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एक सम्पूर्ण नजरिए से ओत-प्रोत नई शिक्षा नीति 

एक सम्पूर्ण नजरिए से ओत-प्रोत नई शिक्षा नीति 

प्रख्यात वैज्ञानिक प्रफुल्ल चन्द्र राय ने 1918 में कहा था, ”प्राचीन भारत के विकसित विज्ञान की सभी शाखाओं के बारे में मेरा अन्तरण लज्जानत नहीं, अपितु गर्वोन्नत हैं।“ वस्तुत: पूर्वकाल में भारत यदि धनी एवं समृद्ध देश था तो उसका एक बड़ा कारण उस समय की शिक्षा पद्धति के चलते था। जिसमें विभिन्न उद्योगों में कुशल तो बनाया ही जाता था, साथ ही उच्च नैतिक, एवं अध्यात्मिक शिक्षा जो समाज में सांमजस्य एवं समरसता बना कर रखती थी उसका पूरा ध्यान रखा जाता था। देश की पराधीनता के दौर में भी मद्रास के गर्वनर रहे थामस मुनरो ने कहा था, ”हो सकता हैं, भारतीय सुशासन के सिद्धांत और व्यवहार में उतने परिपक्व न हो, लेकिन अगर एक अच्छी कृषि-प्रणाली की बात हो, अगर बेहतरीन विनिर्माण की बात हो, अगर पढ़ने-लिखने के लिए स्कूलों की बात हो, अगर सामान्य व्यवहार और आतिथ्य की बात हो, और इन सब गुणों को सभ्य समाज का अपरिहार्य कारक माना जाता हो- तो मैं यह कह सकता हूँ कि हिन्दू सभ्यता के मामले में कही भी युरोपीय लोगों से पीछे नहीं हैं।” दिनांक 2 फरवरी 1835 को लार्ड मैकाले ने ब्रिटिश पार्लियामेंट में कहा था- ”मैं भारत की सभी सीमाओं और क्षेत्र में व्यापक स्तर पर यात्रा किया हूँ, वहां मुझे कही भी एक भी भिखारी देखने को नही मिला, कही भी एक चोर देखने को मिला। मैने इस देश में जो समृद्धि देखी, जो उच्च नैतिक मूल्य देखे- उससे नहीं लगता कि हम इस देश को लम्बे समय तक विजित बनाये रख सकते हैं। ऐसी स्थिति में जब तक हम इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत की बैकबोन यानी रीढ़ को नहीं तोड़ देते।“ 
वही यह निर्णायक मोड़ हैं जहाँ से हमारी शिक्षा पद्धति की अधा: पतन शुरू हुआ। क्योकि मैकाले ने ब्रिटिश राज में एक ऐसी शिक्षा शुरूआत कराई, जो हमें सास्कृतिक विरासत से अलग-थलग ही नही करती थी, बल्कि उसके प्रति घृणा और अवमानना भी उत्पन्न करती थी। मैकाले ने देश में एक ऐसी शिक्षा-पद्धति चलवाई जो अंग्रेज भक्त बाबू मात्र पैदा करती थी। स्वतंत्र भारत में भी कुछ ऐसा ही दौर चलता रहा। उस शिक्षा में हमारी विरासत, सांस्कृतिक राष्ट्रीयता जो हिन्दुत्व का पर्याय हैं, उसके लिए कोई स्थान नहीं था। उसमें मैकेयावेली के लिए तो स्थान था, पर चाणक्य के लिए कोई जगह नहीं थी। जबकि राष्ट्रों के स्वाधीनता के मामलों में उसकी सांस्कृतिक विरासत का सवाल सबसे पहले होता है। उस समय के प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू जब यह कह रहे थें कि मैं दुर्घटना-वश हिन्दू हूँ, तो वह पूरे देश को अपनी विरासत से अलग-थलग कर रहे थे। चाणक्य या कौटिल्य मात्र अर्थशास्त्री नहीं, बल्कि एक महान यथार्थवादी राजनीतिक चिंतक थे। उन्होने राज्य के उचित प्रबंधन, प्राकृतिक संसाधन, समाज-कल्याण के कार्यों, ग्रामीण, शिक्षा, कृषि, भूमि व्ययस्था, सिंचाई की आधारभूत संरचना सभी पर जोर दिया हैं। उन्होंने बहुत पहले भ्रष्टाचार को राज्य का सबसे बड़ा शत्रु बता दिया था। (उल्लेखनीय है कि स्वतंत्र भारत में इसी के चलते हम अपेक्षित प्रगति नहीं कर पाए) कल्याणकारी राज्य के तर्ज पर बच्चों, बूढ़ो, असहायो, संतानहीन महिलाओं की जीवन-निर्वहन भत्ता देने की बात की, इसीके तहत दासों को कार्य करने की शर्त तय करने के साथ उन्हें अधिकार देने की बाते कहीं। उपभोक्ता संरक्षण, श्रम कानून, वित्तीय मामलों में भ्रष्टाचार को लेकर अर्थशास्त्र में विस्तार से