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मानव  स्वास्थ्य और, पर्यावरण पर बरपता रासायनिक कीटनाशकों का कहर  (5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष) 

मानव  स्वास्थ्य और, पर्यावरण पर बरपता रासायनिक कीटनाशकों का कहर  (5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष) 

दुनिया भर में कृषि उपज को कीटो से होने वाले  नुकसान से बचाने के लिए खेतों में रासायनिक कीटनाशको का छिडकाव धडल्ले से किया जा रहा है।  हिन्दुस्तान भी इसमें पीछे नहीं हैं,कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग सिर्फ मानव जाति ही नहीं पर्यावरण के लिए भी नुकसानदेह साबित हो रहा है।  रिपोर्ट के अनुसार कीटनाशक  कंपनियां मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाले कीटनाशको को बेचकर हर साल अरबों डाॅलर कमा रही हैं।      
कीटनाशक तथा अन्य कृषि रसायन मानव स्वास्थ्य  के लिए जितने घातक  है, उससे कही ज्यादा खतरनाक है पर्यावरण के लिए। वर्तमान समय में कृषि -रसायनों का प्रयोग पर्यावरण सुरक्षा के लिए बेहद घातक सिद्व हो रहा है। कृषि रसायनों के जरिए हमने जिस हरित क्रांति के द्धार खोले थे,आज उसके दुष्परिणाम सामने आना प्रांरभ हो गए हैं जमीन से अधिक से अधिक खाधान्न निकालने के चक्कर में हम दुनियाभर में प्रतिवर्ष तकरीबन 25 विलियन पौड कीटनाशक जमीन पर उंडेल देते है। रासायनिक उर्वरकों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। पिछले  तीन -चार दशकों में इन कृषि रसायनों ने खेतिहर भूमि का स्वरूप ही बदल दिया है
आजादी मिलने के 3 बर्ष बाद यानी 1950 में देश में जहाॅ 2000टन कीटनाशक की हमारे मुल्क में खपत थी वही अब यह खपत बढकर 90 हजार टन पर पहुंच गई है। 60 के दशक में देश में जहां 6,4 लाख हेक्टेयर में कीटनाशकों का छिडकाव होता था वही अब 1,5 करोड हेक्टेयर क्षेत्र में कीटनाशकों का छिडकाव हो रहा है। हैरत की बात यह है कि खतरनाक कीटनाशक विकसित देशों के मुकाबले विकासशील और निर्धन देशों को ज्यादा नुकसान पहुंचा रहें है।हमारे देश में तकरीवन 59 फीसदी खतरनाक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि ब्रिटेन में यह सिर्फ 11 फीसदी है।
सबसे दुखद बात यह हैं कि हमारे मुल्क में पैदा होने वाले अनाज , सब्जी ,फलों  एवं दूसरे कृषि उत्पादों में कीटनाशक के उपयोग  की मा़त्रा निधारित मानकों से अधिक पाई गई हैं। हिन्दुस्तानी खाध पदाथों में पेस्टीसाइड के अवशेष 20 फीसदी तक हैं,जबकि वैशिवक स्तर पर यह सिर्फ 2 फीसदी तक होता हैं। हमारे देश में केवल ऐसे 49 प्रतिशत ही खाध उत्पाद हैं जिनमें पेस्टीसाइड के अवशेष नहीं पाए जाते हैं 
आज कृषि रसायनों के जरिए हम कृषि उपज को कई गुना प्राप्त कर लेते है। लेकिन क्या हमने सोचा है कि आने वाले समय में कृषि की पैदावार घटेगी अथवा बढेगी ? क्या कृषि रसायनों के माध्यम से प्राप्त होने वाले उत्पाद पौष्टिकता की दृष्टि से उतने वेहतर होते हैं? कभी सोचा है कि यह रसायन भूमिगत जल तथा नदियों क ेजल को किस हद तक प्रदूषित कर रहे हैं? इस तरह के सवाल आये दिन पर्यावरणविद उठाते रहते है, मगर कोई इस और ध्यान नही देता लेकिन आने वाले समय में यह सवाल हर दिन हमारे कानों में गूंजा करेगे।
