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राजस्थान सरकार: गहलोत का जादू..पायलट की उड़ान और कुंवारा बाप 

राजस्थान सरकार: गहलोत का जादू..पायलट की उड़ान और कुंवारा बाप 

मैं चबूतरे पर बैठकर दांतों पर नीम की दातुन घिस रहा था। तभी मियां मसूरी आते दिखे। वे किसी उधेड़बुन में थे। कभी पैरों तले की जमीन तांक रहे थे, तो कभी आसमान। अचानक उनका पाँव कीचड़ में पड़ा और वे सीधे फिसलकर मेरे ऊपर आ गिरे। मैंने जैसे-तैसे खुद को संभाला और मियां पर तंज कंसा-सरकार! संभलके...'क्यूँ हम गरीबों को कुचलने पर लगे हो!'
मियां ने कुछ पल मुझे घूरा और फिर उसी लहजे में पलटवार किया-'सरकार के गिरकर हाथ-पैर टूट जाएं..उसका कुछ नहीं..जनता को बस अपनी पड़ी है।'
मैंने मुस्कराकर चिकोटी काटी-'मियां..सुबह-सवेरे क्यूँ गुलाबो-सिताबो के बुढ़ऊ घई पिनक रहे हो?'
मियां ने पलटवार किया-'बुड्ढा होगा तेरा बाप..तेरी भाभीजान कहती हैं कि..मेरी आंखों में अभी भी जादू है..।'
मैंने चिकोटी काटी-'गर्दन भले श्रीराम लागू है!'
मियां ने मुझे घूरा, फिर सवाल दागा-'गुलाबो से याद आया..महोदय, मुझे गुलाबी नगरी जयपुर से बादल कब छँटेंगे?'
मैंने बनावटी हैरानी जताई-'मियां..मानसून आ चुका है..सिर पर बादल नहीं मंडराएंगे..तो क्या खुला आसमान दिखेगा!'
मियां ने गहरी सांस भरी--'महोदय मालूम है कि आप लेखक हैं, लेकिन अभी शब्दों के जादूगर मत बनिए..मैं गहलोत सरकार की बात कर रहा..क्या लगता है..उनका जादू चलेगा?'
मैंने पलटवार किया-'मियां..गहलोत के डीएनए में जादूगरी है। उनके पिता लक्ष्मण सिंह जितने दक्ष जादूगर थे, उससे कहीं अधिक अशोक गहलोत हैं। दिल्ली को भी उनका जादू पसंद है। बाकी जाएं तेल लेने...!'
मियां ने चिकोटी काटी-'लेकिन जनाब..बगैर पायलट के सरकारी विमान भी कितने दिनों तक जादू से उड़ाया जा सकेगा..सुना है.. हाईकमान ने पायलट को बगैर पैराशूट के नीचे धक्का दे दिया।?'
मैंने चिकोटी काटी-'मियां...कांग्रेस के विमानों में पायलट सिर्फ शोपीस होते हैं, उन्हें तो रिमोट से उड़ाया जाता है।'
मियां ने पलटवार किया-'महोदय..ये सरकारें हैं..बच्चों के कोई वीडियो गेम्स नहीं!'
मैंने व्यंग्य कंसा-'मियां...जब घर के बड़े-बूढ़े सठिया जाएं..तो बच्चे तो उत्पात करेंगे ही!'
मियां ने ताना मारा-'बच्चों को खुरापाती लोग उकसा रहे हैं..यह क्यूँ भूल रहे आप?'
मैंने पलटवार किया-'देखो मियां...संयुक्त परिवारों में हमेशा बड़े-बूढ़े ही मुखिया बनते आ रहे हैं..अब सिंगल फैमिली का दौर है..हम 2 और हमारे 2... इसलिए आजकल लड़कों की मूंछे निकलें..न निकलें...लड़कियों को चोटियां गूंथने का सहूर आए न आए...पर अवश्य निकल आते हैं!'
मियां ने तर्क दिया-'विरोधी..बच्चों की भी तो उंगुली कर रहे हैं..दिल्ली की ओर दृष्टि डालिए?'
मैंने गहरी सांस खींची-'मियां..आपका कहना बाजिब है, लेकिन यह भी सच कि सरकारें बचपने से नहीं चलतीं। वैसे' ये तो सुना ही होगा कि बचपना शादी के बाद ही जाता है!'
इस बार मियां ने कुटिल मुस्कान छोड़ी-'सचिन पायलट..और सिंधिया क्या कुंवारे हैं?'
मैंने पलटवार किया-'बिलकुल नहीं, लेकिन यह भी मत भूलिए कि कुंवारा किसी का बाप नहीं बन सकता!'
मियां ने गहरी सांस खींची-'महोदय...आपका इशारा दिल्ली की तरफ है..समझ रहा हूं, लेकिन कांग्रेस में तो हर कोई बाप बनता जा रहा..और बड़े-बूढ़ें सठियाते जा रहे हैं!'
मैं दांतों तले दातुन चबाते हुए इतना कहकर अंदर चला गया-' अक्ल की दाढ़ को कितना भी घिसो..अक्ल होगी..तो ही आएगी।'


