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कोरोना संक्रमण भी भारत में बन गया इवेंट 

कोरोना संक्रमण भी भारत में बन गया इवेंट 

कोरोनावायरस संक्रमण को रोकने के लिए केंद्र सरकार द्वारा पहले 1 दिन का जनता कर्फ्यू लागू किया। उसके बाद 24 मार्च से 21 दिन का लॉक डाउन (जनता कर्फ्यू) लागू किया गया। पहले थाली बजाकर कोरोनावायरस से लड़ने की चुनौती दी गई। उसके बाद रोशनी करके कोरोनावायरस के संक्रमण को रोकने के लिए सारे देश ने अपनी प्रतिबद्धता जताई। 1 दिन के जनता कर्फ्यू और उसके बाद 21 दिन के जनता कर्फ्यू में देश के सभी नागरिकों ने, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हर बात को पूरी विश्वसनीयता के साथ स्वीकार किया। सारे देश ने यह मान लिया था कि 21 दिन की इस लड़ाई में कोरोना संक्रमण से भारत को मुक्ति मिल जाएगी। जनता के अच्छे दिन आ जाएंगे। जिस तरह से 21 दिन का लाकडाउन लागू करने की घोषणा की गई थी। उसमें 4 घंटे के अंतराल में रेल, बस सेवा, हवाई जहाज और सभी आवागमन के साधन प्रतिबंधित कर, लोगों को घरों में कैद कर दिया गया था। इसमें इस बात का ध्यान नहीं रखा गया, कि 21 दिन लोग किस तरह से खाद्य सामग्री प्राप्त करेंगे। किस तरह से बीमारी से मुकाबला करेंगे। विशेष रुप से करोड़ों मजदूर, जो विभिन्न राज्यों में जाकर मजदूरी कर रहे थे। वह छोटे से कमरे अथवा खुले आसमान के नीचे रह रहे थे। वह रोज कमाते थे, रोज खाते थे। इन लोगों को 21 दिन तक किस तरह से भोजन मिलेगा। इनके बच्चों को किस तरह दूध मिलेगा। इनके बीच में कैसे फिजिकल डिस्टेंसिंग बनाई जाएगी। इसका कोई विचार संभवत केंद्र सरकार ने नहीं किया। 1 दिन के जनता कर्फ्यू का जो समर्थन मोदी जी को मिला था। उसे एक बहुत बड़ी सफलता मानकर, 21 दिन का जो इवेंट तैयार किया गया था। उसमें मजदूरों एवं गरीबों को भाग्य भरोसे छोड दिया गया। इन्हीं 21 दिनों में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच, विशेष रूप से जो गैर भाजपा शासित राज्य थे। उनमें राजनीति शुरू हो गई। इस बात का भी ध्यान नहीं रखा गया, कि जो करोड़ों मजदूर रोजी रोटी के लिए अन्य राज्यों में रह रहे हैं। मोदी जी उनके भी जननायक थे। उन्होंने यह माना कि सरकार उनके खाने-पीने और मजदूरी का ध्यान रखेगी। लेकिन केंद्र सरकार ने मजदूरों को राज्यों के भरोसे छोड़ दिया। आपदा प्रबंधन में मजदूरों के लिए कोई योजना नहीं बनाई गई। जिसके कारण मजदूर जो मेहनत की कमाई खाने का आदी था। उसे भिखारियों की तरह खाना जुटाने और बच्चों का पेट पालने के लिए यहां से वहां भागना पड़ा। जिस तरह से भिखारियों की तरह उसे खाना मिला। कभी एक टाइम मिला, कभी वह भी नहीं मिला। बाहर निकलने पर पुलिस के लाठी और डंडे मिले। बच्चे भूख से बिलबिलाते रहे। उसके बाद भी गरीबों को यह विश्वास था कि 21 दिन के बाद उनके जननायक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनकी चिंता करेंगे। 21 दिन बाद दूसरा लाकडाउन लागू हो गया। प्रवासी मजदूरों के लिए जो योजनाएं बनी, वह केवल घोषणाएं ही रह गई। मजदूरों और उनके बच्चों को ना तो राशन मिला, ना उनकी जरूरत की चीजें मिली। 19 दिन के लिए उसे फिर दूसरे लॉक डाउन में धकेल दिया गया। जिसके कारण मजदूरों के सब्र का बांध टूट गया। भूखे प्यासे मजदूरों ने बच्चों के साथ जहां थे, जैसे थे, जिस हाल में थे, वहीं से घर जाने के लिए निकल पड़े। कहा जाता है भूख से बड़ा कोई दुख नहीं है। भूख से मौत का भय उत्पन्न होता है। जब व्यक्ति का पेट भरा होता है, उस समय उसे भौतिक सुख-सुविधा और मृत्यु का भय होता है। खाली पेट इंसान कोरोना से डरेगा, यह संभव नहीं है। गरीबों ने यह भी मान लिया कि कोरोना से हम बाद में मरेंगे, पहले तो भूख से ही मर जाएंगे। मरने से बचने के लिए आज सारे देश में, हर राज्य से लाखों मजदूरों का पलायन शुरू हो चुका है। केंद्र एवं राज्य सरकारें बड़े बड़े वादे मजदूरों से कर रही हैं। लेकिन इस पलायन के दौर में भी मजदूरों की सुध