यह विचित्र स्थिति है। मध्य काल को हिन्दी साहित्य का सर्वप्रथम युग कहा जाता है कि इस स्वर्ण युग के आधार स्तंभ सूर, तुलसी और कबीर के जन्म और मृत्यु के संबंध में विद्वानों में मतभेद है।इस कालखंड मे जहां सूर और तुलसी ने ईश्वर के साकार रूप की उपासना में साहित्य सृजन किया वहां कबीर दास ने निराकार ब्रम्ह की स्तुति की। यह स्थिति केवल भारत में नहीं है। इंग्लैंड में शेक्सपियर भी इसी प्रकार के विवाद के शिकार हैं। उनके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगाये गये हैं।
कबीर भी राम भक्त थे लेकिन उनके राम तुलसी के राम नहीं थे। उनकेे लिए राम उस ईश्वर के स्वरूप थे जो निराकार और निर्गुण ब्रह्म के प्रतीक थे। उनके राम की बहू को रावण नहीं हर ले गया जबकि तुलसीदास के रामचरितमानस में यह महत्वपूर्ण प्रसंग है। उन्होंने सूरदास के समान माधव की चर्चा भी की परन्तु उनका माधव गाय नहीं चराता था। इस अर्थ में वे तुलसी और और सूर से अलग है। लेकिन कबीर और तुलसी में अनेक समानता भी है। दोनों लोकतांत्रिक थे।
तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखकर राम कथा को लोक के लिए सुलभ कराया। कबीर ने अपने पदों और पदों और साखियों , उलट बांसियो के द्वारा जो लोक शिक्षण किया वह अभूतपूर्व था। उन्होंने लोक भाषा में अपनी बात कही। इस अर्थ में दोनों ने तत्कालीन पंडितों और मौलवियों का प्रतिरोध भी सहा। दोनों का काशी से सम्बंध रहा है।
कबीर सिकंदर लोधी के समकालीन थे। तथापि उन्हें स्वामी रामानंद का शिष्य माना जाता है। रामानन्द का यह पद बहुत मशहूर है - जात पांत पूंछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।
उन्होंने आजीवन हिन्दू और मुसलमान धर्मों के ठेकेदारों को फटकार लगाई -
जो तू बांभन बंभनी जाया , तो आन बाट ह्वै क्यों नहीं आया ?
जो तू तुरक तूरकन का जाया , तौ भीतर खतना क्यों नहीं कराया?
यह कहा जाता है कि कबीर के पद उनके शिष्यों ने लिखे। वे पढ़े लिखे नहीं थे। इस संबंध में भी विवाद की स्थिति है। कुछ विद्वानों का कहना है कि उन्होंने प्रेम शब्द का जैसा उपयोग किया है उसे देखते हुए कबीर को अशिक्षित मानना गलत है। वैसे स्वयं कबीर ने कहा था -मसि कागद छुओ नहीं , कलम नहीं गह्यो हाथ।
तुलसी और कबीर में एक समानता और है। दोनों ने काव्य में अवधी बोली का उपयोग किया। दोनों में एक अन्तर्धारा भी थी। दोनों मानव धर्म में विश्वास करते थे। कबीर में यह अधिक स्पष्ट दिखाई देता है। तुलसी ने शबरी और वानरों के द्वारा जहां अपने आराध्य को जातिभेद के ऊपर बताया वहां कबीर ने जातिवाद का खुलकर विरोध किया। लेकिन व्यक्ति का कल्याण तथा मानवता का विकास दोनों के कार्य का उद्देश्य था।
कबीर जिस काल खंड में पैदा हुए उस समय देश में मुस्लिम शासन था। किन्तु वे समय की धारा के साथ नहीं चले। न ही वे काशी के वातावरण से प्रभावित हुए। दोनों धर्मों के ठेकेदारों ने धर्म का अधिकार और सामाजिक व्यवस्था कुछ लोगों के लिए बना रखी थी। कबीर ने दोनों धर्मों के कथित धर्माचार्यों से लोहा लिया। उन्होंने कहा - मैं कहता सुरझाई के ,तू कहता उरझाई के।
अद्भुत था कबीर का जीवन और दर्शन। उनका जन्म उस समय हुआ जब परम्परागत भारतीय वैदिक दर्शन , अवतार वाद के असर और सूफी मत तथा इस्लाम दर्शन के संक्रमण का काल था। उस समय आदि शंकराचार्य का अद्वैत वाद का प्रभाव भी मौजूद था। इस काल खंड में कबीर का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने सर्वथा नयी बात कही। उनकी कही अनगढ़ बात का समाज पर प्रभाव पड़ा।उन्होंने उस ?
परम सत्ता की बात कही। परमसत्ता या ब्रम्ह के लिए उन्होंने साहब शब्द का उपयोग किया। उन्होंने कहा-
साहब साहब सब कहें , मोहि अन्देसा और।
साहब से परिचै नहीं , बैठौगे केहि ठौर।
कबीर ने गुरू की महिमा का वर्णन किया परन्तु वे चेतावनी देते हैं - जाका गुरु है आंधरा, चेला काय कराय , अंधे अंधा पेलिया , दोऊ कून पराय। उनकी यह चेतावनी आज के धर्मगुरुओं पर और नेताओं पर भी
लागू होती है। उनका मन इन पंक्तियों में साफ झलकता है -
मोको कहां ढूंढे बन्दे , मैं तो तेरे पास में,
ना मैं देवल में , न काबा कैलास में।
इस दौर में कबीर की यह पंक्तियां बार बार याद आती हैं -
संतों देखो जग बौराना
सांच कहो तो मारन धावै
झूठे जग पतियाना।
कबीर ने योग का विरोध नहीं किया है। वे योगियों को इसलिए फटकारते थे क्योंकि कुछ योगी योग के नाम पर कदाचार फैलाते थे। कबीर ने जन साधारण के लिए नाम सुमिरन प्रतिपादित किया लेकिन वे योग विरोधी नहीं थे। नाम सुमिरन और निर्गुण भक्ति का मार्ग कबीर की विशेषता थी। परन्तु कबीर ने सक्षम साधकों के लिए कुंडलिनी जागरण का महत्त्व भी बताया। उनका मानना था कि योग प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। कबीर ने हर तरह के पाखंड का आजीवन विरोध किया।
उनके लिए कविता सच का हथियार और मार्ग था इसलिए उन्होंने इसे अपनाया। वे छुआछूत और कुरीतियों के खिलाफ थे। वे समाज के लिए चुनौती तथा चेतावनी देकर उपस्थित हुए थे। हिन्दी साहित्य के विख्यात विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।
(लेखक- हर्षवर्धन पाठक)
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