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अपनों में अपनापन तलाशती - सूनी आंखें

अपनों में अपनापन तलाशती - सूनी आंखें

आज विश्व भर में बुजुर्गों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है ।जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ बुजुर्गों की संख्या में वृद्धि होना स्वाभाविक है, परंतु इसी के साथ-साथ बुजुर्गों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार में भी बढ़ोतरी हो रही है ।आज कितने ही वरिष्ठ नागरिक अपने शारीरिक और मानसिक शोषण की अनसुनी कहानियों के साथ अकेले रहते हैं। जो अपने बच्चों की उपेक्षा और तिरस्कार के परिणाम स्वरूप शारीरिक मानसिक कष्ट पा रहे हैं। पारिवारिक दुर्व्यवहार के साथ ही साथ उन्हें सार्वजनिक दुर्व्यवहार का भी सामना करना पड़ता है। बुजुर्गों के साथ होने वाले इस दुर्व्यवहार की रोकथाम के लिए तथा लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए ही 'अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम संघ' के अनुरोध पर 'संयुक्त राष्ट्र संघ' ने 2006 मे प्रस्ताव  66/ 127 के तहत 15 जून को 'विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम जागरूकता दिवस मनाने का निर्णय लिया।' बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक  मानवाधिकार का मुद्दा है। 'डब्ल्यू एच ओ' के अनुसार- 'बुजुर्ग दुर्व्यवहार एक बार या बार-बार किया जाने वाला कार्य या उचित कार्रवाई की कमी है, जो कि किसी भी रिश्ते में प्रकट होती है जहां विश्वास की उपेक्षा होती है। जो कि किसी बुजुर्ग व्यक्ति के लिए नुकसान या परेशानी का कारण बनती है ।प्रत्येक व्यक्ति को वृद्धावस्था में सभी प्रकार के भय व तनाव से मुक्त होकर अपनी अस्मिता व सम्मान के साथ जीने का अधिकार है।' वर्ष 2017 में 'डब्ल्यू एच ओ' द्वारा कराए गए अध्ययन के अनुसार विश्व में 60 वर्ष से अधिक उम्र वाले बुजुर्गों में से अनुमानतः 15.7% बुजुर्गों के साथ यानी विश्व भर में प्रत्येक छह में से एक बुजुर्ग के साथ दुर्व्यवहार हुआ। समुदाय में अनुमानित दुर्व्यवहार जैसे कि मनोवैज्ञानिक दुर्व्यवहार 11.6%, वित्तीय दुरुपयोग 6.8%,  उपेक्षा 4.2%, शारीरिक शोषण 2.6 %,तथा यौन शोषण 0.9% था। आज यह समस्या विकासशील व विकसित दोनों ही देशों की दोनों की समस्या बन चुकी है । हमारे देश की संस्कृति में जहां माता-पिता को भगवान का दर्जा दिया जाता था उनके चरणों में स्वर्ग माना जाता था कब उन्हें बोझ मानने की विचारधारा ने जन्म ले लिया पता ही नहीं चला ।आज उपभोक्तावादी संस्कृति के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों ,नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन, तथा परिवार शब्द की सीमित होती परिभाषा ने बुजुर्गों के लिए अनेक समस्याएं खड़ी कर दी हैं। समाज की विद्रूपता का अनुमान लगाने के लिए युवा वर्ग की यह सोच ही पर्याप्त है कि मां-बाप के साथ एक घर में रहने में उनकी निजता बाधित होती है, तथा उन्हें असुविधा होती है ।एक सर्वे के अनुसार 35 फ़ीसदी लोगों को बुजुर्गों की सेवा से खुशी नहीं मिलती। बुजुर्गों की उपेक्षा व तिरस्कार की जहरीली हवा ने शहरों की ही नहीं गांव के वातावरण को भी दूषित कर रखा है।  सर्वे के मुताबिक 21.38 फ़ीसदी बुजुर्ग गांव में, जबकि 25.3 फ़ीसदी बुजुर्ग शहरों में अकेले रहते हैं । तकरीबन एक चौथाई लोगों का मानना है कि उन्हें बुजुर्गों की देखरेख करने में निराशा और कुंठा होती है ,और 29 फ़ीसदी लोग बुजुर्गों को घर में रखने की बजाय वृद्धाश्रम में रखना उचित समझते हैं। देश में बढ़ती 'ओल्ड एज होम' की संख्या तथा वहां रहने वाले बुजुर्गो के चेहरों की खामोश झुर्रियां और सूनी आंखें चीख चीख कर उनके अकेलेपन की भयावह त्रासदी बयान करती हैं। रिश्ते ही नहीं मानवता भी शर्मसार हो जाती है जब कोई मां कहती है कि -उसके बेटे ने बीमारी की हालत में उसे इतना मारा कि वह एक कान से बहरी हो गई और घर से निकाल दिया, व्यक्त होती है हमारी संवेदनहीनता जब कोई बुजुर्ग कहता है कि उसके बेटे और बेटियां इसी शहर में रहते हैं आर्थिक रूप से संपन्न हैं पर कभी भी उनसे  मिलने  नहीं आते। यह कौन सी संस्कृति है कि जिस में घरों में कई कई नौकर नौकरानियों के लिए जगह है परंतु बूढ़े मां-बाप के लिए नहीं । कुछ दास्ताने ऐसी भी हैं कि घर में मां बाप को एक कोना तो उपलब्ध है पर उन्हें उनकी सीमा रेखा से बाहर आने की आलीशान बंगलों में हर जगह जाने की इजाजत नहीं है जिन्हें उनके बेटे  बहुओं ने आधुनिक ढंग से सजाया संवारा है कितने अपमानजनक और त्रासदी पूर्ण हैं ये जीवन । कुछ केस ऐसे भी हैं  जहां बुजुर्गों की  घर में   सारी आवश्यकताओं  की पूर्ति की जाती है  उनके स्वास्थ्य, खाना, कपडे हर  आवश्यकता की पूर्ति तो होती है ,पर  कमी रहती है तो अपने बच्चों के समय, सानिध्य  व अपनत्व की।  