व्यंग्य: अमिताभ बच्चन को कोरोना और मियां के 'मन की बात'
- अमिताभ बुधौलिया
मैं घर की खिड़की से बाहर गली में झांक रहा था। तभी मियां मसूरी आते दिखे। मुंह पर मॉस्क, हाथों में ग्लब्ज और हाथ में एक लाठी; जिसे दिखाकर वे करीब से गुजरने वाले लोगों से 'डिस्टेंस' बनाने की हिदायत दे रहे थे।
जैसे ही वो खिड़की के करीब आए मैंने छेड़ दिया-'मियां..सुबह-सवेरे किधर को?'
मियां ने सपाट भाव से कहा-'बस..चप्पल टूट गई..उसे सुधरवाने जा रहा था?'
मैंने हैरानी जताई-'मियां..ऐसी कहां..घिस रहे हो चप्पलें?'
मियां ने नाक से मॉस्क नीचे सरकाया और अजीब-सा मुंह बनाकर कहा-'लॉकडाउन में कहां जाएंगे..मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक?'
मैंने बगैर किसी हाव-भाव के जवाब दिया-'तो घर पर नमाज क्यों नहीं पढ़ते?'
मियां ने मुझे घूरा-'मैंने कहावत कही थी, ये चप्पलें तो..छत पर बच्चों के साथ उछलकूद करते टूटी हैं।'
मैंने पंच किया-'तो...इतना क्यों उछलकूद करते हो..आराम से बैठो..?'
मियां ने गुस्सा जाहिर किया-'जनाब.., इस कलमुंहे कोरोना ने जीना मुहाल कर दिया है। पहले जब कोई काम-धंधा नहीं करता था, तो बीवी कहती थी, दिनभर घर पर पड़े रहते हो..घर से बाहर निकलो..कुछ काम करो। अब कहती है, बड़ी चुल्ल छूट रही बाहर जाने की, घर में पैर नहीं टिकते क्या?'
मैंने पलटवार किया-'तो..अभी बाहर निकलने की आवश्यकता क्या है..कोरोना में घर में रहोगे..तो सुरक्षित रहोगे।'
मियां ने मुझे घूरा-'और खाएंगे-पीयेंगे क्या?'
मैंने व्यंग्य कंसा-हवा खाओ-पानी पीयो?
मियां ने कहा-'महोदय, उड़ा लो गरीबों का मजाक..वैसे हवा भी कौन-सी शुद्ध बचने दी..और पानी...क्या फ्री में मिलता है!'
मियां के इस सवाल पर मैं निरुत्तर हो गया। इस बीच गली से निकले एक आवारा सांड को भगाने मियां ने अपनी लाठी को लहराते हुए जोर से 'हट-हट' किया।
मैंने हंसकर कहा-'मियां..आपको हाथों में लाठी पहली बार देख रहे..आप ठहरे गांधीवादी ये लाठी-डंडे क्यों चला रहे?'
मियां ने पलटवार किया-'लाठी तो गांधीजी भी साथ लेकर चलते थे! खैर, मैं तो इसे इसलिए लेकर चल रहा, ताकि कोई करीब से गुजरे, तो उसे लाठी से टोंचकर सोशल डिस्टेंसिंग बनाने को कह सकूं।'
मैंने ताना मारा-'मियां ये भी गजब है..यह तो ठीक वैसी बात हुई कि कल तक जिन्हें हम हिंदी चीनी, भाई-भाई कहकर गले लगाते थे..आज उनसे सोशल डिस्टेंसिंग बना रहे हैं।'
मियां ने बुरा-सा मुंह बनाया-ये चीनी क्या कम है..गले मिलकर गलवान में घुसते हैं..और कोरोना भी तो इन्होंने ही फैलाया है..आप यह क्यूँ भूल गए?'
मियां की बात सुनकर मैंने उत्सुकता जताई-चीनी कम.. से याद आया..हमारे अमिताभ बच्चन भी पॉजिटिव निकले हैं?'
मियां ने व्यंग्य मारा-'तो क्या बिग बी निगेटिव थे...?'
मैंने पलटवार किया-जनाब..यह मजाक का विषय नहीं।'
मियां ने गहरी सांस खींची-'हूं..मैं तो यह सोच रहा हूं कि जब कोरोना सुपरस्टार को हो सकता है..तो हमलोग कौन खां?'
मैंने व्यंग्य कंसा-'हमलोग खामख्वाह!'
मियां ने दार्शनिक शैली में जवाब दिया-'महोदय, मन की बात कहूं?'
मैंने बनावटी गंभीर होकर मोबाइल घड़ी पर नजर डालते हुए कहा-'अभी तो सुबह के 10 बजे हैं..रात के 6-8 तो बजने दो!'
मियां ने गहरी सांस खींची-'महोदय....मेरे कहने का आशय यह है कि अब तो हमारी अपने मन की सुनने में भी फटती है...समझ नहीं आता...क्या करें..किधर जाएं...?
मैंने पलटवार किया-'सरकार के मन की बात सुनो..वो कहती है..घर में ही रहिए...जब तक न कहें..कहीं न जाएं?'
मियां ने पलटवार किया-'यह ज्ञान तो अमिताभ बच्चन भी हर घंटे-दो घंटे में टीवी पर बांटते थे..फिर वे संक्रमित कैसे हुए..क्या मास्क नहीं लगाते थे, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं करते थे?'
मैंने इतना कहकर खिड़की बंद कर ली-'वो बड़े लोग हैं..उनकी सेहत की सलामती के लिए लाखों हाथ उठेंगे...सरकार..अस्पताल..सब सेवा में जुट जाएंगे..लेकिन हमें या तुम्हें संक्रमण हुआ..तो मियां..मर गए..तो कंधा देने 4 लोग भी नहीं आएंगे।'
(लेखक- अमिताभ बुधौलिया )

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