड़ रुपए का कर्ज ले रहे हैं। ऑक्सफेम के मुताबिक दुनिया के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों के पास दुनिया के सात अरब लोगों से अधिक की संपत्ति है। इसलिए दुनिया के पिछले वर्षों के सबसे अमीर बिल गेट्स और वारेंन वफैट के पास इतनी संपत्ति जमा हो गई है कि  वे क्रम से 350 वर्ष तक और 150 वर्ष तक छह करोड़ रुपए रोज खर्च करते रहे तो भी उनकी संपत्ति का समुद्र सूखने वाला नहीं है।  
अब तो अमेरिका जैसे देशों में भी विषमता को कम करने को लेकर एक बहस शुरू हुई है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की प्रत्याशी वारेन के अनुसार अगर अमेरिका के 5 करोड डॉलर से अधिक की संपत्ति वालों पर 2 प्रतिशत और 10 करोड डॉलर वालों पर मात्र तीन प्रतिशत का लगा दिया जाए तो प्रतिवर्ष 85000 करोड रुपए मिल जाएंगे। अमेरिकी समाज का एक हिस्सा बढ़ती विषमता और गरीबी की खाईं से चिंतित तो हुआ है परंतु वह अभी भी विषमता की व्यवस्था को मिटाने के या समता की व्यवस्था के लक्ष्य पर नहीं पहुंचा है। पूंजीवाद ने गरीबों के विद्रोह को कम करने के या मिटाने के लिए दो और जुमले चलाएं हैं पहला राष्ट्रीय आय का  एक हिस्सा सब मतदाताओं में बराबर-बराबर बांट दिया जाए। जिसके बांटने पर भारत में कुछ हजार करोड रुपए खर्च होंगे और सरकार के बजट से या आरबीआई की जमा राशि से लोगों में बांट दिया जाए। ऐसी भी सूचना है कि, पिछले कुछ समय से भारत सरकार जो सवा लाख करोड रुपए आरबीआई से लेना चाहती है उसका उद्देश्य भी यही है कि इसे लेकर आम चुनाव के पहले देश के गरीब लोगों को बांट दिया जाए और यह आश्चर्यजनक नहीं होगा कि कुछ हजार रुपए मिल जाने के बाद मतदाता सरकार को महान मसीहा मान कर फिर मोहर लगा दे। पूंजीवाद के थिंक टैंक और प्रचार तंत्र ने यह बहस शुरू की है कि समाजवाद का कोई अर्थ नहीं बचा है। और इसलिए समाजवाद को न केवल राष्ट्रीय एजेंडा से बल्कि संविधान से हटा देना चाहिए।  भाजपा सांसद श्री राकेश सिन्हा का बयान भारतीय संविधान से समाजवाद शब्द को हटाने की सोच पूंजीवाद की रणनीति का ही हिस्सा है। 14 अप्रैल बाबा साहब का जन्मदिन था और बाबा साहब यह चाहते थे कि भारतीय संविधान में समाजवाद की व्यवस्था संवैधानिक हो। उन्होंने इसे  संविधान सभा में मजबूती से रखा भी था।यद्यपि सफलता नहीं मिली। 
 परंतु भाजपा के अग्रिम दस्ते के लोगों के बयान चिंताजनक है। यह सरकार के स्तर पर लिखी जा रही पटकथा का पूर्व आकलन जैसा है। मैं भारत सरकार से कहूंगा कि संविधान के मौलिक अंश से छेड़छाड़ की गलती ना करें। समाजवाद एक संवैधानिक लक्ष्य और सपना है जो देश के आजादी के आंदोलन का भी था। और विषमता की खाई को मिटा कर बराबरी के समाज का सपना है अब सरकार को गरीबी की परिभाषा बदलना चाहिए। जो कसौटी अभी हैं वे देश में कुछ सुविधाओं को देने वाली तो हैं तो परंतु गरीबी को मिटाने वाली या विषमता को कम करने वाली नहीं है। गरीबी को  मिटाने का मतलब होना चाहिए कि व्यक्ति की आय में वृद्धि हो और आय का अंतर घटाकर 1 से 10 के बीच में लाना चाहिये। अगर देश में सबसे कम आय और सबसे अधिक आय में अधिकतम 10 गुने की सीमा रेखा खींच दी जाए तो न अमीरी रहेगी और न गरीबी नहीं रहेगी। देश ज्यादा एकजुट होगा। यही सच्चा राष्ट्रवाद होगा। कितना अच्छा हो कि इस 14 अप्रैल को देशभर में उनके मानने वाले संकल्प लेते की समाजवाद के सपने को संविधान से नहीं मिटने देंगे।
 (लेखक-रघु ठाकुर)

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