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चीन समस्या : हल क्या हो  

चीन समस्या : हल क्या हो  

भारतीय मीडिया का रवैया अपवाद छोड़ घोर व्यापारिक और अवसरवादी है। आज कल रोज अखबारों में या मीडिया में काल्पनिक खबरें गढ़कर छापी जाती हैं, ताकि कमजोर सरकार को बहादुर और अदूरदर्शी नेतृत्व को महानायक सिद्ध किया जा सके। राष्ट्रीय संकट के नाम पर मुख्यधारा का मीडिया सारे प्रश्नों को दबा देना चाहता है। मैं मीडिया से पूंछना चाहूंगा कि अपनी सरकार से प्रश्न पूँछना और आलोचना कैसे राष्ट्र विरोधी है? और अपराधी सरकार की प्रशंसा कैसे राष्ट्र भक्ति है? 
    मीडिया चीनी माल के बहिष्कार और कुछ प्रतिबन्धों के प्रभाव के अतिरंजित आंकड़े छापकर यह वातावरण बना रहा है कि जैसे भारत ने चीन को आर्थिक रूप से घुटने टेक कर दिया है। अगर कभी वास्तव में ऐसा हो तो मुझे बहुत खुशी होगी। और मैं प्रधानमंत्री जी का सार्वजनिक अभिनंदन करॅगा। परंतु यह अभी तक प्रमाणित तथ्य नहीं है। बल्कि घटनाओं के सूक्ष्म अवलोकन से मैं यह महसूस कर रहा हू कि भारत सरकार स्वत: ही जल्दी बहिष्कार के चक्र से बाहर निकल कर पुरानी स्थिति को बहाल करना चाहती है। यह स्वाभाविक भी है कि सरकार अपनी ताकत और कमजोरी दोनों को जानती है। परन्तु वोट के लिए तो जीत बताना ही जरूरी होता है।  
अब प्रश्न यह है कि भारत सरकार को क्या करना चाहिए मेरी राय में :- 
1.    भारत को अपनी विदेश नीति को अब कोरी बातों-जुमलों से हटकर राष्ट्रीय सुरक्षा और हित के मजबूत पायदानों पर खड़ा करना चाहिए। तथा विदेश नीति का आधार केवल व्यापार को नहीं बनाना चाहिये।  
2.    भारत को स्पष्ट निर्णय करना चाहिए कि हम न केवल चीन से बल्कि दुनिया के किसी भी देश से विलासिता-भोग-और गैर जरूरी आयात नहीं करेंगे उसे प्रतिबंधित करेंगे। तथा आयात केवल राष्ट्रीय सुरक्षा, तकनीकी ज्ञान और जीवन रक्षक सामग्री तक सीमित करेंगे।  
3.    भारत एल.ओ.सी. और एल.ए.सी. सिद्धांतो को अमान्य करने की घोषणा सार्वजनिक करें तथा पश्चिमी सीमा पर पाक अधिकृत कश्मीर तक और उत्तरी सीमा पर अंग्रेजों द्वारा बतायी गई मैकमोहन रेखा को भारत चीन सीमा घोषित करें। 
भारत की चीन के द्वारा कब्जाई भूमि को मीडिया में बहुत कम बताया जा रहा है। जैसे कुछ लोग 1962 में भारत की 30 किलोमीटर या 41 किलोमीटर सीमा ही चीनी कब्जे में है बताते हैं। यह गलत आंकलन है। लम्बाई में अगर तीस किलोमीटर जमीन है तो उसकी चौड़ाई 1000 किलोमीटर से अधिक है - याने 30 हज़ार वर्ग किलोमीटर जमीन हुई। अगर सरकार 1962 के समय 
के संसद के भाषणों को आधार माने जिनमें भाजपा के पूर्वजों के भाषण-बयान भी शामिल हैं। तो लगभग 40 हज़ार वर्ग किलोमीटर जमीन चीन ने कब्जायी थी और अभी गलवान घाटी में भी चीन अपनी सीमा से लगभग 11 किलोमीटर आगे आया था। अगर दिखावटी समझौते के लिए दो किलोमीटर पीछे भी चला जाए तो भी लगभग 900 वर्ग किलोमीटर से अधिक जमीन उसके कब्जे में रहेगी। देश के साथ यह धोखा बंद हो।  
4.    भारत 1947 के भारत चीन की सीमा दर्शाने वाले नक्शों, उनके क्षेत्रफल को सार्वजनिक रूप से जारी करें और संसद में पेश करें। अगर चीन अपनी बढ़ायी हुई सीमा के नक्शों को जिसमें अरूणांचल प्रदेश तक शामिल है, सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कर दुनिया को उसे अपनी सीमा में बताता है तो भारत को अपनी जमीन बताने से इस पर्दानशीनी की क्या आवश्यकता है?  
