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(कविता) रास्ते का पत्थर   

(कविता) रास्ते का पत्थर   

रास्ते में पड़ा पत्थर 
एक दिन मुझ से बोल पड़ा, 
इतना क्यों उदास होते हो तुम, 
आशायें क्यों खोते हो तुम, 
तुम अभी और संघर्ष करो 
तुम न अभी पथ से विचलित हो 

यह अंधकार मिट जाएगा 
एक दिन यह तूफान भी थम जाएगा 
एक नई रोशनी फूटेगी 
निराशाओं की कड़ियां टूटेंगी, 
तू है मानव दो हाथों से, 
क्या-क्या नहीं कर सकता है 
रेगिस्तां को अगर चाहे, 
तो जल से तू भर सकता है 
अरे मैं तो ठोकर, खा खा कर 
कभी किनारे आऊंगा 
अपने साहस के बल पर 
किसी नींव का पत्थर बन जाऊंगा 
और ऊंचे ऊंचे महलों की, 
मजबूत बुनियाद बनाऊंगा, 
और, अगर हो सका महलों के, 
शीर्षों पर भी जड़ सकता हूँ 
प्रयत्न और विश्वासों से, 
मैं क्या नहीं अरे कर सकता हूँ 
जब मुझ में इतनी आशा है, 
तो तुम न बुधं व्यर्थ डरो 
तुम अपने पर विश्वास रखो 
तुम अभी और संघर्ष करो 
तुम अभी न पथ से विचलित हो। 
(लेखक- सतीश भारती)

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