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(चिंतन-मनन) संत की उदारता

(चिंतन-मनन) संत की उदारता

विख्यात संत एकनाथ जी 12 वर्ष की अवस्था में ही अपने गुरु जनार्दन स्वामी के पास देवगढ़ पहुंच गए थे। गुरु ने उन्हें आश्रम के हिसाब-किताब का काम सौंप दिया। एक दिन जब एकनाथ जी ने हिसाब और रोकड़ का काम किया तो एक पाई की कमी नजर आई। खूब सोचने के बाद आखिरकार उन्हें आधी रात को एक पाई का हिसाब मिल गया तो उन्होंने उसी समय अपने गुरुजी को जाकर यह बात बताई। इस पर गुरु हंसे फिर बोले- बेटा! एक पाई की भूल मिलने से तुम इतने प्रसन्न हो और इस संसार के मायाजाल जैसी महाभूल को अपनाए हुए हो। इस पर कभी सोचा है?  
यह सुनते ही एकनाथ जी के भीतर वैराग्य जागा और दुनिया के कामकाज से उनका मोहभंग हो गया। उन्होंने उसी समय सब कुछ छोड़ देने का फैसला किया। वे अपने गुरु से दीक्षा लेकर पर्वत पर जाकर तपस्या करने लगे। तपस्या के बाद वे अपनी जन्मभूमि के निकट पिपलेश्वर महादेव में रहने लगे। पर थोड़े ही समय बाद वे विवाह कर गृह संन्यासी बन गए। एकनाथ जी ने गुरू के आदेश का पालन किया। विवाह के बाद उनके घर में नित्य कीर्तन होता और अन्न वितरण किया जाता। एक दिन कीर्तन में कुछ चोर आ गए। उन्होंने घर का सभी सामान समेट लिया। फिर उन्होंने देवमूर्ति के आभूषण चुराने का प्रयास किया। वहीं एकनाथ जी ध्यानमग्न बैठे थे। उन्होंने चोरों से कहा- तुम्हें इनकी बहुत अधिक आवश्यकता होगी अन्यथा इतनी रात गए भला कोई जोखिम क्यों उठाता? तुम सब मुसीबत के मारे लगते हो। चिंता मत करो। मुझसे जो मदद होगी, मैं करूंगा। यह कहते हुए उन्होंने अपनी उंगली की अंगूठी भी उतार कर उन्हें दे दी। यह देख चोर लज्जित हुए। वे एकनाथ जी के चरणों में गिर गए और उन्होंने कभी चोरी न करने का संकल्प लिया।  
 

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