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(अवसाद क्यों) सुनाने वाले से सुनने वाला कीमती होता हैं ! 

(अवसाद क्यों) सुनाने वाले से सुनने वाला कीमती होता हैं ! 

मानव एक सामाजिक प्राणी हैं ,वह समाज में ही या भी रहकर खुश रह सकता हैं या रहता हैं।हर व्यक्ति का कोई न कोई नजदीकी दोस्त होता हैं जिससे वह अपने दिल की बात खुलकर कहता हैं या कह सकता हैं।पहले गांव या शहरों के मुहल्लों में हम बैठकर बातें करते थे और कुछ बातों से अपना मन हल्का कर लेते थे,
जबसे कॉलोनी संस्कृति आयी ,आर्थिक सम्पन्नता के कारण और अपने क्षेत्रों में स्थापित होना शुरू हुए तबसे हम असामाजिक यानी एकाकी होना शुरू हुए।ऐसा नहीं कि असामाजिक भी अपने निजियों या दोस्तों से अवश्य मिलता हैं।एक बात और ध्यान में आ रही हैं कि जबसे हम शिक्षा /.नौकरी /,व्यवसाय के लिए अपने गृह नगर या गांव से बाहर गए और नए परिवेश में दोस्ती बनाना बहुत कठिन होता हैं।बचपन के दोस्तों से हम अपनी बात खुलकर करते हैं पर नौकरी /व्यवसाय में दोस्ती स्तरीय होती हैं।यदि दोनों का स्तर यानी आय,  सफलता ,सामाजिक रुतबा हैं तो दोस्ती होती हैं अन्यथा एक प्रकार की औपचारिकता बनती हैं।
गृहनगर से बाहर जाकर संघर्ष करते वक़्त ऐसा साथी।समान विचार धारा के लोग मिलना चाहिए जिससे अंतरंगता हो।इस समय जो दोस्त बनते हैं वे स्वार्थी या ईर्ष्यालु मिलते हैं या होते हैं ,बाहरी व्यक्ति को पहचानने में समय लगता हैं।एक बात और हैं जिसके पास काम अधिक होता हैं उसे खाना नसीब नहीं होता हैं और जिसके पास काम नहीं होता उसे भी खाना नसीब नहीं होता।
वर्तमान में हमारा पूरा ध्यान बाह्य जगत में उलझा हैं ,पढ़े-लिखे ,समझदार -धनवान होने से हमने अध्यात्म  और धर्म के बुनियादी बिंदुओं को छोड़ दिया।हम स्वकेन्द्रित हो गए।धनवान होने से ,काम होने से अपने आपको भूल गए।जोश में होश नहीं रहता।और उस समय धनांधता /मद /यश /कीर्ति /,वैभव होने से वह इतना गाफिल हो जाता हैं की अन्य उसे तुच्छ लगने लगते हैं।
जो यश।धन ,पद प्रतिष्ठा पा लेते हैं वे चलते फिरते भगवान् बन जाते हैं उनके दर्शन बहुत कठिन होते हैं।आज आप महाकाल के दर्शन करना चाहो करलो पर कोई मंत्री ,सचिव ,संत महंत अभिनेता नेता के दर्शन या मिलना बहुत कठिन हैं।कहते जरूर हैं की हमारे द्वार सबके लिए खुले रहते हैं पर वहां पर बैठा पहरेदार दरवाजे के अंदर प्रवेश करने दे या मुलाकात करने दे तब ठीक हैं ,नहीं तो द्वार खुले से क्या फायदा।जो जितना सम्पन्न होने लगता हैं वह स्वकेन्द्रित होने लगता हैं।जबकि उसे सब सामग्री अपने पुरुषार्थ और पुण्य से मिलता हैं।
धर्म का चिंतन करने से संसार की समस्या का रास्ता मिलता हैं।संयोग वियोग हमारे अधीन नहीं हैं ,पराधीन हैं।किसी को यश मिलना पराधीनता हैं ,कोई न प्रशंसा न करेगा तो आप क्या कर लेंगे।
धर्म के कारन हमारी सोच सकारात्मक बनती हैं ,विपरीत परिस्थिति में हमको यह ज्ञान मिलता हैं की यह संसार ही क्षणिक हैं और सब जीव स्वतंत्र हैं ,सबकी अपनी अपनी परिणति होती हैं ,कोई किसी के आधीन नहीं हैं।
यह सच हैं जब व्यक्ति यश सम्पन्नता प्राप्त कर लेता हैं तो वह असामाजिक होकर स्वकेन्द्रित हो जाता हैं ,उससे कोई आसानी से नहीं मिल सकता औरवह सामान्य नहीं रहता ,वह असामान्य हो जाता हैं ,कोई से वह नहीं मिलता और न कोई मिलता जिससे वह एकाकी होने लगता हैं और अपने मनोभावों को किसी से बांटता नहीं हैं  वह अपने दिल दिमाग पर इतना बोझ डालता हैं की उसे शराब या शबाव की जरुरत होती हैं और थोड़ी से असफलता या इच्छा पूरी न होने पर वह तनाव /अवसाद /आत्महत्या करने पर उतारू हो जाता हैं।
चाहे जो भी हो वह धनपति ,अभिनेता ,नेता ,मंत्री ,सामान्य व्यक्ति ,सब मानव हैं उसे मानवीय  पहलु पर उतरना होगा।तभी हम संसार के भौतिक संघर्ष  को जीत पाएंगे।
जब देने का मन हो और लेने वाला करीब न हो ,
जब सुनाने का मन हो और सुनने वाला करीब न हो
तब अहसास होता हैं ,कि देने वाले से लेने वाला
और सुनाने वाले से सुनने वाला कितना कीमती होता हैं
राजा राणा क्षत्रपति हाथिन के असवार ,
मरना सबको एक दिन अपनी अपनी बार।
मरना निश्चित हैं पर आत्महत्या करना उचित नहीं
संघर्षों से लड़ना और जीतना यही जीवन हैं।
(लेखक-डॉक्टर अरविन्द  प्रेमचंद जैन)
 

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