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(चिंतन-मनन) इच्छाओं को समर्पित करते जाओ 

(चिंतन-मनन) इच्छाओं को समर्पित करते जाओ 

सभी इच्छाएं खुशी के लिए होती हैं। इच्छाओं का लक्ष्य ही यही है। किंतु इच्छा आपको कितनी बार लक्ष्य तक पहुंचाती है? इच्छा तुम्हें आनंद की ओर ले जाने का आभास देती है, वास्तव में वह ऐसा कर ही नहीं सकती। इसीलिए इसे माया कहते हैं। इच्छा कैसे पैदा होती है? किसी सुखद अनुभव की स्मृति या भूत के प्रभाव से इच्छा पैदा होती है। कुछ सुनने से भी इच्छा जागृत हो सकती है या किसी विशेष स्थान या व्यक्ति के संपर्प से। किसी और व्यक्ति की जरूरत या इच्छा भी तुम्हारी अपनी इच्छा के रूप में पैदा हो सकती है।  
मान लो कोई भूखा है, तो तुम्हें उसे खिलाने की इच्छा हो सकती है, या कोई तुमसे बात करना चाहता हो तो तुम्हारी भी उससे बात करने की इच्छा हो सकती है। कभी-कभी नियति या कोई घटना जिसमें तुम्हें भाग लेना है, तुममें इच्छा जाग्रत करती है, पर तुम अपने कृत्यों का कारण नहीं जानते।  
इच्छाएं अपने आप उत्पन्न होती हैं, वे तुमसे पूछकर नहीं आतीं। जब इच्छाएं उत्पन्न होती हैं, तुम उनका क्या करते हो? यदि तुम सोचते हो कि तुम इच्छाहीन हो जाओ, तो यह भी एक और इच्छा है। मैं एक उपाय बताता हूं- सिनेमा देखने के लिए टिकट खरीदनी पड़ती है और यह टिकट प्रवेश द्वार पर देनी पड़ती है। यदि तुम उस टिकट को पकड़े रखोगे तो अंदर कैसे जाओगे?  
उसी प्रकार, यदि तुम किसी कॉलेज में दाखिल होना चाहते हो तो आवेदन पत्र की जरूरत है। उसे भरकर जमा करना पड़ता है। उसे पकड़कर नहीं रख सकते। इसी प्रकार जीवन-यात्रा में भी अपनी इच्छाओं को पकड़कर मत रखो, उन्हें समर्पित करते जाओ। जैसे-जैसे समर्पण करते जाओगे, इच्छाएं भी कम उत्पन्न होंगी। सौभाग्यवान वे हैं जिनमें इच्छा उत्पन्न ही नहीं होती, क्योंकि इच्छा जागृत होने के पहले ही वे तृप्त हैं।  
 

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