बहुत समय से विश्व स्तर पर यह बहस चल रही हैं की मांसाहार ,शाकाहार कौन लाभप्रद और हानिकारक हैं ,तर्क अपने अपने हो सकते हैं पर सत्यता एक ही हैं। यदि हम आहार /भोजन/शाकाहार /मांसाहार शब्दों को समझने का प्रयास करेंगे तो आधी से अधिक भ्र्म अपने आप समाप्त हो जायेंगे।
आहार--आरोग्य वर्धक और हानि रहित उसे आहार कहते हैं। भोजन -- भोग से जल्दी नष्ट होना उसे आहार कहते हैं। शाकाहार --- शांतिकारक और हानिरहित जो आहार,वह शाकाहार हैं। मांसाहार -- यानी जिससे मन और शरीर को हानि पहुंचे उसे मांसाहार कहते हैं।
इस बात पर भी विशेष बल दिया जाता हैं की अंडा, माँस, मछली ,आदि में शरीर के आवश्यक घटक के लिए आवश्यक हैं यह मिथ्या धारणा हैं ,दूसरा माँस आदि में यदि मसाला आदिका उपयोग न किया जाय तो आप खा नहीं सकते ,तीसरा मानव शरीर माँस आदि खाने के लिए नहीं बना हैं ,और जब आप बीमार होते हैं तब मांसाहार का उपयोग क्यों नहीं करते ?जबकि शाकाहार नैसर्गिक भोज्य हैं ,उसमे सभी प्रकार के घातक प्रचुरता से मिलते हैं ,,मानव शरीर की संरचना शाकाहार के लिए हैं और शीघ्र पाचक होने से शरीर और मन को शांति देते हैं। चूँकि यह विषय विवादित हैं ,तर्क तर्क अपने अपने हैं ,सत्य कटु और एक ही होता हैं।
बताया जा रहा था कि मांसाहार पर्यावरण के लिए कितना खतरनाक है। जैसे एक किलो बीफ तैयार करने के लिए 25 किलो अनाज और 15 हज़ार लीटर पानी लगता है। t कुछ अहिंसा के समर्थक या धार्मिक कारणों से विभिन्न संगठनों के लोग ही इस तरह का प्रचार करते हैं।
दुनिया के जाने-माने विश्वविद्यालयों के शोध सामने आने लगे। यह साबित होने लगा कि खाने के लिए एनिमल मीट तैयार करने के कारोबार की ग्लोबल वॉर्मिंग में मोटर गाड़ियों और पेट्रोलियम से भी ज्यादा हिस्सेदारी है।
इधर, कोविड-19 के बाद वायरसों की उत्पत्ति में जानवरों की भूमिका पर काफी सवाल उठ रहे हैं। हाल ही में चीन के सुअर पालकों में एक और फ्लू वायरस का पता चला है। नया वायरस सुअरों से उन्हें पालने वाले युवाओं में पहुंचा। इसके भी खतरनाक महामारी बनने की आशंका है।
फिलहाल अच्छी बात यह है कि मनुष्यों से मनुष्य में यह संक्रमण फैलने का कोई मामला सामने नहीं आया है। फिर भी पड़ताल जारी है। यह भी कहा जा रहा है कि न्यूटन का गति का तीसरा नियम ‘प्रत्येक क्रिया की समान एवं विपरीत प्रतिक्रिया होती है’ इंसानों पर लागू हो रहा है।
मनुष्य ने पशुओं पर जितने अत्याचार किए हैं, अब पशुओं से आ रहे वायरस उनका बदला ले रहे हैं। ख़ैर, जलवायु परिवर्तन और मनुष्यों की सेहत ख़राब करने में मीट कारोबार की भूमिका पर अब किसी को भी संदेह नहीं है।
कुछ महीने पहले ही ऑक्सफर्ड और मिनिसोटा विश्वविद्यालय में दो शोध पत्र प्रकाशित हुए। इसमें पश्चिमी देशों के लोगों की सेहत और पर्यावरण पर भोजन के प्रभाव का अध्ययन था। एक रिसर्च रेड मीट को लेकर थी। रेड मीट यानी गाय, भैंस, सुअर या भेड़-बकरी का मांस। एक ही उम्र के दो अलग-अलग व्यक्तियों पर खाने का प्रभाव अलग-अलग था।
