आज एक बार फिर सिंधिया राजघराना चर्चाओं में छाया है। सिंधिया घराने के चिराग ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मध्यप्रदेश की कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को गिरा कर भाजपा की सरकार बनवा दी है और खुद सत्ता के शक्ति केंद्र बन गये हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जो कुछ भी किया वह कुछ नया नहीं किया उन्होंने सिर्फ सिंधिया घराने का इतिहास ही दोहराया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी राजमाता सिंधिया ने भी तो ऐसा ही किया था। 1967 में राजमाता सिंधिया ने भी मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री डी पी मिश्रा की कांग्रेस की सरकार को कांग्रेस के 35 विधायकों को तोड़कर गिरा दिया था। ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी दादी का इतिहास दोहराने में छाती ठोंककर गर्व भी करते हैं। अब यह जानना रोचक होगा कि आखिर ये सिंधिया राजघराना राजनीति में कैसे आया।आजादी के बाद भी ग्वालियर में सिंधिया राजघराने का जनमानस में बेहद प्रभाव रहा।इस बात का आभास ग्वालियर गये प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को हो गया था। नेहरू ने हिंदू महासभा से प्रभावित रहे ग्वालियर के महाराजा जीवाजीराव सिंधिया के प्रभाव और लोकप्रियता को आमजनों के बीच खुद देखा था।
नेहरूजी ग्वालियर से दिल्ली वापस लौटे।उनने ग्वालियर महाराजा जीवाजीराव को दिल्ली बुलाया और चर्चा की तथा उन्हें कांग्रेस में शामिल होकर लोकसभा का चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया। महाराजा सिंधिया नेहरूजी को विचार कर सूचित करने का आश्वासन देकर वापस आ गए।
महाराजा जीवाजीराव सिंधिया ने अपनी पत्नी विजयाराजे सिंधिया से नेहरूजी के प्रस्ताव पर चर्चा की। विजयाराजे सिंधिया के बारे में बता दें कि शादी के पहले उनका नाम देवीश्वरी देवी था जो सागर के राणा परिवार की बेटी थीं। महाराजा जीवाजीराव शिंदे जो बाद में सिंधिया हो गए ,उनने अपने सरदारों की इस मंशा से कि उन्हें अपने मराठी समाज की लड़की से ही शादी करना चाहिए के खिलाफ जाकर प्रेम प्रसंग के चलते सागर की देवीश्वरी देवी से विवाह किया।अपने सगे सरदार आंग्रे का विरोध भी उनने झेला।
जीवाजीराव सिंधिया नेहरू जी के कांग्रेस में आकर लोकसभा चुनाव लड़ने प्रस्ताव से सहमत नहीं हुए।उनने अपनी पत्नी विजयाराजे सिंधिया से चर्चा की और कहा कि उनकी राजनीति में जरा भी रुचि नहीं है।वे खुद नेहरूजी को मना नहीं करना चाहते थे।उनने अपनी पत्नी विजयाराजे को दिल्ली भेजकर नेहरूजी को मना करने का जिम्मा सौंपा।
विजयाराजे सिंधिया ने दिल्ली जाकर नेहरूजी से भेंट की और अपने पति की राजनीति में रुचि न होने की जानकारी दी।नेहरूजी सिंधिया परिवार को राजनीति में लाने की जिद्द पकड़ चुके थे।नेहरूजी ने विजयाराजे सिंधिया को सरदार पटैल से मिलने कहा।राजाओं की रियासतों के विलय के अगुवा सरदार पटैल सिंधिया राजघराने से परिचित थे ही।जब विजयाराजे सिंधिया सरदार पटैल से मिलने पहुंची तो पटैल ने उनसे कहा कि कोई बात नहीं महाराजा नहीं चाहते तो नेहरूजी चाहते हैं कि आप उनकी पत्नी होने के नाते कांग्रेस से लोकसभा का चुनाव लड़े। आखिर राजमाता सिंधिया कांग्रेस में शामिल हो गयीं।उनने 1957 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में गुना से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीतीं।1962 में वे फिर कांग्रेस की सांसद बनीं। नेहरूजी से मतभेद के बाद जब राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी बनायी तो राजमाता उसमें शामिल हो गयींऔर 1967 स्वतंत्र पार्टी से गुना से चुनाव लड़कर सांसद बनीं।बाद में वे जनसंघ में शामिल हो गयीं।जनसंघ से भी वे सांसद और विधायक बनीं।वे भारतीय जनता पार्टी की संस्थापक भीं थीं। आपातकाल में इंदिरा गांधी को 20 सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करने से इंकार कर देने वाली राजमाता सिंधिया ने जेल जाना पसंद किया।जो नेहरू राजमाता को राजनीति में लाये वे नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के खिलाफ चंद्रशेखर के कहने पर रायबरेली से चुनाव भी लड़ीऔर हार गयीं।
(लेखक सच्चिदानंद शेकटकर)
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जब नेहरू जी विजयाराजे सिधिया को काग्रेस में ले आये