चर्चा की। (तभी तो मेगस्थनीज को भारत में दास दिखे ही नहीं) इसी तरह से हमारी शिक्षा प्रणाली में गैलेलियो को तो पर्याप्त स्थान मिला, पर आर्यभट्ट जैसे खगोल शास्त्री को नहीं, जिन्होंने पांचवी सदी में ही सौर मण्डल में ग्रहों के चालन की पूरी अकाट्य गणना कर दी थी- जिसकी ईरानी विद्धान अलबरेमी ने 500 वर्षें बाद भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए अपने देश के विद्धानों को बताया था। जब 1000 साल बाद गैलेलियो और कोपरनिकस सूर्य को स्थिर और पृथ्वी को चक्कर लगाने की बाते करते हैं, तो यूरोप के शासक उन्हें सजा देते हैं क्योंकि यह उनके 1500 वर्षें के धार्मिक विश्वास की चूलें हिला देती है। इस स्थिति में यह भी देखा जा सकता है कि सहिष्णु और उदार कोन था ? भारत या यूरोप। 
पर हमारी शिक्षा प्रणाली में आयुर्वेद, योग को भी कोई स्थान नहीं मिला और इन्हें हिन्दुत्व से जोड़कर कालवाह्य बता दिया गया। नैतिक शिक्षा और राष्ट्रीय चरित्र निर्मित करने वाली शिक्षा की ओर भी हमारे शासकों का ध्यान नहीं गया। सबसे बड़ी विडम्बना तो इतिहास के साथ हुई, क्योंकि इसका नियंत्रण साम्यवादियों के पास था। तभी तो जब 8वीं सदी से लेकर 12वीं सदी तक इस्लाम आधे यूरोप तक छा चुका था, तब मुस्लिमों के दुर्धष आक्रमणों का सफल प्रतिरोध करने वाले राजपूत युग को अंधकार युग बताकर इतिहास से बहिष्कृत कर दिया गया। स्वामी विवेकानन्द ने जहाँ छत्रपति शिवाजी को भारतीय चेतना का मूर्त रूप कहा, वहीं हमारे इतिहासकारों ने पहाड़ी चूहा और विश्वासघाती बताकर चिन्हित किया। स्वतंत्रता के लिए वनो और पहाड़ों की खाक छानते हुए भी बकबर जैसे साम्राज्यवादी से न झुकने वाले महाराणा प्रताप को एक बागी बता दिया गया। दुर्भाग्य का विषय यह कि हमारी शिक्षा पद्धति में उस ’स्व‘ का विचार नहीं किया गया, जिसके लिए पण्डित दीनदयालय उपाध्याय ने कहा है कि ”बिना उसके स्वराज का कोई अर्थ नहीं, स्वतंत्रता हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बना सकती। जब तक हमें अपनी वास्तविकता का पता नहीं, तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उसका विकास ही संभव है। परतंत्रता में समाज ’स्व‘ दब जाता है, इसीलिए राष्ट्र स्वराज्य की कामना करते हैं, जिससे वे अपनी प्रकृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सके।“ लेकिन हमारे शासकों ने अपनी प्रकृति को पहचाना ही नहीं, और न उसे शिक्षा-व्यवस्था में कोई स्थान दिया। फलत: पूरी शिक्षा व्यवस्था, बोझिल, अनुत्पादक, स्वकेन्द्रित और मूल्यहीनता का पर्याय बन गई। ऐसी स्थिति में मोदी सरकार ने अपने 2014 के लोकसभा के चुनावी घोषणा-पत्र की प्रतिबद्धता के आधार पर यदि शिक्षा नीति पर व्यापक परिवर्तन करने जा रही है, तो उसका स्वागत होना चाहिए। वस्तुत: नई शिक्षा नीति में अंतराष्ट्रीय स्तर पर युवाओं को प्रतिर्स्पधी परिवेश देने जा रही है ताकि दुनिया की नई चुनौतियों के समक्ष युवा अपने को ढ़ाल सके और उसका मुकाबला कर सके। नई शिक्षा नीति कौशल विकास पर पूरा फोकस करेगी जो मोदी सरकार का शुरू से ही प्रयास रहा है। इसके आधार पर ही भयावह बेरोजगारी की समस्या से देश को निजात मिल सकती है। कौशल-विकास की दिशा में यदि समुचित रूप से काम हो सके तो युवा रोजगार ही नहीं सृजित करेंगे, वरन दूसरों को भी रोजगार दे सकेंगे। इसके साथ ही नई शिक्षा नीति में मोदी सरकार समुचित नवोत्मेषी अनुसंधान पर भी जोर देगी। इससे जहाँ तरक्की के नए रास्ते खुलेंगे, वहीं देश विकसित देशों के साथ कदमताल करता नजर आएगा, वहीं रोजगार के नए अवसर भी सृजित होंगे। बड़ी