शराब के लिए ऐसी मारामारी, वह भी महात्मा गांधी के देश में? भारत में मदिरा प्रेम के ताजा नमूने पर दुनिया हतप्रभ होगी। शराब दुकानों के बाहर लंबी लाइनें, तपती धूप में आठ से दस घण्टे तक का इंतजार, कोरोना संक्रमण से बेपरवाह लोग और कहीं-कहीं सोशल डिस्टेंसिंग निर्देश तोडऩे पर चिपकती पुलिसिया लाठियां। ऐसे बेमेल हालातों के बीच शराब प्रेमियों का संकल्प और उनकी मन:स्थिति क्या कुछ सोचने पर विवश नहीं करती है? बात यहीं तक सीमित नहीं है। कुछ स्थानों पर शराब दुकानों के बाहर महिलाओं की अलग लाइनों की तस्वीरें देखने को मिलीं। गनीमत यही रही कि महिला लाइनों में सोशल डिस्टेंसिंग का कायदे से पालन दिखाई दिया। हैरान कर देने वाले दृश्य भी देखने को मिले जैसे, सत्तर-बहत्तर साल के बुजुर्ग तक धक्का-मुक्की में मग्न थे। तमिलनाडु में वाइन शॉप के बाहर सोशल डिस्टेंसिंग सुनिश्चित कराने के लिए पुलिस ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया। वहां शराब लेने आने वालों को साथ में छतरी लगाये रखना अनिवार्य कर दिया गया। खुली छतरी से धूप से बचाव हो रहा और लोग आपस में दूरी बनाये रखने पर विवश हैं।
बीते पूरे हफ्ते शराब के लिए मारा-मारी की खबरों के बीच कई सुझाव सामने आए। कुछ वाजिब सवाल भी उठे। प्रसिद्ध जैन संत आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने देश के नाम संदेश में कहा- जिन लोगों के पास कुछ दिन पहले भोजन के लिए रुपए नहीं थे, उनके पास शराब खरीदने के लिए पैसे कहां से आ गए? आचार्यश्री का मानना है कि ऐसे हालात में कोरोना संकट से उत्पन्न हालात को सुधारना मुश्किल हो जाएगा। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर राज्य सरकारों से कहा कि शराब की ऑनलाइन बिक्री पर विचार करें। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि कोरोना संक्रमण की आशंकाओं को देखते हुए राज्यों को शराब की होम डिलीवरी या इसकी ऑनलाइन बिक्री जैसे विकल्पों पर विचार करना चाहिए।
कोरोना संकट काल और शराब बिक्री के मुद्दे पर एक तीसरे पक्ष के विचार भी सामने आए। इन लोगों का कहना है कि सभी राजनीतिक दलों को शराब बिक्री पर देशव्यापी पाबंदी लगाने पर सहमति बनानी चाहिए। सरकारी खजाने को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए अन्य विकल्पों पर भी सभी को एकमत होना होगा। तर्क यह दिया जा रहा है कि महात्मा गांधी भी शराब बिक्री के विरोधी थे। गांधी जी ने कहा था कि मुझे अधिकार होता तो सबसे पहले पीने पर पाबंदी लगाता। वह शराब को समाज का शत्रु मानते थे। उनका मत था कि शराबी इंसान जानवर से कम नहीं होता। दूसरी ओर, कुछेक मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि शराब को कोसने की कोई जरूरत नहीं है। उनके अनुसार शराब के लिए लंबी-लंबी लाइनों पर हैरान होने की क्या बात है। भारत में शराब पीने वालों के व्यवहार को समझने की आवश्यकता है। चालीस दिनों बाद दुकानें खुलते ही शराब के लिए भीड़ उमडऩा स्वाभाविक है। माना कि शराब स्वास्थ्य और समाज दोनों के लिए मुसीबत खड़ी करती रही है लेकिन इस तथ्य को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि शराबबंदी को कहीं भी शत-प्रतिशत सफलता का दावा नहीं किया जा सका है। बापू की भावनाओं का सम्मान करते हुए गुजरात ने स्थाई शराबबंदी लागू कर रखी है। वहां भी चोरी-छिपे बोतल की व्यवस्था हो जाने की बात सुनने में आती रहीं हैं। बिहार में भी शराबबंदी है। देखना बस यह है कि नीतिश सरकार कब तक अपने फैसले पर टिकी रह पाती है। पहले भी कई राज्य यह प्रयोग कर चुके हैं। उन्हें कदम वापस लेने पड़े। कभी अवैध और जहरीली शराब को धंधा पनपना कारण बताया गया। कभी पड़ौसी राज्यों से शराब की चोरी-छिपे आपूर्ति की बात की गई। एक अन्य कारण सरकारी खजानों पर दबाव बढऩा रहा।
शराब किंग जैसे अघोषित खिताब से अलंकृत रहे विजय माल्या ने कई वर्ष पहले अपने भोपाल प्रवास के दौरान कहा था कि हमें अपनी डिं्रकिंग हेबिट में थोड़ा सुधार करना होगा। माल्या ने कहा था कि सरकार को सिर्फ अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शराब, वह भी वाजिब दाम में बेचे जाने पर जोर देना चाहिए। यह काम शराब पर टैक्स को तर्कसंगत बनाकर किया जा सकता है। इससे राज्यों की आमदनी में विशेष अंतर नहीं आएगा। पीने के शौकीनों को शराब में डूब जाने या शराब से नहाने जैसे प्रवृत्ति से छुटकारा पाना होगा। प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह का एक कमेंट कहीं पढ़ा था। वह शराबबंदी के विरूद्ध थे। वह कायदे से पीने में कोई बुराई नहीं मानते थे। पिछले दिनों एक रिपोर्ट पर नजर गई। बताया गया है कि तीस सालों में देश में शराब खपत 55 प्रतिशत से अधिक बढ़ी है। भारत में 14.6 प्रतिशत लोग शराब पीते हैं। 27 प्रतिशत पुरुष और 1.6 प्रतिशत महिलाएं शराब पीती हैं। शराब की कुल खपत में 30-30 प्रतिशत हिस्सेदारी भारत में निर्मित विदेशी शराब और देसी शराब की है। देश में शराब की लगभग 70 हजार दुकाने हैं। एक्साइज शुल्क के रूप में पौने दो लाख करोड़ रुपए आते हैं। इसमें से 25 हजार करोड़ रुपए से अधिक राशि अकेले उत्तर प्रदेश के खजाने में जाती है।
कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि इस समय शराब दुकानों को खोलने की क्या जरूरत थी? इस तरह के सवाल व्यावहारिक पक्ष से अनभिज्ञता दर्शाते हैं। लॉकडाउन से राज्यों की आमदनी के स्रोत सूख से गए हैं। एक्साइज शुल्क सरकारी खजाने को तत्काल राहत पहुंचाने वाला कहा जाता है। पेट्रोल-डीजल पर अधिक टैक्स लगाने से उसके अपने साइड इफेक्ट्स होते हैं। शराब के लिए मारामारी की स्थिति कोरोना संक्रमण को बढ़ाने वाली हो सकती है। शराब की आनलाइन बिक्री या होम डिलीवरी काफी हद तक सुरक्षित विकल्प होगा। नि:संदेह शराब स्वाद और मिजाज दोनों से कड़वी होती है। इससे होने वाले नुकसानों से भी असहमत नहीं हुआ जा सकता। यहां इस तथ्य को अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए कि वेश्यावृत्ति की तरह मदिरा सेवन को भी इस धरती पर सबसे पुरानी बुराई माना गया है। इसे जड़ से खत्म करना भले संभव नहीं हो लेकिन कुछ हद तक नियंत्रित और अधिक व्यवस्थित किया ही जा सकता है।
(लेखक-अनिल बिहारी श्रीवास्तव)
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शराब बिक्री और कुछ वाजिब सवाल