5.    भारत को अपने पुराने निर्णय को संशोधित करना चाहिए तथा तिब्बत को स्वतंत्र तिब्बत के रूप में स्वीकार करना चाहिए। तिब्बत का दूतावास दिल्ली में शुरू कर दलाई लामा को धर्मशाला से दिल्ली बुलाकर दिल्ली में स्थान देना चाहिए।  
6.    भारत को अमेरिकी समर्थन और सैन्य शक्ति या दुनिया के देशों के औपचारिक समर्थन को औपचारिकता में ही लेना चाहिए। यह सब फेस बुकिया श्रद्धांजलि जैसे ही होते हैं। गलवान घाटी के नाम पर भारत ने अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका और रूस से जो सैन्य विमान खरीदने का ताबड़ तोड़ निर्णय किया है इसकी राशि का  वास्तविक आंकलन फिलहाल कठिन है। परन्तु प्राप्त सूचना के अनुसार रूस लगभग 20 हज़ार करोड़ और अमेरिका लगभग 40 हज़ार करोड़ के सैन्य विमान भारत को बेच रहे हैं।   
    यह तो अभी खरीद की शुरूआत ही है। भारत के बड़बोलू सत्ता प्रवक्ता अब बताएँ कि वे पिछले कई वर्षें से दावा कर रहे थे कि भारत ने स्वदेशी हथियार विकसित कर लिए है। तो अब इन विदेशी हथियारों के आयात समझौते की जरूरत क्या है? भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व. श्री ऐ.पी.जे. अब्दुल कलाम ने, डी.आर.डी.ओ. को विकसित किया था। परंतु पिछले 10 वर्षें से वह पीछे कैसे गया तथा शस्त्रों पर शोध कार्य ठहरता क्यों गया?   
7.    भारत, तिब्बत और हिमालय को लेकर डॉ. लोहिया की कल्पना के अनुसार हिमालय नीति की घोषणा करनी चाहिए जो राष्ट्रीय सीमाओं के साथ साथ पर्यावरण, जल, जमीन, प्रकृति प्रजाति और संस्कृति संरक्षण की समग्र कल्पना पर आधारित हो।  
8.    भारत को अपनी विदेश नीति की असफलताओं को स्वीकार करना चाहिए कि हमारा कोई भी पड़ोस देश भारत के साथ क्यों नहीं है? नेपाल को चीन की झोली में फेंकने के लिए कौन जवाबदार है? नेपाल ने भारत के कई इलाकों को अपने नक्शे में शामिल कर लिया है और सदन के प्रस्ताव पर राष्ट्रपति ने मुहर लगा दी है।  क्या अब यह स्थाई तनाव का कारण नहीं बनेगा? जो भारत के नीति नियंता नेपाल में ओली सरकार के अतिरंजित संकट की बढ़ी-चढ़ी खबरों से खुश हो रहे है वे न केवल कल्पना लोक में जिंदा है बल्कि केवल नकारात्मक खुशी हासिल कर रहे हैं। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के अंतर विरोधों में उलझने के बजाय हमें समूची नेपाली जनता को भारत पक्षीय बनाने की नीति तैयार करना चाहिए। नेपाल में ओली रहे या प्रचंड या कोई और इससे फिलहाल वस्तु स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।  
9.    भारत व श्रीलंका के रिश्तों को भी हमें विश्वास आधारित बनाना होगा और श्रीलंका का समर्थन व सहानुभूति हासिल करना होगी।  
10.    पाकिस्तान चीन का औजार बन गया है। पहले भी पाकिस्तान ने अपनी जमीन चीनी अड्डों को सौंपी है और अब ओ.आर. ओ.वी. याने ”वन रोड वन बेल्ट“ की योजना से चीन समूचे एशिया और यूरोप के देशों तक अपनी व्यापारिक सैन्य और राजनैतिक पकड़ बना रहा है। शायद चीन की यह सर्वाधिक महत्वाकांक्षी आर्थिक व्यापारिक और सैन्य परियोजना है। इससे भारत के समक्ष क्या चुनौतियां पैदा होगी इसका आंकलन और तदनुसार नीति निर्माण की आवश्यकता है।  
11.    भारत को यह भी याद रखना हागा कि सदैव ज्यादा सैन्य या असैन्य सहयोग और ज्यादा असहयोग दोनों जमीनी सीमाओं से ही मुख्यत: संभावित होता है। वायु और जल मार्ग की सैन्य सहायतायें बहुत देर तक कारगर नहीं होती। अमेरिकी समुद्री जल पोतों ने न 1962 में और न 1971 में कभी भी भारत का साथ नहीं दिया है। और आगे भी हमें इन पर ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए। हमें अपनी थल सीमाओं व पड़ोसी देशों के विश्वास और सहयोग को पुन: हासिल करने की ठोस रणनीति बनाना चाहिए। 
