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आत्म निर्भर भारत को आजाद विदेश नीति जरूरी 

आत्म निर्भर भारत को आजाद विदेश नीति जरूरी 

पिछले कुछ दिनों से और विशेषत: 31 मई को प्रधानमंत्री जी ने मन की बात में आत्मनिर्भर भारत की चर्चा की है। उसके बाद से फिर कुछ उन लोगों में स्वदेशी का जोर ज्यादा उभार पर है जो लोग पिछले 16 वर्षों से स्वदेशी को डिब्बे में बंद कर बैठे थे। प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत की चर्चा करते हुए कहा कि 7 लाख गांवो को आत्मनिर्भर बना दिया होता तो प्रवासी मजदूरों की समस्या ना खड़ी होती। उनकी बात सही है पिछले 70 सालो मे कांग्रेस जनता पार्टी जनता दल भाजपा अटल जी की सरकार और पिछले   5 वर्ष की मोदी सरकार ने ग्रामीणों को आत्मनिर्भर बनाने को कुछ नहीं किया। हालांकि इस मन की बात में उन्होंने गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए क्या करेंगे इसका कोई जिक्र नहीं किया। 
    उनका इशारा और संघ के निर्देश पाते ही पुराने स्वदेशी राग गाने वालों ने फिर से अपना राग अलापना शुरु कर दिया तथा ... चीन के माल का बहिष्कार का नारा भी देना शुरु किया है। मैं न तो चीन की व्यवस्था का समर्थक हूं न ही चीन के शासको को बल्कि हम लोग तो उस लोहिया के वैचारिक वंशज हैं जिन्होने सदैव तिब्बत की आजादी का समर्थन किया था तथा नेहरू और तत्कालीन.... चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन. लाई. के बीच पंचशील समझौते का विरोध किया था। तथा कहा था कि, यह समझौता धोखा साबित होगा। यद्यपि उस समय देश के शिक्षित व प्रबुद्ध तबके ने लोहिया की हंसी उड़ाई थी और जब 1962 मे चीनी हमला हुआ तब लोगो ने याद किया कि एक मात्र लोहिया ही थे जिन्होने चीन के समझौते का विरोध किया था। परन्तु एक पक्ष यह भी है कि आजकल जो लोग स्वदेशी गायन कर रहे है वे विदेशी माल के बहिष्कार का आवाहन नही करते बल्कि केवल चीनी सामान के बहिष्कार का कहते है। चीनी सामान का बहिष्कार होना चाहिये साथ ही दुनिया के किसी भी देश से गैर जरूरी और देश की रक्षा के लिये जरूरी आयात के अलावा सभी उपभोग व विलासिता के सामान का आयात बंद होना चाहिए। भारत की विदेश नीति ना स्वतंत्र है ना तटस्थ बल्कि बारीकी से देखा जाए तो अमेरिका की पिछ्लग्गू है और बड़बोलेपन की है। क्योंकि चीन के वुहान से कोरोना वायरस फैलने के नाम पर अमेरिका चीन का बहिष्कार करना और चीन पर आर्थिक प्रतिबंध लगाना चाहता है। और उसी की नकल भारत ने शुरू की है। कोरोना वायरस कहां पैदा हुआ इसके बारे में कोई प्रामाणिक सूचना न मेरे पास है ना दुनिया के पास है। परंतु मीडिया के माध्यम से जो सूचनाएं मिल रही हैं वह बता रही है कि चीन ने कोरोना पर लगभग नियंत्रण पा लिया है। 4 जून के दैनिक भास्कर में तो वुहान प्रांत में रात्रि व्यवसाय के जगमगाते फोटो छपे हैं। एक तथ्य यह भी है कि पिछले कुछ समय से अमेरिका और ट्रंप अमरीकी फार अमेरिका के रास्ते पर चल रहे हैं। याने अमेरिकी राष्ट्रवाद की ..नीति पर.. चल रहे हैं। अपने देश की बेरोजगारी को मिटाने के लिए बढ़ते आयात और घटते निर्यात के संतुलन को नियंत्रित करने के लिए अमेरिका में कार्यरत बाहर के लोगों को देश से निकालने के लिए अमेरिका पिछले 1 -2 वर्ष से प्रयासरत्् है और हो सकता है कि कोरोना वायरस को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल कर रहा हो।  
