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कोरोना महामारी का सबक  

कोरोना महामारी का सबक  

एक बड़ा सच यह भी है कि जिन देशों ने एकदम शुरूआती दौर में ही दूरदर्शिता दिखाई, और इससे बचाव के लिए कड़े कदम उठा लिए, वह देश तकरीबन इस महामारी से सुरक्षित हैं। ऐसे देशों में एक तो चीन से लगा ताइवान, दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैण्ड, वियतनाम, फिलिपींस आदि देश हैं। वस्तुत : उन्होंने हमारी उस शास्त्रीय बात का अनुकरण किया कि रोग और शत्रु का पता चलते ही समूल नष्ट कर देना चाहिए- जिसके परिणाम भी सार्थक आए। कुछ भी हो पर स्थिति की विकरालता यह कि वर्तमान में 65 देशों में पूर्ण तालाबंदी तो 30 से अधिक देशों में आंशिक तालाबंदी है। सोचने का विषय यह कि आखिर में ऐसी महामारियां आती ही क्यों है और इनका समाधान क्या है। इसके लिए पहली जरूरत तो इस बात की है कि हम अपने परिवेश को पूरी तरह स्वच्छ रखें। आचार्य चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि परिवेश को दूषित करने वालों के लिए सजा का प्रावधान होना चाहिए। इसी को दृष्टिगत रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता में आते ही पूरे देश में प्रभावी ढंग से स्वच्छता-अभियान चलाया और जनसामान्य को प्रेरित करने के लिए स्वत : कई जगह झाडू लेकर सफाई करते नजर आए। इसका नतीजा यह निकला कि देश में बीमारियों का प्रतिशत प्रभावी ढंग से कम हुआ। पर इतना ही पर्याप्त नहीं था, वस्तुत: इसके लिए जीवन में और ब्यापक अर्थो में सामाजिक जीवन में अनुशासन का बेहद महत्व है। एकात्म मानववाद के प्रणेता पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का कहना था “ राजनीतिक दलों में अनुशासन का वही महत्व है जो सामाजिक जीवन में धर्म का। “ कहने का तात्पर्य अनुशासन एक तरह से धर्म का ही पर्याय है। धर्म का तात्पर्य कोई मजहब नहीं, बल्कि श्रेष्ठ जीवन मूल्यों से है। इस सन्दर्भ में कोरोना जैसी महामारी के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का पालन, घर से बाहर निकलते समय या भीड़-भाड़ स्थानों में जाने पर मास्क का अनिवार्यत: प्रयोग और कोरोना के संबंध में गाइड-लाईन के पालन से है। जैसे पीने के लिए गर्म पानी का उपयोग, प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने वाली वस्तुओं या फलों का सेवन इत्यादि। वस्तुत: जिन्होंने इस अनुशासन या ब्यवस्था को भंग किया, उन्होंने इस महामारी को गुणात्मक स्तर पर बढ़ा दिया। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण तबलीगी जमात के लोग हैं।   
    कोरोना महामारी का एक महत्वपूर्ण सबक यह भी है,कि विश्व की वर्तमान  उपभोक्ता-केन्द्रित अर्थब्यवस्था आज मनुष्य जाति के संकट का बहुत बड़ा कारण बन गई है। इसीलिए प्रगति की अंधाधुंध दौड़ और भोग-केन्द्रित जीवन-दर्शन में अब आमूल-चूक बदलाव की जरूरत है। इसका संदेश स्पष्ट है कि विकास अब प्रकृति पर विजय के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि प्रकृति के सहयोग के नजरिए से होने पर ही विश्व का कल्याण है। कम से-कम अब दुनिया को भारतीय संस्कृति और उसके मनीषियों की यह बात समझ में आ जानीं चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों का शोषण नहीं, वल्कि उनका दोहन होना चाहिए। इस दोहन की भी एक सीमा होनी चाहिए। अब लाक डाउन महीनों चलने के बाद नदियां स्वच्छ दिखाई दे रही हैं, आसमान में तारे साफ नजर आ रहे हैं, पक्षियों का कलरव-नाद सर्वत्र सुनाई पड़ रहा है। जंगली पशु सड़को पर चौकड़ी मारते दिखाई पड़ रहे हैं। महानगरों से प्रदूषण का स्तर काफी कुछ घट गया है और अब वह मनुष्यों के रह सकने लायक प्रतीत हो रहे हैं। ध्वनि प्रदूषण जो बहुत से मानसिक तनावों को जन्म देता है, वह भी बहुत कुछ समाप्त हो चला है। स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति जो सिर्फ मनुष्य की चिंता न कर पूरे सृष्टि की बात करती थी, जिसमें सम्पूर्ण प्रकृति ,पशु-पक्षी वनस्पति एवं मनुष्य सभी शामिल हैं, उस ओर दुनिया को लौटना होगा। बड़े उद्योगो की जगह स्वदेशी, लघु एवं कुटीर उद्योगो को बढ़ावा देना होगा। हमने जिस तरह से विकास की दौड़ में तालाबों को पाट दिया, नदियों पर अतिक्रमण कर लिया ,पेड़ों और जंगलों का सफाया कर दिया। इसके दुष्परिणाम सामने हैं। संभवत : इसी को दृष्टिगत रखकर महान राजनीतिक चिंतक रूसो नें दुनियॉ को प्रकृति की ओर लौटनें की चेतावनीं दे ड़ाली थी। 
