मध्यप्रदेश पर राज्य कर रही भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों खलबली है, हर कहीं से एक ही सवाल उठाया जा रहा है, तुम्हे तो सरकार मिल गई, पर हमें क्या ? यह सवाल भी वे लोग उठा रहे है जो इस पार्टी के जन्म के पहले से जनसंघ में सक्रिय थे, और उन्होने अपनी पूरी जवानी पार्टी में समर्पित कर दी, इनकी नाराजगी यह है कि ‘‘हमने जो जिंदगी भर पार्टी का ध्यान रखा, किन्तु पार्टी ने हमारा कितना ध्यान रखा ? इनका स्पष्ट कहना है कि ‘‘अब तो अवसरवादियों को महत्व दिया जा रहा है, और इस तरह ‘‘अवसरवादियों के सामने समर्पण हार गया है’’ । और आश्चर्य यह कि पार्टी नेत्तृव के पास में इन नींव के पत्थरों के सवालों के कोई जवाब नही है, इस कारण पार्टी में अन्तद्र्वन्द्व बढता जा रहा है और असंतुष्टों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है।
हमारे देश के इस ह्रदय प्रदेश में डेढ साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा व कांग्रेस के बीच जीत का अंतर बहुत महीन रहा था, चूंकि कांग्रेस की सीटे ज्यादा थी, इसलिए कमलनाथ जी के नेत्तृव में कांग्रेस की सरकार 2018 के आखिर में बन गई। किन्तु पार्टी के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया नने अपने आत्म सम्मान में कमी महसूस की और उन्होने मार्च-2020 में अपने समर्थक विधायको के साथ कांग्रेस से बगावत की और भाजपा में शामिल हो गए और संख्या बल के आधार पर यहॉ भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गई, सरकार बनते ही मंत्री पद की रैस शुरू हो गई और इसी में एक महीने से ज्यादा समय तक अकेले मुख्यमंत्री शिवराजसिंह जी को सत्ता की बागडोर संभालनी पडी, फिर सत्ता के मुख्य सूत्रधार ज्योतिरादित्य सिंधिया की नाराजी को महसूस कर उनके खेमे के कुछ पूर्व विधायको को मंत्री पद नवाज कर मामला शांत किया गया। किन्तु इस से पार्टी में अशांति और बढ गई क्योंकि मंत्री पद के प्रमुख दावेदार हाथ मलते रह गए, अब स्थिति यहॉ तक पहुँच गई है कि कोरोना की लडाई लडने वाले शिवराज जी को मंत्री परिषद के गठन को मजबूर होना पड रहा है और सिंधिया के साथ कांग्रेस छोडकर भाजपा में आने वाले सभी पूर्व विधायक मंत्री बनना चाहते है, इससे भाजपा के समर्पित वरिष्ठ नेता को अपनी उपेक्षा का अंदेशा हो गया है, साथ ही वे भाजपा कार्यकर्ता भी नाराज हो गए जो उपचुनावों में पार्टी टिकट की उम्मीद लगाए बैठे है। अब पार्टी नेत्तृव व मुख्यमंत्री के लिए पार्टी उम्मीदवार व मंत्री पदो के लिए सही व ईमानदारी पूर्ण चयन भी चुनौती पैदा हो गई है और कोई भी पीछे हटने को तैयार नही है।
अब पार्टी के वरिष्ठो का एक ही नारा है ‘‘अब तक हमने पार्टी का ध्यान रखा, अब पार्टी हमारा ध्यान रखे’’। साथ ही इनका यह भी कहना है कि ‘‘पार्टी का हर फैसला हमें मंजूर है, लेकिन साथ ही पार्टी हमारे पार्टी हमारे सम्मान का भी पूरा ध्यान रखें भाजपा के वरिष्ठो के इस तर्क के साथ पार्टी का बहुसंख्यक वर्ग जुड गया है, इसलिए शिवराज जी या पार्टी नेत्तृव को भी कोई महत्वपूर्ण फैसला होने में असुविधा महसूस हो रही है। सिंधिया समर्थको का तर्क है कि उन्होने अपनी पूरी प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर मध्यप्रदेश में भाजपा को समर्थन देकर सरकार बनवाई है, इसलिए उनकी उपेक्षा नही की जा सकती, इधर भाजपा के वरिष्ठों का भी कहना है कि उन्होने पूरा जीवन पार्टी को समर्पित किया, इसलिए उनकी भी उपेक्षा नही की जा सकती, इसी कारण पार्टी आला कमान व मुख्यमंत्री की दुविधा व चुनौती दोनो ही बढ गई है।
इधर चूंकि अपनी कुर्सी खोने वाले कमलनाथ जी ने भी भाजपा को उपचुनावो के बाद पुनः सरकार बना लेने की खुली चुनौती दे दी है इसलिए कांग्रेसियो के भी हौसले आसमान छू रहे है। लेकिन सबको पता है कि ग्वालियर, भिंड, मुरैना में सिंधिया का कोई विकल्प फिलहाल नही है, इसलिए भाजपा ने जीत-हार की पूरी जिम्मेंदारी ज्योतिरादित्य के कंधे पर डाल दी है।
इस प्रकार आगामी दो महीने मध्यप्रदेश में राजनीतिक दृष्टि से काफी अहम रहने वाले है, इसी बीच भाजपा गंभीर चिंतन करने को मजबूर है कि सिंधिया से किया गया सौदा मंहगा तो नही पडेगा?
(लेखक- ओमप्रकाश मेहता)
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(भाजपा का आत्मचिंतन) सिंधिया से दोस्ती: महंगा सौदा तो नही....?