राजा महल के दालान में टहल रहे थे, उनको एक गरीब व्यक्ति ठण्ड से काँप रहा था. राजा ने अपने नौकर से कहा की उस गरीब को ठण्ड लग रही हैं उसे कम्बल की व्यवस्था कर दो. जी हुज़ूर। उसने अपने तत्कालीन अधिकारी से राजा की बात पहुंचाई। अधिकारी ने मंत्री को, मंत्री ने सम्बंधित विभाग के मंत्री को सूचित किया। उस मंत्री ने वित्त विभाग से बजट माँगा, बजट की स्वीकृति पर क्रय विभाग ने आदेश जारी किया, कम्बल आया और उसी क्रम से स्टोर में आवक जावक हुई, उसके बाद अधिकारी को और अधिकारी ने नौकर को,नौकर देने गया गया तब तक उसकी मौत हो चुकी थी, राजा ने मौत पर दुःख व्यक्त किया और एक जांच कमेटी बैठा दी, और उस रिपोर्ट का इंतज़ार अभी तक हैं और हां उसकी मौत पर राजा की तरफ से अन्तेष्ठी का पैसा जल्दी दिया गया। और उसका कोई न होने राजकीय अन्तेष्ठी हुई।
वर्तमान में हमारे देश में कुछ ऐसी ही व्यवस्था का सामना करना पद रहा हैं। वैसे काम करने वालों की ही आलोचना होती हैं। जो जितना पढ़ा लिखा उसे उतनी अधिक भ्रांतियां होती हैं। कहा भी जाता हैं बहुत अध्ययन बहुत कन्फूज़न, कोई पढाई नहीं कोई कन्फूज़न नहीं। शायद हमारे प्रधान सेवक कोई कन्फूज़न वाले नहीं हैं। दूसरा जबरदस्त नेता होने से उनके सामने किसी की बोलने की हिम्मत नहीं। जिसने भी बोलै उसके पीछे तीन सी लग जाती हैं।
कहावत हैं मुर्ख पहले बोलते हैं फिर सोचते हैं और बुद्धिमान पहले सोचले फिर बोलते, हमारे प्रधान सेवक दोनों प्रकार से बोलते हैं जिससे कुछ तो सही निकलेगा। जो राजा मंत्रियों और सचिवों से मंत्रणा करने के बाद स्वविवेक से निर्णय लेते हैं उसके परिणाम दुखदायी होते हैं। कारण कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को खूब पहचानते हैं।
प्रधान सेवक अपने गुप्तरों पर बहुत भरोसा करते हैं और वे राजा की तीसरी आँख होती हैं उनको देश और विदेश की जानकारी पलपल की मालूम होती हैं। राजा हमारे तकनिकी में महारत रखते हैं। दिन रात मोबाइल, व्हाट्सअप, ट्विटर, इंटरनेट से जुड़े भी हैं और दिन रात टी वी के माध्यम से देश की दुर्दशा की जानकारी रखते हैं, पर इस समय वे सत्ता के मोह के कारण धृतराष्ट्र बने हैं। उनको दृष्टि मिली हैं।
वह राजा झूठ का बहुत उपयोग करता हैं उससे उसके निजी भी दूर हो जाते हैं, कारण उनके झूठ का स्पष्टीकरण उनके सहायक देते हैं, वे विश्व प्रसिद्ध हो चुके और होंगे, निश्चित रूप से जैसे गाँधी के साथ गोडसे का नाम लिया जाता हैं।
विगत २ माहों से अधिक समय हो चूका करोड़ों प्रवासी कुशल कारीगर जो अपने घरों को जाना चाहते थे उनकी सुव्यवस्था शासन के द्वारा कहीं शुल्क शहित और रहित बिना एहितियात के जानवरों से बदतर हालत में अपनी प्रशंसा के साथ भेज रहे हैं। वे किस मानवीय विपदाओं से गुजर रहे हैं, उनके दुखों को देखकर उनको अपने सुविधायुक्त आवास में गर्मी महसूस हो रही होगी। कारण उनमे मानवीय संवेदनाएं कूट कूट कर भरी हैं।
जो राजा दिन रात शेर जैसा दहाड़ता था, आज पता नहीं शेर के ऊपर किसी और की खाल पहनकर न गुर्राता हैं और न कुछ बोलता हैं, शायद मौनी बाबा यानी मनमोहन सिंह की परम्परा का पालन कर रहे हैं। वर्तमान में देश में निहायत निराशा का वातावरण बना हुआ हैं कारण इन अव्यवस्थाओं से हजारों लोग अकाल काल के गाल में समां गए, रहिमन है गरीब की कभी न निष्फल जाए।
जब राजा अर्घावतारन का अधिकार रखता हैं तब उसे असिप्रहारन के लिए भी तैयार रहना चाहिए। इस समय देश में सुमंगल का वातावरण नहीं हैं। दिन रात तनाव, रोगियों का संक्रमण, मरण के अलावा अस्पतालों में डॉक्टर पैरामेडिकल स्टाफ,,दवाएं के अलावा इलाज़ में होने वाली अनियमितता, मरीज़ और मुर्दा एक साथ, भोजन व्यवस्थाओं में सुबह से किया जाने वाला इंतज़ाम दोपहर तक, भला हो स्वयं सेवी संस्थाओं का उन्होंने लाखों, करोड़ों को भूख से मरने से बचाया। इस समय भ्रष्टाचार का बोलबाला बहुत हैं। गंगा में सब डुबकी लगा रहे हैं कर प्रधान सेवक यदि धृतराष्ट्र बन चुके हैं तो कोई संजय से समाचार ले सकते हैं। दृष्टिविहीन हो जाना तो ठीक हैं पर मूक बधिर क्यों और कैसे बन गए।
इस समय जो अनिश्चितता का वातावरण बना हुआ हैं इस कारण आंतरिक असंतोष बहुत हैं। आर्थिक पहिया धंस गया हैं। रोजगार बेरोजगार हो गए। जितना इलाज हो रहा उससे अधिक मर रहे। पर सफलता का श्रेय हासिल करने में अग्रसर। किसी ने कोई प्रमाण पत्र दिया वह उपलब्धि हो जाती हैं और यदि विशेषज्ञ सलाह दे तो वे देश द्रोही /बाधक।
स खलु नो राजा यो मंत्रिणोअतिक्रम्य वर्तेत।
निस्संदेह वह राजा, राजा नहीं हो सकता, जो कि हितैषी मंत्रियों के परामर्श कीसीमा का उल्लंघन करके व्यवहार करता हैं।
सुविवेचितांमन्त्रादभवत्येव कार्यसिद्धिरयादि स्वामिनो न दूराग्रहः स्यात।
यदि राजा दुराग्रही (हठी) न हो तो अच्छी तरह विचारपूर्वक की हुई मंत्रणा से अवश्य कार्य सिद्धि होती हैं। पर राजा हठी होने से असफलता का सामना कर रहे हैं। एक झूठ को कई बार बोला जाय तो वह सच लगने लगता हैं।
(लेखक- डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन)
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(चिंतनीय) अब तो व्यवस्थाओं से डर लगता हैं!