    स्वदेशी और चीनी माल का बहिष्कार करने की अपील करने वालों से मैं यह पूछना चाहूंगा कि पिछले 6 वर्षों से जब प्रधानमंत्री मोदी चीन के शासकों के साथ गलबहियां कर रहे थे - चीनी राष्ट्रपति को भारत के अहमदाबाद में बुलाकर सांबरमती के तट पर पिकनिक कर रहे थे। यहां तक कि जब चीनी राष्ट्रपति ने साबरमती आश्रम में जूते उतारकर राष्ट्रपिता को सम्मान देने से इनकार किया जो कि राष्ट्रीय परंपरा रही है तब भी उनके मन में स्वदेशी का भाव नहीं जागा और उन्होंने इस राष्ट्रीय अपमान की घटना के विरोध करने का साहस नहीं किया। क्योंकि उस समय तक अमेरिका चीन की दोस्ती थी। यहां तक कि वुहान में कोरोना संबंधी लेब लगाने के लिए अमेरिका ने पैसा दिया था। इसलिए प्रधानमंत्री की लाचारी थी कि वे चीन से दोस्ती करें। हालांकि मैं ऐसा मानता हूं कि जिस दिन चीनी राष्ट्रपति ने राष्ट्रपिता के आश्रम में जाकर परम्परागत सम्मान करने से इनकार किया था वह समूचे भारत का अपमान था। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि चीन में जाकर माओ तुसे तुंग का या अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग या लिंकन का अफ्रीका में नेलसन मंडेला का कोई अपमान कर सकता है। वहां का समाज क्या यह स्वीकार करेगा? स्वीकार तो दूर वह भारी विरोध याने विद्रोह जैसा करेगा। खेद सहित यह भी स्वीकारना होगा कि भारत सरकार ने भी विरोध नहीं किया और भारत की किसी भी संसदीय दल वाले तथा तथाकथित बड़ी पार्टियों के नेताओं ने भी विरोध नहीं किया। पिछले कुछ वर्षों से बल्कि कहा जाए कि डेढ़ दशक से अमेरिका के इशारे पर भारत ने अपनी विदेश नीति का सिद्धांत लुक टू दी ईस्ट बनाया है और भारत के पश्चिमी सीमा तरफ के देशों से रिश्तों पर ध्यान देने के बजाय पूर्व के देशों को अपना दोस्त चुनने पर अधिक जोर दे रहा है। और एक अर्थ में अमेरिका चीन और भारत तीनों ही मुस्लिम विरोधी राजनीति कर रहे थे। चीन जो रोहड्ग्या मुसलमानों से अपने आपको परेशान महसूस करता है अमेरिका जो वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद आतंकवाद के नाम पर अमूमन मुस्लिम देशों के खिलाफ झंडा उठाए हैं। भारत जिसकी सत्ता राजनीति की खेती मुस्लिम पक्ष विपक्ष के बीज से पैदा होती है वह भी इस लुक टू दी ईस्ट विदेश नीति पर एकमत हैं। चूंकि अब अमेरिका को अपनी विदेश नीति बदलना है तो अमेरिका के पिछलग्गू देशों को भी बदलना होगा। 