12.    भारत को, भारतीय सीमाओं, उनके नक्शों को विश्व पटल पर रखना चाहिये। मैकमोहन लाईन की सीमा को इन नक्शों में दर्शाना चाहिये।  
13.    भारत को, चीन के साथ तब तक निर्णायक बात नहीं करना चाहिये, जब तक वह अपने नक्शों में सुधार कर अरूणांचल लद्दाख - तिब्बत आदि कब्जाये भू-भाग को अपने नक्शे से पृथक नहीं करता।   
प्रधानमंत्री जी कहते है कि समस्या को अवसर में बदलना चाहिए। और मैं उनसे अपील करॅगा कि वे अपने कथनानुसार चीनी सीमा विवाद से उत्पन्न हुई समस्या को भारत के लिए अपने, कथन के अनुसार आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से समर्थ बनाने के अवसर में तबदील करें। दुनिया की, यहाँ तक कि अमेरिका तक की अनेकों कम्पनियाँ है जो चीनी कम्पनियों का स्थान भरने को भारत में आ रही है। परन्तु उनमें से अनेकों में भी चीनी पैसा लगा है याने चीन का यह प्रत्यक्ष निवेश के बजाय अप्रत्यक्ष निवेश है। केवल औपचारिक बहिष्कार से चीन की अर्थ व्यवस्था पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा। फिर चीन ने दुनिया के बहुत से देशों में न केवल पूँजी निवेश किया है, बल्कि कर्ज भी दिया है। यहाँ तक कि वैश्विक पटल पर चीन ने अपने पूँजी निवेश के व कर्ज के हथियार से अमेरिका को भी अलग-थलग सा कर दिया है। जिस प्रकार भारत-भूटान या अन्य देशों को आर्थिक सहयोग देकर उन्हें अपने साथ करना चाहता है उसी प्रकार चीन-भारत से कई गुना ज्यादा आर्थिक मदद देकर यह पहले से कर रहा है। 
    कुछ मित्रों ने मुझसे पूछा था कि चीन का अतिक्रमण करने का उद्देश्य क्या है। यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है? दरअसल चीन के मंतथ और कुछ ऐतिहासिक घटनाओं को समझना होगा :-  
1.    दुनिया में, राजनीति शास्त्र के विद्वानों ने एक शब्द गढ़ा है पुन: संयोजनवाद। चीन ने नवंबर 2012 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 18वीं कांग्रेस में श्री जिंपिंग के आवाहन पर तय किया था ”चीनी राष्ट्र का पुन: जीवन याने जो भू-भाग कभी अतीत में चीन के रहे हों उन्हें वापिस चीन में मिलाना। यह पुन: संयोजनवाद मुसोलिनी के जमाने में इटली में उभरा था। भारत के सत्ताधीश भी यदा कदा सही, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर कंधार तक भारत है, की चर्चा करते है तो उससे भी वही पुन: संयोजनवाद की ध्वनि ही सुनाई पड़ती है। अत: भारत को पुन: संयोजनवाद को घोषित रूप से नकारना होगा तथा चीनी पुन: संयोजनवाद के खिलाफ विश्व जनमत तैयार करना होगा। पुन: संयोजनवाद एक अर्थ में विस्तारवाद ही है चाहे जिसका हो।  
2.    चीन और अमेरिका का फर्क यह है कि चीन बगैर अमेरिका के समान सार्वजनिक घोषणा के विश्व शक्ति और नियंत्रक बनने की इच्छा रखता है। इसके मुकाबले के लिये भारत को भी, अपनी आर्थिक और सैन्य ताकत को उसी प्रकार सुसज्जित करना होगा। इस पर अभी से विचार व कार्य की जरूरत है। इन सबके स्थायी हल के सूत्र गाँधी और लोहिया में मिलेंगे। अच्छा हो कि भारत सरकार और सभी राजनैतिक दलों के नेता गाँधी और लोहिया की ओर वापिस जाये।  
(लेखक-रघु ठाकुर )

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