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नेताओं के साथ अभिनेताओं को भी भायी दिलवालों की दिल्ली

नेताओं के साथ अभिनेताओं को भी भायी दिलवालों की दिल्ली

 देश की सत्ता की धुरी दिल्ली धुरंधर राजनीतिज्ञों की कर्मभूमि रही है। अटल-आडवाणी सहित कई कद्दावर नेताओं ने संसद में यहां का प्रतिनिधित्व किया। इन नेताओं के साथ ही अभिनय और खेल की दुनिया के बड़े सितारे भी यहां चुनावी समर में दांव आजमाते नजर आए। कुछ को दिल्ली वालों ने हाथों हाथ लिया तो कुछ को सिरे से खारिज किया। दिल्ली में उनका हश्र कुछ भी हुआ, लेकिन यहां चुनावी आकाश में चमक बिखेरने वाले लगभग सभी बड़े सितारे बाद में देश के सियासी फलक पर अवश्य छा गए। दिल्ली में सितारों की सियासत की कहानी १९९१ के लोकसभा चुनाव में उस समय के मशहूर अभिनेता राजेश खन्ना के राजनीति में कदम रखने के साथ होती है। भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी की सियासी राह मुश्किल बनाने के लिए कांग्रेस ने उन्हें नई दिल्ली के रण में उतार दिया। 
    कांग्रेस के इस दांव से भाजपा खेमे में खलबली मच गई थी और पार्टी को अपने शीर्ष नेता को गुजरात के गांधीनगर से भी चुनाव लड़ाने का फैसला करना पड़ा था। नई दिल्ली के मतदाताओं पर खन्ना का जादू खूब चला और आडवाणी किसी तरह लगभग १५०० मतों से अपनी सीट बचा सके। वहीं, गांधीनगर से उन्हें बड़ी जीत मिली थी और उन्होंने दिल्ली छोड़कर गुजरात को अपनी सियासी कर्मभूमि बना लिया।
    लालकृष्ण आडवाणी के नई दिल्ली सीट छोड़ने के बाद १९९२ में उपचुनाव हुआ, जिसमें कांग्रेस ने फिर से राजेश खन्ना को टिकट दिया। इसके जवाब में भाजपा ने शत्रुघ्न सिन्हा को मैदान में उतार दिया। उपचुनाव बेहद रोचक हो गया था। शत्रुघ्न को पराजय का सामना करना पड़ा, लेकिन बाद में वह राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंचे और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री बने। भाजपा के टिकट पर वह बिहार के पटना साहिब से लोकसभा भी पहुंचे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व अन्य भाजपा नेताओं और केंद्र सरकार के खिलाफ लगातार बयानबाजी करते रहे शत्रु टिकट कटने के बाद अब कांग्रेस के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं।
    कजरा मोहब्बत वाला, अंखियों में ऐसा डाला.. गीत में अपने अभिनय का दम दिखा चुके फिल्म अभिनेता विश्वजीत भी २०१४ के चुनाव में नई दिल्ली लोकसभा सीट से तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं। हालांकि, वह बुरी तरह से हार गए थे। इसी वर्ष फरवरी में उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया है। ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी' सीरियल में तुलसी का किरदार निभाने वाली स्मृति ईरानी ने दिल्ली से अपने सियासी आंगन में कदम रखा। भाजपा ने उन्हें कांग्रेस के दिग्गज कपिल सिब्बल के खिलाफ चांदनी चौक से उतारा था। यह अलग बात है कि वह चुनाव हार गईं, लेकिन राजनीतिक क्षितिज पर उनकी चमक लगातार बढ़ती गई। पिछले चुनाव में उन्हें अमेठी से राहुल गांधी के खिलाफ मैदान में उतारा गया। उन्होंने राहुल को जबरदस्त टक्कर दी, लेकिन इसे जीत में नहीं बदल सकीं। हालांकि, पीएम मोदी ने उनपर भरोसा जताते हुए सरकार में केंद्रीय मंत्री बनाया। अब पार्टी ने एक बार फिर उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष के खिलाफ अमेठी से चुनाव मैदान में उतारा है।
    अपने जमाने के धाकड़ बल्लेबाजों में शुमार चेतन चौहान और कीर्ति आजाद भी दिल्ली में चुनावी किस्मत आजमा चुके हैं। चौहान भाजपा के टिकट पर १९९१ में ही उत्तर प्रदेश के अमरोहा से लोकसभा चुनाव जीत चुके थे। वहीं, २००९ में पार्टी ने उन्हें पूर्वी दिल्ली से अपना उम्मीदवार बनाया, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। अब वह उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री हैं। 
    कीर्ति आजाद ने भी अपना चुनावी सफर दिल्ली से शुरू किया। पार्टी ने उन्हें दिल्ली में लोकसभा के बजाय १९९३ में गोल मार्केट विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ाया था और वह विजयी हुए थे। १९९८ के विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। बाद में वह बिहार के दरभंगा से भाजपा के टिकट पर जीतकर संसद पहुंचे थे। पार्टी के खिलाफ बयानबाजी के कारण भाजपा ने निलंबित कर दिया था। अब टिकट की उम्मीद में वह कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। 
    समाजवादी पार्टी के टिकट पर गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ के हाथों पराजित होने के बाद भोजपुरी कलाकार मनोज तिवारी को सियासी पहचान दिल्ली में ही मिली। वह वर्ष २०१३ में भाजपा में शामिल हुए और पार्टी ने उन्हें २०१४ के चुनाव में उत्तर-पूर्वी दिल्ली से चुनाव मैदान में उतार दिया। पार्टी के भरोसे पर खरे उतरे और उन्होंने कांग्रेस से यह सीट छीनकर भाजपा की झोली में डाल दी। पार्टी ने २०१६ के आखिर में उनका सियासी कद बढ़ाते हुए दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बना दिया। इस बार भी वह उत्तर-पूर्वी दिल्ली से टिकट के दावेदार हैं। मनोज तिवारी बनारस हिंदू विवि में पढ़ाई के दौरान गायक के रूप में स्थापित हो गए थे। 

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