कोविड 19 के बाद अब फिर समय का चक्र तेजी से घूम रहा है । जहां एक ओर भारत जैसे विकासशील देश में युवा शक्ति से अत्यधिक अपेक्षाये की जा रही है। वही दूसरी तरफ भारत में बालकों और युवाओं की शिक्षा में गुणवत्ता वृद्धि हेतु तनिक भी प्रयास नही किये जा रहे। समय की मांग के अनुरुप देखा जाये तो आज संपूर्ण भारत की शिक्षा प्रणाली में बहुत से सुधारों को करने की अवाश्यकता है । जैसे की सर्वविदित है कि , भारत की अधिकांश जनसंख्या खेती के माध्यम से अपना जीवन यापन करती है । भारत एक कृषि प्रधान देश है। उस लिहाज से अगर आंकलन किया जाये तो यहां अधिकांश परिवार जिनका जीवन खेती किसानी पर आधिरित है वे गाँवों और कस्बों में निवास करते है और एक साधारण जीवन जीते है ऐसे में इन लोगों मे अधिकांशतः प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित रह जाते है और जो ग्रामीण जन कुछ शिक्षा ग्रहण भी कर लेते है तो वह उस दर्जे की नही होती जिससे उन्हें वैकल्पित तौर पर किसी अन्य जगह पर जाके काम मिल सके। या वो अपने बच्चों को ही पढ़ा सके। वर्तमान समय में तो गांवो, में पढ़ने वाले बच्चें तकनीकी शिक्षा या कम्प्यूटर आधारित शिक्षा में महारत हासिल करने में असक्षम होते है। युवा होते-होते कुछ एक दो बच्चे ही इनमें अच्छें रोजगार प्राप्त कर पाते है वाकि पुनः उसी भीड़ का हिस्सा बन कर रह जाते है जिनको उनकी शिक्षा के आधार पर अच्छी नौकरी मिलना कठिन है। ऐसे में ऑनलाइन क्लासेस में ऐसे बच्चो की परिकल्पना ही कैसे की जा सकती है।
अब बात करें,अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की तो इन स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चें जो मध्ययम वर्गीयें परिवार से आते है । वे घर के वातावरण और अपने विद्यालय के वातावरण के मध्य सामंजस्य बैठाने में सदैव संघर्सरत रहते है ।
एक बालक को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए कौन कौन सी चीजे बाधक है। इस बात का पता लगाने पर हम पायेगें की सबसे महत्वपूर्ण है शिक्षा की भाषा । कि, किस भाषा में बच्चे को पढ़ाया जा रहा है वह उसको कितना समझ आ रहा है जो उसे पढ़ाया गया । दूसरी बात है आपका सामाजिक स्तर । “सर्वशिक्षा अभियान” के अंतर्गत अगर आपके बच्चे को किसी बडे स्कूल में दाखिला मिल गया । तो क्या आपका बच्चा जिसके पिताजी आज भी साईकिल चलाते है किसी BMW या मर्सडीज कार में चलने बाले बच्चे जितना जीवन स्तर पा सकता है । वर्तमान शिक्षा तंत्र में ऐसी कई कमियां मौजूद है।
अगर हम मूल्य आधारित शिक्षा की बात करे तो वह क्या होती है उसके अंतर्गत श्रोता और प्रषेण अर्थात् छात्र और शिक्षक के मध्य मित्रवत संबंध होना चाहिये। निजी हो या सरकारी विद्यालय प्रत्येक विद्यालय का मुख्य मकसद केवल शिक्षा प्रदान करना ही नही होना चाहिए बल्कि बच्चों में सीखने की प्रवृत्ती विकसित करना होना चाहियें। बच्चों के समझ के दायरे की बढ़ावा दे । घिसे-पिटे कितबी ज्ञान के आकलन के आधार पर मेरिट निर्धारित ना करें बल्कि विज्ञाप्ति के साथ -2 अतिरिक्त क्रियाकलापों में बच्चों ने कैसा प्रर्दशन किया है उनके अंको की रिपोर्ट कार्ड में स्थान होना चाहिये। बच्चो के समझने और उनके प्रतिक्रिया देने के आधार पर ही हम उनका सही आंकलन कर सकते है। अक्सर कुछ बालक जो कक्षाओं में सदैव प्रथम आते है व्यवहारिक ज्ञान से अपरिचित होते है साथ ही अन्य क्रियाकलापों जैसे कसरत,चित्रकारी,खेल-कूद,की प्रतियोगिताओं नाच-गाने में ज्यादा रुचि नहीं दिखाते आगे जाकर इनमें से कुछ लोग ही महाविद्यालय और समाज में उच्च दर्जा प्राप्त करते है अधिकांश एक साधारण सी नौकरी के साथ अपना जीवन गुजार देते है। किन्तु जिन बच्चों का पढ़ाई में स्तर मध्यम होता है वे अन्य क्रियाकलापों में रुचि के चलते उच्च शिक्षा भी ग्रहण कर पाते है और अपने हुनर के अनुरुप रोजगार प्राप्त करके एक सफल और उत्कृष्ट जीवन जीते है। मेरे ये कहने का तात्पर्य बस इतना है कि वर्तमान समय में आपका केवल किताबी ज्ञान लेना ही उचित नही है किताबों में जो लिखा है वो कई साल पूर्व के अनुभव होते है जो सिर्फ आपकी बुनियाद मजबूत कर सकते है। उसके आगे की इमारत आपको आपनी सीखने की क्षमता के आधार पर बढ़ानी होती है एक कक्षा मे होशियार और मूर्ख दोनों तरह के छात्रों को एक सा ज्ञान दिया जाता है। होशियार छात्र तो पढ़ कर आगे बढ़ जाते है पर जो कमजोर है उन्हें प्रताड़नाओं के सिवा कुछ नही मिलता जबकि अब हमारे शिक्षा तंत्र में कमजोर छात्रों के बुद्धि हेतु भी ध्यान दिये जाने की आवश्कयता है स्कूलों से रोजगार काउंसलिंग का पूरा पैनल होना चाहियें। जो बालकों को उनके बुद्धि के स्तर के आधार पर चुनने और उसमें क्या रोजगार की संभवना हो सकती है उसे बदलने का कार्य करें शिक्षा सदैव मूल परक और उसमें क्या रोजगार उन्नमुखी होनी चाहियें। हर बच्चे को किताबी पढ़ाई में रुचि और दिमाग एक सा नही होता इसलिए माता-पिता को भी चाहिये।कि वो केवल बच्चों को किताबी पढ़ाई में टॉप करने को प्रेरित ना करें। बल्कि समझे भी उनका बालक या बालिका किसा क्षेत्र में अग्रणी है उसे वैसी शिक्षा प्रदान करवाये। बालक-बालिकाओं में हो रहें होते भावनात्मक बदलावों के विश्व में हफ्ते में एक दिन एक व्याख्यान अवश्य होना चाहियें। इस तरह अगर बदलते वक्त और आधुनिकरण के दौर में हम अपने समाज को पिछड़ने नही देना चाहते तो हमें वर्तमान शिक्षा तंत्र में सुधार करने की अत्याधिक आवश्यकता है।
लेखक - डॉ अंशुल उपाध्याय फॉर्मर सीनियर एसोसिएट यूजीसी दिल्ली
पूर्व सैन्य विज्ञान फैकल्टी मोतीलाल विज्ञान महाविद्यालय भोपाल(मध्यप्रदेश)
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वर्तमान शिक्षा तंत्र में एक बार फिर बदलाव की आवश्यकता