आज देश में एक अजीब माहौल है.हर कोई डरा-डरा सा और सहमा हुआ है । एक और जहॉ घरो में पूरा देश समाहित है तो दूसरी ओर सडको व राजमार्गो पर लाचारियो की भूखी प्यासी भीड है, और इसी बीच आत्मनिर्भरता का नारा हवा मे उछाला गया है, जबकि इस देश का तमाम अवाम दूसरो पर निर्भर है और दूसरे उसे सहयोग नही कर पा रहे है मतलब यह कि आज भूख और लाचारी घरो मे भी है और सडको पर भी, और अपने हाथ-पैर मारने के अलावा कोई कुछ भी नही कर पा रहा है फिर यह भी निश्चित नही कि माहौल कब खत्म होगा और आम आदमी को ऐसे दमघोटू माहौल से कब मुक्ति मिल पाएगी ? पूरा देश थम सा गया है और हर आम और खास अपने आपमें खोया है, कोई दाल-रोटी के लिए तो कोई सत्ता कायम रखने के लिए ...?
जहॉ तक गरीबी का सवाल है यह तो बहुत पुराना राजनीतिक नारा है, कई साल पहले देश से गरीबी खत्म करने के नाम पर एक पार्टी ने अपना खोटा सिक्का चलाया था, सिक्का चल गया और देश की गरीबी वही खडी रह गई या यौं कहे कि गरीबी तो नही गई, बैचारा गरीब जरूर चला गया। और अब यह गरीबी घर-घर की कहानी बनकर रह गई है।
हाल ही में एक अर्न्तराष्ट्रीय संस्था की सर्वेक्षण रिपोर्ट सामने आई है जिसमे कहा गया है कि इस साल के अंत तक करीब पचास करोड गरीब लोग और गरीब हो सकते है, दुनिया की आठ प्रतिशत आबादी अर्थात दो सौ करोड पर गरीबी का खतरा मंडरा रहा है। फिर बताया जा रहा है कोरोना महामारी ने पूरे विश्व स्तर पर इस गरीबी के आंकडे को और बढा दिया है। और जहॉ तक भारत का सवाल है अब तो यह खुले आम सडको पर भूखे नंगे प्रवासी मजदूरो के रूप में दिखाई देने लगी है।
....और फिर अब तो देश का आवाम तो क्या सरकार खुद गरीबी व लाचारी के दौर से गुजर रही है। कोरोना महामारी के इस संक्रमण काल में जहॉ इस साल भारत की जीडीपी शून्य प्रतिशत तक आने की संभावना व्यक्त की जा रही है, वही भारत में राजकोषीय घाटा साढे पॉच फीसदी रहने का अनुमान बताया जा रहा है, सरकार को अपने विभिन्न महकमों के बजट में कटौती कर जरूरी सरकारी व राजनीतिक कार्य निपटाने पड रहे है, जिसका ताजा उदाहरण बीस लाख करोड के पैकेज की मंजूरी है, जिससे देश के हर वर्ग के लोगो की सहायता का दावा किया जा रहा है। इसकी घोषणा के लिए वित्त मंत्री को लगातार पॉच दिन तक विभिन्न घोषणाऍ करनी पड़ी, अब इनमे से जमीन पर कितनी आ पाती है, यह भविष्य के गर्भ में है।
इस तरह आज एक और जहॉ देश की आबादी का एक बडा हिस्सा जो अपने घर जाने को लालायित है और इसी जुगाड मे देश की सडको पर भूखे-नंगे सरकार की लाठियॉ खाकर अपने गंतव्य की आकर बढने को मजबूर है, कही सरकार इसी भूखे-नंगे को भोजन-कपउs मुहैया कराने के लिए आर्थिक सहायता की घोषणा कर रही है, अगर प्रदेश जैसी निष्ठुर सरकार ने अपनी सीमाऍ इन हताश-निराश मजदूरो के लिए बंद कर दी है, वहीं देश की विभिन्न सरकारो द्वारा इन्ही हताश-निराश मजदूरो के लिए बसो व ट्रेनो की व्यवस्था करने का दिखावा किया जा रहा है, अब ऐसे में भारत के अजीब माहौल की वैसे ही कल्पना की जा सकती है।
देश के इसी अजीब माहौल के बीच प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता का नारा उछाला है। वैसे इस नारे को यदि हताश निराश व असहाय सडक पर चल रहे मजदूर के संदर्भ में देखा जाए तो वह उस असहाय पर बिल्कुल फिट बैठता है, क्योंकि वह फिलहाल ’आत्मनिर्भर‘ ही है, उसे कोई सहायता नही पहुच रही है, और यदि कोरोना महामारी के संदर्भ में इस राजनीतिक नारे को देखा जाए तो हम व हमारा देश इस मामले में बिल्कुल भी आत्मनिर्भर नही है, हॉ... देश का आम आदमी इस माहौल में आत्मनिर्भर अवश्य है।
इसलिए आज इस माहौल में यदि यह कहा जाए कि सडको पर वास्तविकता और सरकारी महलो मे महज दिखावा मात्र है और हर आम व खास बिना किसी की मदद के असहाय होकर आत्मनिर्भर है तो कतई गलत नही होगा ।
(लेखक -- ओमप्रकाश मेहता)
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अजीब दास्तॉ है ये ...........? गरीबी,बेबसी व हताशा के बीच आत्मनिर्भरता....?