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राखी के दोहे

राखी के दोहे

राखी ने फिर से दिया,इक नेहिल पैग़ाम ।
बहना का ख़त बांचता,सावन यहअभिराम ।।

धागा दिन पर दिन हुआ,और-और मजबूत ।
भाई का तो कर हुआ,संरक्षा का दूत ।।

रोली बनकर के दुआ,गर्वित करती माथ ।
हर युग,हर पल,हर जनम,भाव निभाते साथ ।।

गाता रक्षापर्व नित,शुभ-मंगल के गीत ।
हो चाहे परदेश में,राखी जाती जीत ।।

बिन चिट्ठी,बिन तार के,पहुंचा करते भाव ।
बहना-भाई नेह का,अलग हमेशा ताव ।।

यादों में हरिया रहा,बचपन का हर रूप ।
सावन के पल थे सुखद,देते अब भी धूप ।।

सावन अपने आप में,है पूरा इक ग्रंथ ।
राखी में तो है बसा,पूरा मज़हब,पंथ ।।

मन उजले सबके हुये,शेष रहा न मैल ।
रक्षाबंधन पर्व पर,अपनेपन की गैल ।।

आशीषों का दौर है,त्याग भरा संसार ।
लाज निभे जब सूत की,बस तब ही है सार ।।
                        
 (लेखक-प्रो.शरद नारायण खरे )

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