एक यात्री जा रहा था। अंधेरी रात थी। उसे लम्बा रास्ता तय करना था। एक व्यक्ति ने उसे लालटेन देते हुए कहा, 'इसके प्रकाश में तुम अपना रास्ता देख पाओगे। मार्ग सुख से कटेगा। इसे ले जाओ।' उस यात्री ने देखा कि लालटेन का प्रकाश तीन-चार फीट तक फैल रहा है। उसके मन में संदेह हुआ कि रास्ता बहुत लंबा है। प्रकाश केवल तीन-चार फीट तक ही पड़ता है। रास्ता पार कैसे कर पाऊंगा? वह उलझ गया और उलझता ही गया। वह बोला, 'तीन-चार फीट का प्रकाश मुझे दस मील की यात्रा कैसे करा पाएगा?'
यह विधि को न समझने के कारण है। विधि को समझे बिना साधक उलझ जाते हैं। विधि को ठीक समझ लेते हैं तो तीन-चार फीट का प्रकाश दस मील की यात्रा करा सकता है। यह प्रकाश दस मील के पूरे पथ को प्रकाशित कर सकता है। आप चलते चलें, दस मील का रास्ता प्रकाशित हो जाएगा और यदि उसी बिन्दु पर खड़े रह गए तो दो फीट का रास्ता ही प्रकाशित होगा, शेष अंधकार ही अंधकार रहेगा। आवश्यकता है चलने की, सतत गतिशील रहने की।
विधि को समझें और चलें। विधि को समझना ही पर्याप्त नहीं है, चलना भी पड़ेगा। आगे से आगे बढ़ना होगा। यदि नहीं चले, रूके रह गए तो प्रकाश जहां पड़ता है वहीं पड़ेगा, वह आगे नहीं बढ़ेगा। वह तभी बढ़ेगा, जब हम बढ़ेंगे। वह हमारे रूकने के साथ रूकेगा और बढ़ने के साथ बढ़ेगा। अभ्यास करते जाएं। आप अपनी मंजिल तक पहुंच जाएंगे। मंजिल स्वत: मिल जाएगी।
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(चिंतन-मनन) गतिशील रहें