रासायनिक उर्वरक बडी मात्रा में मिटटी में पाये जाने वाले खनिज पदार्थो को बडी मात्रा में निकालते हैं।जाहिर है, अत्यधिक मात्र में इन खनिज पदार्थो का दोहन उस मिटटी को इन खनिज पदार्थो से वंचित कर देता है तथा कालांतर में यह भूमि बंजर भूमि में परिवर्तित हो जाती है। सामान्य रूप से खेतिहार भूमि अनेको प्रकार के लाभप्रद जीवाणु ,बैक्टीरिया ,केचुओं आदि से परिपूर्ण होती है। इन जीवाणुओं ,बैक्टीरियाओं तथा केचुओं आदि की मदद से मिटटी में खनिज पदार्थो का चक्र घूमता रहता है, तथा बार-बार खेती करने के बावजूद भी मिटटी का पारस्थितिक संतुलन बना रहता है। लेकिन रासायनिक उर्वरक तथा रासायनिक कीटनाशक न केवल मिटटी से तीव्र गति से खनिज पदार्थो का दोहन कर उसे बंजर बना देते है, बल्कि वहां से लाभप्रद जैव पदार्थो को भी नष्ट करके वहां के पारस्थितिक संतुलन को भी नष्ट कर देते है।
कृषि रसायनों के कारण मिटटी में से महत्वपूर्ण माइक्रोन्यूटियेट का भी हास हो जाता है। रासायनिक नाइट्रोजन उर्वरक के प्रयोग के पश्चात भूमि से पोटेशियम का तेजी से क्षरण होने लगता है।सुपर फाॅस्फेट के उपयोग से तांबा तथा जस्ता की कमी हो जाती है। कृषि वैज्ञानिको के मुताबिक नाइट्रोजन फास्फोरस और पोटाश उर्वरक के प्रयोग के बाद खाघान्नो में प्रोटीन की मात्रा में 20 से 25 प्रतिशत तक की कमी आ जाती है। यह रासायनिक उर्वरक खाधान्नो में बढती कार्बोहाइटे्रट की मात्रा इस बात का प्रतीक है कि हम कितना पौष्टिक खाधान उपजा रहे है?
आज रासायनिक उर्वरकों के जरिये की गई खेती में सब्जियों व फलों का स्वाद बिल्कुल भिन्न मिलता है, उसका मूल कारण उसमें इन पौष्टिक तत्वों का अभाव ही हैै। यह रासायनिक उर्वरक ,उत्पादों में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा बढाकर उसका आकार तो बढा देते है, परन्तु उसका प्राकृतिक स्वरूप ही बदल देते है। संग्रह की गई सब्जी जल्द ही खराब होने लग जाती है, इसका कारण भी उनमें कृषि रसायनों की मौजूदगी ही है। यही कारण है कि बुद्विजीवियों का एक वर्ग इन कृषि रसायनों के उपयोग के प्रति इतना संशकित है कि इन कृषि रसायनों के समय रहते विकल्प की बात करने लगे हैं उधर विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र खाध और कृषि संगठन द्वारा 2018 में कीटनाशक प्रवंधन के सवेंक्षण में पाया किगभीर रूप से विभिन्न कमियां है।पर्यावरण और मानवों पर हानिकारक प्रभावों को कम करने के लिए देशों को कठोर नियम बनाने चाहिए। 
कृषि रसायन प्रत्यक्ष रूप से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को काफी प्रभावित कर रहे है।पांच बडी कंपनियों द्वारा बिक्री किए जाने वाले कुल कीटनाशक का एक प्रतिशत अंश ही लक्ष्य तक पहुंच पाता है शेष 99 प्रतिशत अंश वायु जल तथा मिटटी में मिल जाता है।जो उसको प्रदूषित करता है।कृषि रसायनों के कारण आज लाखो टन कीटनाशक प्रतिवर्ष नदियों में मिल जाता है।इन विषैले कृषि रसायनों के कारण बडी संख्या में मछलियां तथा अन्य समुद्री जीव असमय काल के गाल में समा जाते है। कीटनाशको के कारण जल प्रदूषण की समस्या दिन प्रतिदिन बढती चली जा रही है।विश्व में हर साल तकरीबन 2 लाख आत्महत्याओं की वजह विषैले कीटनाशक हैंवही पिछले तीन सालों में खेत में कीटनाशको का छिडकाव करते वक्त 5114 किसानों की मौत हो चुकी हैं।  
कृषि रसायन जन स्वास्थ्य पर्यावरण तथा पारिस्थतिकी तंत्र को जिस प्रकार क्षति पहुचा रहे है उसके कारण ही आज बडी संख्या में पश्चिमी देशों के किसान वैज्ञानिक खेती को छोडकर वापस सदियों पुरानी प्राचीन कृषि प्रणाली को अपनाना शुरू कर च्ुाके हैं।प्रकृति से छेडछाड का परिणाम आज पूरा मानव समाज महसूस कर रहा है। पता नही हम कब वापस अपनी प्राचीन कृषि पद्वति अपनाना शुरू करेगे ,जो कि एक मात्र विकल्प है साफ-सुथरे पर्यावरण जन स्वास्थ्य तथा संतुलित पारिस्थितिकी तंत्र पुनस्थापित करने के लिए। 
(लेखक- मुकेश तिवारी)

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