आज की सोशल मीडिया प्रचलित जीवनशैली ने  बुजुर्गों के अकेलेपन को और भी बढ़ा दिया है। आज की  आधुनिक जीवन शैली में जहाँ लोगो पास अपने बच्चों के लिए भी समय नहीं है  वहां वे बूढ़े मां बाप के लिए समय कहां से लाएंगे । अब  परिवारों में एक साथ बैठना ही कम हो गया है सभी अपने-अपने में व्यस्त रहते हैं परंतु यदि सभी एक साथ बैठते भी हैं,  तो  अपने अपने मोबाइल और लैपटॉप में सोशल मीडिया में व्यस्त रहते हैं । पास बैठे लोगों की खबर नहीं होती और दुनिया जहान की खबर रखते हैं। ऐसे में बुजुर्ग  नई पीढ़ी के बीच में  उपेक्षित बैठे रह जाते हैं। पहले बुजुर्ग पोते पोतियो के साथ व्यस्त रहते थे  परंतु  इस  सोशल मीडिया के  चपेट से  बच्चे भी नहीं बचे  उन्हें भी अब बुजुर्गों के सानिध्य से ज्यादा इंटरनेट की दुनिया आकर्षित करती है। बुजुर्गों की ये समस्याएँ तो घर के अंदर की हैं ' परंतु घर के बाहर भी उनकी समस्याएं कम नहीं है ।सार्वजनिक स्थलों पर भी उनके साथ असम्मानजनक व्यवहार किया जाता है। 'हेल्प एज इंडिया' के मुख्य कार्यकारी अधिकारी 'मैथ्यू चेरियन' का कहना है कि -'आंकड़ों ने मुझे चौका दिया बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक संवेदनशील मुद्दा है पिछले कुछ सालों से हम घरों के बंद दरवाजों के पीछे बुजुर्गों के साथ होने वाले बुरे बर्ताव का अध्ययन कर रहे हैं परंतु जब हमने सार्वजनिक स्थानों पर उनके साथ दुर्व्यवहार का आंकलन किया वह भी विचारणीय है।' हेल्पेज इडिया के 2018 के आंकड़ों के अनुसार  भारत में प्रत्येक चार में से एक बुजुर्ग के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है ।युवा पीढ़ी को समझना होगा कि बुढ़ापा तो एक अनिवार्य अवस्था है जो हर एक की आनी है, और समय के इस चक्र से एक दिन उन्हें भी गुजरना ही होगा । हमारे मां-बाप ने जिन्होंने तिनका तिनका जोड़ कर घरौंदा बनाया उसी घर से एक दिन उन्हें निकालना,  उन्हें अपमानित करना  एक सर्वथा अमानवीय  है। आज आवश्यकता है नई पीढ़ी में पुनः वही  संस्कार जागृत करने की जहां मां-बाप को भगवान का दर्जा दिया जाता था ,जहां बुजुर्गों को बरगद की छांव माना जाता था और यह विश्वास किया जाता था कि जिस घर में बुजुर्गों का जितना आशीर्वाद होगा उस घर के बच्चे उतनी ही तरक्की करेंगे।आज की हमारी  किशोर पीढ़ी के भटकने का भी बहुत बड़ा कारण यही है कि माता-पिता तो जीवन की भागदौड़ में व्यस्त हैं, ऐसे में बुजुर्ग दादा-दादी उन्हें संस्कार और जीवन जीने की सही राह दे सकते हैं। साथ ही जिन मां-बाप ने अपना संपूर्ण जीवन हमारा भविष्य बनाने में लगा दिया वृद्धावस्था में उनका ध्यान रखना सिर्फ शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी उन्हें स्वस्थ रखना उन्हें खुश रखना हमारा प्रथम प्रयास होना चाहिए। वृद्धावस्था एक ऐसा पड़ाव है जो अपनों के प्रेम सहानुभूति और सानिध्य की आकांक्षा रखती है। बुजुर्गों को भौतिक वस्तुओं से ज्यादा अपने परिवार के प्रेम अपनेपन और सम्मान की आवश्यकता है ।उनके लिए सबसे ज्यादा कष्टदायक उनका  अकेलापन ही होता है।  "बुजुर्ग दुर्व्यवहार रोकथाम जागरूकता दिवस" हमें इस दिशा में विचार करने और कार्य करने  की दिशा में प्रेरित करने का एक साधन है। इस दिवस को मनाने की सार्थकता तभी है जब हम सभी  ना सिर्फ अपने माता पिता बल्कि  सभी बुजुर्गों के प्रति सम्मान और सहयोग का भाव रखें। तथा उनमें भी आत्मविश्वास और जिजीविषा की भावना उत्पन्न करें। उन्हें एक ऐसा स्वस्थ वातावरण प्रदान करें जहां वह अपने जीवन की शाम को सुख सुकून और प्रसन्नता के साथ गुजार सकें।
 (लेखिका-सोनिया सिंह )

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