एक व्यक्ति जो साधारण भोजन करता है, उसके औसत जीवनकाल की तुलना पचास ग्राम अतिरिक्त रेड मीट खाने वाले व्यक्ति से की गई। जो व्यक्ति अतिरिक्त रेड मीट खाता था, उसकी एक ख़ास उम्र में मरने की आशंका 41 फ़ीसदी ज्यादा पाई गई।
यूनाइटेड नेशन के फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन के मुताबिक, अमेरिकी और ब्रिटिश लोगों में नॉन वेज से जुड़ी समस्याएं तेज़ी से बढ़ी हैं। 1970 के बाद से अब तक अमेरिकी और यूरोपीय लोगों में मीट खाने की क्षमता दस फ़ीसदी अधिक हो चुकी है। इस शोध में नॉन वेज के पर्यावरण पर भयंकर दुष्प्रभावों की बात भी सामने आई। सौ ग्राम वनस्पति प्रोटीन के मुक़ाबले पचास ग्राम रेड मीट तैयार करने में बीस गुना ज्यादा ग्रीन हाउस गैसें निकलती हैं और सौ गुना ज्यादा ज़मीन का इस्तेमाल होता है। कुछ पुराने शोध से यह पहले ही पता चल चुका है कि कृषि क्षेत्र में होने वाले कुल ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का दो तिहाई हिस्सा पशुपालन से होता है।
जानवरों से मांस, दूध, ऊन और चमड़ा आदि लेने की एवज़ में खेती योग्य ज़मीन का तीन चौथाई हिस्सा इस्तेमाल हो जाता है। कहा जाता है कि अगर मवेशियों का कोई एक देश बनाया जाए तो उसका आकार अमेरिका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आएगा।
जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के विद्वानों ने भी 140 देशों के लोगों की खाने की आदतों व ज़रूरतों का अध्ययन कर एक नतीजा निकाला है। उनके मुताबिक़, एक अमेरिकी रोज़ाना खाने में 2300 कैलोरी लेता है। अगर वह शाकाहारी हो जाए तो इससे वातावरण में उसके ज़रिए होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 30 फीसदी की कमी आएगी। पर समस्या का समाधान इससे भी नहीं होने वाला। दुधारू पशुओं की डकार से वातावरण में बड़ी मात्रा में मीथेन जाती है। लिहाज़ा दूध, पनीर और घी जैसे खाद्य भी अब ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए जिम्मेदार माने जा रहे हैं। इसे कम करने के लिए सिर्फ वेजिटेरियन होने से काम चलने वाला नहीं।
शोध कहता है कि अगर वही अमेरिकी व्यक्ति अपने खाने में दो तिहाई हिस्सा वीगन रखे तो उसके कार्बन फुट प्रिंट में साठ फ़ीसदी की कमी आ जाएगी। इसका मतलब है कि वह कभी-कभी एनिमल प्रोटीन ले सकता है, पर ज्यादातर वीगन फूड। अगर यही व्यक्ति पूरी तरह से वीगन हो जाता है तो उसके कार्बन फुट प्रिंट में 85 फ़ीसदी की कमी आ जाती है।
यह एक आदर्श स्थिति होगी। दुनियाभर के लोगों में यह बदलाव अब आना भी शुरू हो गया है। मार्केट सर्वे करने वाली एक संस्था ने ब्रिटेन और अमेरिका में अध्ययन किया तो चौंका देने वाले नतीजे सामने आए। 50 फ़ीसदी एडल्ट नॉन वेजिटेरियन अब खाने में से मीट कम करना चाहते हैं। इसकी वजह पर्यावरण और सेहत के प्रति बढ़ी जागरूकता है
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कुछ साल पहले यह साफ कहा है कि प्रॉसेस्ड रेड मीट से कैंसर का खतरा होता है। यह नतीजा संगठन से जुड़ी द इंटरनैशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर ने निकाला था। इसका मतलब साफ था कि हॉट डॉग, हैम, बेकन और सॉसेज कितने भी स्वादिष्ट क्यों न हों, लेकिन अगर उनमें रेड मीट है तो वे आपकी सेहत के लिए ख़तरनाक हो सकते हैं।