       वस्तुत : आज इस कोरोना महामारी के दौर में हमें गहन आत्मचिंतन करने की जरूरत है कि हमारा आगे का रास्ता क्या हो ? विकास की अंध दौड़ और अकूत सम्पत्ति की तृष्णा नि:संदेह विनाशकारी मार्ग है। स्वामी विवेकानन्द का कहना था “ हमें धन्य महसूस करना चाहिए कि हमें सेवा का अवसर मिल रहा है।“ आज उसी भावना को जाग्रत करने की आवश्यकता है। पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के शब्दों में “ कमाने वाला खाएगा की जगह कमाने वाला खिलाएगा। “ ये हमारा आदर्श होना चाहिए। बहुत सी संस्थाऍ और व्यक्ति आज इस महासंकट के दौर में जी-जान से इस दिशा में कार्यरत हैं। निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसका अनुषांगिक संगठन ‘सेवा भारती ‘ इस क्षेत्र में जरूरत मंदों को भोजन, अनाज, दबाइयॉ एवं अन्य साधन उपलब्ध कराकर जरूरत मंदों की सेवाऍ कर रही है। इसके लिए जगह-जगह काल सेन्टर खोले गए हैं। विशेष बात यह कि इसमें सिर्फ मनुष्यों का ही नहीं विशेष तौर पर गऊ माता और पशु पक्षियों का भी ध्यान रखा जा रहा है। बड़ी बात यह कि कहने वाले चाहे संघ को जितना मुस्लिम विरोधी कहें, पर संघ मुस्लिमों को भी बगैर किसी भेदभाव के मदद पहुचा रहा है। जैसाकि सर संघ चालक द्धारा 26 अप्रैल को अपने उद्बोधन में कहा भी गया- “अगर कोई डर से या क्रोध से कुछ उल्टा-सीध काम कर देता है तो सारे समूह को इसमें लपेट कर उससे दूरी बनाना ठीक नहीं है।“ स्पष्ट रूप से उनका इशारा तब्लीगी जमात की ओर था। यही हिन्दू जीवन दृष्टि है, इसी पर चलकर विश्व का उद्धार हो सकता है। जो पंथ एवं मजहब के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करती। संघ के अलावा सिखों के गुरूद्धारा प्रबन्धक कमेटी दिल्ली का भी इस संकट में योगदान उल्लेखनीय है, जिसके द्धारा अभी तक करीब 60 लाख लोगो को भोजन उपलब्ध कराया गया है। स्वामी रामदेव की संस्था पातंजलि योग समिति द्धारा भी इस दिशा में ब्यापक स्तर पर कार्य किया जा रहा है। 
        कोरोना जैसी महामारियों से लड़ने के लिए भारत जैसे देशों में बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाना भी बेहद जरूरी है। एक तो बढ़ती जनसंख्या के चलते झील तालाब, बावड़ी और कुओं का नामोनिशान मिटता जा रहा है। दूसरे हमे पता होना चाहिए कि विश्व की तुलना में भारत के पास केवल दो प्रतिशत ही कृषि योग्य भूमि है। जनसंख्या की दृष्टि से चीन के बाद भले हम नम्बर दो पर हों, पर भारत में जितनी जमीन भारत के 04 व्यक्तियों के पास है, उतनी चीन में 01 व्यक्ति के पास है। फिर भी भारत जनसंख्या वृद्धि चीन के मुकावले तीन गुना ज्यादा है और स्थिति यदि यही रही तो वर्ष 2050 तक भारत 164 करोड़ जनसंख्या के साथ चीन को पीछे छोंड़कर शीर्ष में आ जाएगा। यह बहुत कुछ बढ़ती जनसंख्या का ही दबाव है कि मुम्बई में धरावी जैसे इलाकों में जहॉ मजदूर वर्ग के लोग झुग्गियों में रहते हैं, वहॉ 10स10 के कमरे में दस-दस लोग तक रहते हैं। एक ही सार्वजनिक शौचालय में सैकड़ों व्यक्ति के उपयोग में आते हैं। ऐसे में वहॉ पर कोई सोशल डिस्टेंसिंग भला कैसे संभव हो सकती है। यही कारण है कि प्रयासों के बावजूद धरावी में कोरोना के प्रकरण बढ़ रहे हैं। इसके अलावा महानगरों की ओर जो भीड़ दौड़ रही है, उसे भी नियंत्रित करना आवश्यक है,क्योंकि कोई सामाजिक अनुशासन तभी संभव है। इन सबके लिए स्वशासन, सच्चे अर्थो में पंचायती राज्य ब्यवस्था एवं एक हद तक ग्रामों को आत्मनिर्भर इकाई बनाना आवश्यक है। इसकी आवश्यकता सिर्फ भारत को ही नहीं, पूरे विश्व को है। भारत गॉवों का देश कहा जाता था, उसकी सार्थकता अब समझ में आ जानीं चाहिए। 
      इसका प्रभाव तो यहॉ तक हुआ कि उत्तरी ध्रुव में ओजोन गैस में जो बहुत बड़ा छिद्र बन गया था , वह भी भर गया है उल्लेखनीय है कि ओजोन पर्तो की छिद्र से पैरावैगनी किरणे निकलती थी जो कैंसर जैसी घातक बीमारियों का कारण हैं। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि अभी तक किसी साधु’-संत को इस वायरस के संक्रमण की खबर नही है। नि:संदेह साधु-संत हमारी संस्कृति के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं, इस तरह से यह कहा जा सकता है कि शाकाहार एवं भारतीय जीवन पद्धति ही सम्पूर्ण विश्व के लिए आदर्श कही जा सकती है। 
(लेखक-वीरेन्द्र सिंह परिहार)
 

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