कोरोना काल दुनिया भर में संवेदना ह्रास का दुर्दांत समय बनकर उभरा है। आये दिन न केवल लोगों की मृत्यु के समाचारों से संवेदनशील लोगों का मन व्यथित हो रहा है , वरन जो संबंधो की मौत इनके साथ दिखती है वह ज्यादा पीड़ा कारक है। जिस चीन से यह वायरस पनपा , वही सारी संवेदनहीनता के साथ आक्रमण कारी विस्तारवादी नीति अपनाता दिख रहा है। यह विस्मयकारी है। मजदूरो के पलायन की हृदय विदारक घटनायें सुर्खियो में रही हैं। कितनी ही घटनायें सुनने में आई जिनमें मृतक की भौतिक संपत्ति से तो वारिसों ने अपना लगाव जाहिर किया , पर मृतक को सरकारी अमले के भरोसे छोड़ दिया गया। इसे विवशता कहें या संवेदना का ह्रास समझ से परे है।
संवेदना एक ऐसी भावना है जो मनुष्य मे ही प्रगट रूप से विद्यमान होती है। मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है क्योंकि उसमें संवेदना है। संवेदनाओं का संवहन,निर्वहन और प्रतिपादन मनुष्य द्वारा सम्भव है,क्योंकि मनुष्य के पास मन है। अन्य किसी प्राणी में संवेदना का यह स्तर दुर्लभ है। संवेदना मनुष्य मे प्रकृति प्रद्दत्त गुण है। पर वर्तमान मे भौतिकता का महत्व दिन दूने रात चौगुने वेग से विस्तार पा रहा है और तेजी से मानव मूल्यों ,संस्कारों के साथ साथ संवेदनशीलता भी त्याज्य होती जा रही है.मनुष्य संवेदनहीन होता जा रहा है , बहुधा संवेदनशील मनुष्य समाज में बेवकूफ माना जाने लगा है. संवेदनशीलता का दायरा बड़ा तंग होता जा रहा है. स्व का घेरा दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है.अपने सुख दुःख, इच्छा अनिच्छा के प्रति मनुष्य सतत सजग और सचेष्ट रहने लगा है. अपने क्षुद्र , त्वरित सुख के लिए किसी को भी कष्ट देने में हमारी झिझक तेजी से समाप्त हो रही है. प्रतिफल मे जो व्यवस्था सामने है वह परिवार समाज तथा देश को विघटन की ओर अग्रसर कर रही है.
आज जन्म के साथ ही बच्चे को एक ऐसी व्यवस्था के साथ दो चार होना पड़ता है जिसमे बिना धन के जन्म तक ले पाना सम्भव नही. आज शिक्षा ,चिकित्सा , सुरक्षा , सारी की सारी सामाजिक व्यवस्था पैसे की नींव पर ही रखी हुई दिखती है.हमारे परिवेश में प्रत्येक चीज की गुणवत्ता धन की मात्रा पर ही निर्भर करती है. इसलिये सबकी सारी दौड़ , सारा प्रयास ही एक मार्गी ,धनोन्मुखी हो गया है.सामाजिक व्यवस्था बचपन से ही हमें भौतिक वस्तुओं की महत्ता समझाने और उसे प्राप्त कर पाने के क्रम मे , श्रेष्ठतम योग्यता पाने की दौड़ मे झोंक देती है. हम भूल गये हैं कि धन केवल जीवन जीने का माध्यम है । आज मानव मूल्यों का वरण कर , उन्हें जीवन मे सर्वोच्च स्थान दे चारित्रिक निर्माण के सद्प्रयास की कमी है.किसी भी क्षेत्र मे शिखर पर पहुँच कर , अपने उस गुण से धनोपार्जन करना ही एकमात्र जीवन उद्देश्य रह गया प्रतीत होता है। आज हर कोई एक दूसरे से भाईचारे के संवेदनशील भाव से नही अपितु एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी के रूप मे खड़ा दिखता है. हमें अपने आस पास सबको पछाड़ कर सबसे आगे निकल जाने की जल्दी है। इस अंधी दौड़ में आगे निकलने के लिये साम दाम दंड भेद ,प्रत्येक उपक्रम अपनाने हेतु हम तत्पर हैं। संवेदनशील होना दुर्बलता और कामयाबी के मार्ग का बाधक माना जाने लगा है।सफलता का मानक ही अधिक से अधिक भौतिक साधन संपन्न होना बन गया हैं.संवेदनशीलता , सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय की बातें कोरी किताबी बातें बन कर रह गई हैं.
पहले हमारे आस पास घटित दुर्घटना ही हम भौतिक रूप से देख पाते थे और उससे हम व्यथित हो जाते थे , संवेदना से प्रेरित , तुरंत मदद हेतु हम क्रियाशील हो उठते थे।पर अब टी वी समाचारों के जरिये हर पल कहीं न कहीं घटित होते अपराध , व हादसों के सतत प्रसारण से हमारी संवेदनशीलता पर कुठाराघात हुआ है.। टी वी पर हम दुर्घटना देख तो सकते हैं किन्तु चाह कर भी कुछ मदद नही कर सकते। शनैः शनैः इसका यह प्रभाव हुआ कि बड़ी से बड़ी घटना को भी अब अपेक्षाकृत सामान्य भाव से लिया जाने लगा है। अपनी ही आपाधापी में व्यस्त हम अब अपने आसपास घटित हादसे को भी अनदेखा कर बढ़ जाते हैं।
ऐसे संवेदना ह्रास के समय में जरूरी हो गया है कि हम शाश्वत मूल्यों को पुनर्स्थापित करें , समझें कि सच्चरित्रता ,मानवीय मूल्य, त्याग,दया,क्षमा,अहिंसा,कर्मठता,संतोष ,संवेदनशीलता यदि व्यक्तिव का अंगन हो तो मात्र धन , कभी भी सही मायने मे सुखी और संतुष्ट नही कर सकता. हमारी संवेदनायें ट्वीट तक सीमित हो रही हैं। फेसबुक या व्हाट्सअप पर आर आई पी तक सीमित हो चुकी है , मृत्यु। कोरोना को लेकर बहुत रचनायें हो रही हैं , पर ज्यादातर हास्य तक सीमित दिखती हैं , करुणा का अभाव खटकता है। संवेदना ह्रास के इस दुर्दांत समय में यदि आदमजात को इंसान बने रहना है तो हमें करुणा और मानवीय भावनाओ को नये सिरे से दुनियाभर में नैतिक शिक्षा के जरिये पुनः प्रतष्ठापित करने की आवश्यकता है।
(लेखक - विवेक रंजन श्रीवास्तव)
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कोरोना काल। संवेदना ह्रास का दुर्दांत समय