इतने सारे शोध आने और मांसाहार के प्रति लोगों के बदलते नज़रिए का असर मीट मार्केट पर तो आना ही था। अमेरिका की सबसे बड़ी मीट कंपनी टायसन फूड भी प्लांट बेस प्रोटीन के क़ारोबार में कूद पड़ी है। कंपनी के सीईओ के भाषण की यह लाइन चर्चा का विषय रही कि वह अब प्रोटीन के धंधे में हैं, चाहे वह जानवर का हो या वनस्पति का।
भविष्य के भोजन के लिहाज से इसे एक बड़ा बयान माना जा रहा है। बियॉन्ड मीट और इम्पॉसिबिल फूड जैसी कंपनियां वीगन भोजन के विश्व कारोबार में पहले से ही पूरी तरह से हैं। भारत में भी गुड डॉट और ऐसी कुछ कंपनियों ने अपना कारोबार फैलाना शुरू कर दिया है।
बीती 24 जून को कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने प्लांट बेस्ड प्रोटीन के कारोबार के लिए सौ मिलियन डॉलर का एक प्रोजेक्ट अपने देश में शुरू किया है। चीन ने भी कुछ वक़्त पहले इज़रायल के साथ एक करार किया। उसने तीन सौ मिलियन डॉलर का एक लैब ग्रोन मीट प्रोजेक्ट शुरू किया है। इसमें मांस की एक कोशिका को कल्चर करके नकली मांस बनाया जाएगा।
हालांकि वीगन फूड के समर्थकों को इस पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि यह तो मांस ही होगा, लेकिन पर्यावरण प्रेमियों ने इसका स्वागत किया। जीवों पर दया से जुड़े संगठन भी खुश हैं कि इस प्रोजेक्ट की वजह से जानवरों को मारना रुकेगा।
बहरहाल, नॉन वेज कम करने की दिशा में दुनिया चल चुकी है। लोगों को यह पता चल चुका है कि बात सेहत की हो या पर्यावरण की, उन्हें अपना खानपान बदलना ही होगा। एनिमल प्रोटीन के वनस्पतियों पर आधारित विकल्पों में भविष्य का भोजन होगा, इसकी संभावना अब काफी ज्यादा है। फिर जिस तरह के वायरस अटैक हो रहे हैं, हमें गंभीरता से सोचना होगा कि हमारा कर्म कहीं वाकई न्यूटन के तीसरे नियम को हमारे ऊपर लागू तो नहीं कर रहा।
एक बात बहुत साफ़ हैं की माँस बिना हत्या के प्राप्त होता नहीं हैं ,जिस समय जानवरों का वध किया जाता हैं उस दौरान उनके मनोभावों का असर माँस और चमड़े पर पड़ता हैं। आपने खुद अनुभव किया होगा मांसाहार के लिए कत्लखानों और माँस बिक्री के स्थानों का वातावरण और सब्जी और फल बिकने के स्थानों में कितना अंतर् होता हैं। एक जगह शांति और सुंदरता और दूसरी तरफ ग्लानि और घुटन। जिस मनोभावों के साथ जानवरों का वध होता हैं वे मनोभाव माँस ,चमड़े पर पड़ता हैं और उनका उपभोग और उपयोग करने वाले स्वयं अनुभूत करते हैं। क्या आप श्मशान स्थल के आमों ,या अन्य फल जानबूझ कर खाना पसंद करते हैं ?जब इतना विवेक फलों पर रखते हैं तो यह भाव जानवरों के माँस खाने पर क्यों नहीं रखते।
अभी क्या हुआ हैं जितना अधिक मांसाहार /अंडाहार का सेवन उतनी जल्दी मौतों का आमंत्रण। इसीलिए माँस /अंडा खाओ और कैंसर और अन्य घातक रोग बुलाओ।
वैसे खाना ,पीना ,पहनना , पूजन व्यक्तिगत हैं पर विवेक से क्या लाभकारी हैं या हानिकारक समझे और अपनाये।
(लेखक-डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन )
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