बात यह कि नई शिक्षा नीति में संगीत, दर्शन, कला, नृत्य के साथ योग को भी महत्व मिलेगा। जबकि अभी तक इन्हें गौढ़ विषय समझाया जाता था। वस्तुत: ये ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ हमारे युवा प्रवीणता हासिल कर बेहतर कैरियर बना सकते हैं। योग को तो पूर्ववर्ती सरकारों ने एक तरह से हिंदुत्व से जोड़कर उसका सम्प्रदायीकरण ही कर दिया था। पर अब मोदी सरकार और स्वामी रामदेव के अथक प्रयासों के चलते पूरे विश्व में योग का डंका बज रहा है। योग और प्राणायाम हिन्दुत्व की देन भले हो, लेकिन इससे पूरे विश्व का कल्याण हो सकता है। सभी कालेजों में म्यूजिक और थिएटर होंगे ताकि युवाओं के मनोमस्तिस्क को परिमार्जित और संस्कारित किया जा सके। 
नई शिक्षा नीति में एक जो बड़ा क्रान्तिकारी परिवर्तन होगा, वह यह कि अब बोर्ड परिक्षाए रटने के आधार पर नहीं, कितना ज्ञान प्राप्त हुआ है, इस पर होंगी, जिसके राष्ट्र जीवन में दूरगामी परिणाम होंगे। यदि ज्ञान का इस्तेमाल करना आ गया तो शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं राष्ट्र जीवन में भी गुणात्मक परिवर्तन आएंगे। बड़ी बात यह कि अब सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक सभी दृष्टियों से समग्र मूल्यांकन पर जोर दिया जाएगा। लाख टके की बात यह कि पांचवी तक बच्चों की पढ़ाई मातृभाषा या स्थानीय भाषा में दी जाएगी जिससे बच्चों पर अतिरिक्त बोझ न पड़े और उनका सहज-स्वाभाविक विकास हो सके। इससे अंग्रेजी को लेकर अभिभावकों में जो अतिरिक्त मोह है, वह भी दूर हो सकेगा। सरकारी और निजी कालेजों के लिए एक मापदण्ड होंगे। निजी स्कूलों की मनमानी औरी भारी-भरकम फीस पर रोक लगेगी। निजी कालेज जो रूपये बटोरकर डिग्री बांटने और लूट का धंधा करते हैं, वह बंद हो सकेगा। कामन इंट्रेस एक्जाम के माध्यम से सही प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा और राष्ट्रहित में उनका उपयोग हो सकेगा। छठवीं कक्षा के बाद रोजगारपरक शिक्षा पर केन्द्रित किया जाएगा, जिसकी मांग देश में विगत कई दशकों से चल रही है। तकनीकी कालेजों में भी आर्ट्स और ह्यूमनिटीज की कक्षाएं संचालित हो सकेगी। इसका मतलब यह कि तकनीकी शिक्षा लेने वाले विद्यार्थियों में भी कला और संगीत के प्रति रूझान हो सकता हैं, जिसका उसे मौका मिलना चाहिए। महान वैज्ञानिक आईन्स्टीन, आर्यभट्ट, रवीन्द्रनाथ टैगोर ऐसे ही व्यक्तित्व थे, जो बहुमुखी की प्रतिभा के धनी थे। कुल मिलकर शिक्षा अब बोझ नहीं, रूचि और आनन्द का विषय होगी। जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा- ”यह शिक्षा नीति भारत के सपनों को समेटे हुए हैं। यह 130 करोड़ भारतीयों का रिफलेक्शन है। यह लार्निंग, रिसर्च और इनोवेशन पर फोकस करता है। अलबत्ता जो लोग इस शिक्षा नीति में भगवाकरण का प्रयास अथवा संघ का एजेण्डा बता रहे हैं, उन्हे पता होना चाहिए कि 2014 के चुनावी घोषणा पत्र में भाजपा ने शिक्षा नीति में बदलाव की बात कही थी, इस तरह से शिक्षा नीति को जनादेश प्राप्त हैं। जिस पर उंगली उठाने का किसी को अधिकार नहीं। संघ विरोधियों को यह पता होना चाहिए कि संघ का कोई निजी, व्यक्तिवादी या स्वार्थ से प्रेरित एंजेडा नही हैं। बल्कि एक महान और शक्तिशाली भारत बनाने का एजेंडा हैं। इस शिक्षा नीति से हम अपने प्रकृति का साक्षात्कार कर स्वतंत्रता का सच्चे अर्थों में साक्षात्कार कर सकेंगे और राष्ट्र को दुनिया के अग्रिम पंक्ति के राष्ट्रों में खड़ा कर सकेंगे।  
(लेखक-वीरेन्द्र सिंह परिहार)

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