लेने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारे सामने नहीं आई। जो करोड़ों मजदूर सड़कों पर हैं। वह जगह-जगह कह रहे हैं, कि केंद्र एवं राज्य सरकारों ने उनके लिए कोई व्यवस्था नहीं की। रास्ते भर सामाजिक संस्थाओं ने उन्हें भोजन और पानी देने का काम किया है। मजदूरों पर दया करके कहीं ट्रक, ट्रैक्टर अथवा किसी वाहन में किसी ने बैठा के आगे तक छोड़ दिया। किसी ने चप्पल टूटने पर अपनी पुरानी चप्पलें दे दी। भारी गर्मी में सड़कों पर रेल की पटरी पर, खेतों के कच्चे रास्ते से नदी पार करके सीमेंट मिक्सर, ट्राले, मालवाहकों पर करोड़ों मजदूर एक ही धुन में अपने घर की ओर भाग रहे हैं। हम अपने घर पहुंच जाएंगे, तो बच्चों और स्वयं के लिए रोटी का इंतजाम तो कर लेंगे। मरेंगे भी तो अपनों के बीच ही मरेंगे।
कोरोना को भी इवेंट बनाकर, मजदूरों को उपेक्षित करके, राजनीतिक दलों ने जो राजनीति करने की कोशिश की है। उसके परिणाम स्वरूप आज भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई है। सामाजिक व्यवस्था, पारिवारिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, कानून व्यवस्था की स्थिति सभी बुरी तरह से गड़बड़ा गई हैं। व्यवस्था को पुनः पटरी में लाने के लिए कितनी मेहनत करनी होगी, कितना समय लगेगा, यह भी राजनेताओं की समझ में नहीं आ रहा है। मीडिया जिसे आजकल गोदी मीडिया भी कहा जा रहा है। वह भी मजदूरों इस दुख दर्द से दूर रहकर, कोरोना संक्रमण को इवेंट की तरह पेश कर रही है। सड़कों पर जब करोड़ों मजदूर पैदल बदहवासी में भाग रहे है। उस समय सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने भी अपनी आंखों में पट्टी बांधकर सरकार के ऊपर इन मजदूरों को भाग्य भरोसे छोड़ दिया है। जीवन जीने का मौलिक अधिकार भी अब मजदूरों के पास नहीं रहा। 
समय अपनी गति से चलता है। समय पर किसी का कोई वश नहीं होता है। गरीबों को अपने महानायक, नरेंद्र मोदी पर विश्वास था, कि वह उनकी सुध लेंगे। इवेंट की प्रारंभिक सफलता और पिछले 6 वर्षों की सफलता से एक अहंकार भी शासन व्यवस्था में देखने को मिल रहा है। जिस तरह रावण के पास सारे ग्रह बंधक बने हुए थे। रावण अपनी मृत्यु से पूरी तरह निर्भय था। अंत समय तक उसे विश्वास था कि उसे कोई मार नहीं सकता है। लगभग वही स्थिति वर्तमान में भारतीय शासन व्यवस्था में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक ताकत के रूप में सारी दुनिया देख रही है। मजदूरों के दुख और तकलीफों पर शासन का ध्यान नहीं है। आज सारी स्थितियां एक व्यक्ति में केंद्रित, केंद्रित होकर रह गई हैं। जिसके दुष्परिणाम वर्तमान में देखने को मिल रहे हैं। समय के महत्व का वर्णन करते हुए धर्मशास्त्रों में कहा जाता है, कहां गए वह चक्री जिन जीता, भरतखंड सारा। कहां गए वह राम और लक्ष्मण जिनने रावण मारा। कहां गए कृष्ण रुक्मणी और सत्यभामा, अरु संपत्ति सगरी। कहां गए वह रंग महल और स्वर्ण की नगरी। नहीं रहे, वह लोभी कौरव, जूझ मरे रन में। गये  राज तज पांडव वन को, अग्नि लगी तन में। आज मजदूरों के पेट मैं भूख की अग्नि जल रही है। उनके छोटे छोटे से बच्चे, महिला, बुजुर्ग, भूख से बिलबिला रहे हैं। भरी गर्मी में नंगे पैर सड़कों पर दौड़ रहे है। सत्ता में बैठे हुए, लोग इस पलायन को भी एक इवेंट की तरह मान रहे है। अहंकार और सत्ता को बनाए रखने, अथवा सत्ता पाने के लिए मैदान में जिस तरह से राजनेता लड़ रहे हैं। उसको देखकर तो यही कहा जा सकता है। समय अपनी गति से चलता है। समय पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है। बड़े से बड़े चक्रवर्ती, राजा, महाबली और अवतार पुरुष भी समय के चक्र में आकर जिन कारणों से सफल हुए। वही कारण उनकी असफलता के भी बने हैं। इवेंट के युग की यह सबसे बड़ी त्रासदी एवं चुनौती मजदूरों एवं मध्यम वर्ग के लिए है। परिणामों के असर तथा सरकारों के भविष्य को लेकर अभी कुछ समय इंतजार करना होगा।
(लेखक-सनत कुमार जैन)
 

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