    इसी अंतर संघर्ष का एक नया घटनाक्रम सामने आया है कि अचानक नेपाल की संसद ने भारत के 3 इलाकों कालापानी लिपुलेख व लिपिया पुरा के 395 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को नेपाल के नक्शे पर बताया जिसमें कुछ गांव भी हैं। वैसे तो नेपाल के साथ इस विवाद की शुरुआत तब हुई थी जब भारत के रक्षा मंत्री ने लिपुलेख से मानसरोवर के सड़क मार्ग का उद्घाटन किया था। नेपाल इसे अपनी सुरक्षा के विरोध में मानता है और इसीलिये उस का विरोध भी करता है। अच्छा होता कि, भारत सरकार इसके लिए नेपाल सरकार से चर्चा कर पूर्व सहमति बनाती। परंतु देश के हिंदू मानस को खुश करने के लिए भारत ने यह कदम परिपक्व वातावरण बगैर बनाए उठाया। बहुत संभव है कि बदलते वैश्विक समीकरणों के बीच चीन भी नेपाल को पहले से ज्यादा समर्थन दें और विवादों को हवा भी दे। एक तरफ अमेरिका अपने आर्थिक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है दूसरी तरफ पुराने कम्युनिस्ट देश चीन रूस आदि और साथ में कुछ इस्लामिक देश मिलकर एक नया समूह बनाने का प्रयास कर रहे हैं। नेपाल संसद में इस प्रस्ताव को कम्युनिस्ट सरकार के मुखिया के पी कोली के तरफ से पेश किया गया। नेपाली कांग्रेस जिसके संबंध भारत के साथ 8 दशक से हैं उसने भी इसका समर्थन किया। नेपाली कांग्रेस का गठन और नेपाल के राजतंत्र से आजादी के संघर्ष की शुरुआत ही भारत के समाजवादी नेताओं के सहयोग से शुरू हुई थी। नेपाल के प्रथम प्रधानमंत्री श्री कोइराला की शिक्षा भारत के बनारस शहर में हुई थी। डॉक्टर लोहिया ने अपनी जान को जोखिम में डालकर नेपाली जनता को नेपाली राजतंत्र से आजादी के आंदोलन का समर्थन किया था। भारत नेपाल के रिश्ते बहुत ही नजदीकी और विश्वस्त थे। परंतु एक बड़ी विदेश नीति में त्रुटि 1985-86 के समय हुई थी जिस से नेपाल में भारत विरोधी मानस को बनाने का अवसर भारत विरोधियों को मिला था और दूसरी त्रुटि 2014 के बाद हुई जब भारत सरकार ने नेपाल को हिंदू राष्ट्र की पूर्व स्थिति में वापस लौटने के लिए दबाव बनाया। आज हालत यह है कि नेपाल का एक भी दल भारत के साथ नहीं है। क्या यह भारत की विदेश नीति की असफलता नहीं मानी जानी चाहिए? नेपाल जाकर चीन के संरक्षण में पहुंच जाए क्या यह भारत के लिए मुफीद होगा? भारत के आत्म गौरवसे मदमस्त सत्ताधीश क्या  कभी अपनी कमियों पर विचार कर रास्ता सुधारेंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा है कि अब जी सेवन सम्मेलन में वह चीन की बजाय भारत को बुलाएंगे जो कि सितम्बर माह में आयोजित किये जाने की संभावना है। यह जी-7 क्या है? यह एक प्रकार की स्वयंभू संस्था है जिसका कोई संयुक्त राष्ट्र संघ से या किसी वैधानिक प्रक्रिया से कोई संबंध नहीं है। जो देश अपने आप को सुपर पावर मानते थे उन 7 देशों ने अपने आर्थिक साम्राज्यवाद को फैलाने के लिए जी सेवन बनाया था। अब हो सकता है कि, इसकी प्रतिक्रिया में कोई दूसरा जी समूह बन जाए। आखिर किसी को भी अपने आपको सुपर या ग्रेट कहने से कौन रोक सकता है। भारत को इस समय अपनी विदेश नीति को अमेरिकी बनाने की बजाय आत्मनिर्भर बनाना चाहिए। आत्मनिर्भर भारत के लिए आत्मनिर्भर विदेश नीति भी जरूरी है। जनाक्रोश के भय से बंकर में छिपा राष्ट्रपति न सुपर हो सकता है न ग्रेट। 
(लेखक-रघु ठाकुर)

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