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(एक आत्मचिन्तन) न्यायपालिका पर सवालिया निशान क्यों.....? 

(एक आत्मचिन्तन) न्यायपालिका पर सवालिया निशान क्यों.....? 

भारत प्रजातंत्र चार स्तंभों पर अवस्थित है- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व अघोषित स्तंभ खबरपालिका। मूलत: प्रारंभिक तीन स्तंभों को लेकर ही स्वस्थ व चिरजीवी प्रजातंत्र की कल्पना की गई थी, किंतु पिछले सत्तर सालों में इनमें से दो स्तंभ विधायिका व कार्यपालिका अपने दायित्वों का निर्वहन निष्ठा व ईमानदारी से नहीं कर पाए, जिसके कारण भारतीय लोकतंत्र के निवासी भारतीयों की आशा विश्वास का केन्द्र न्यायपालिका ही बन गई और इस आशा विश्वास की न्यायपालिका ने ईमानदारी से रक्षा भी की, किंतु अब पिछले कुछ समय से न्यायपालिका के प्रति जो आस्था व विश्वास की मजबूत मीनार खड़ी थी, उसमें कई जगह दरार नजर आने लगी और अब वह दरार दिनों-दिन न सिर्फ चौड़ी होती जा रही है, बल्कि उसके कारण प्रजातंत्र के महल को खतरा भी नजर आने लगा है। 
यद्यपि विधायिका के सदस्यों की तरह न्यायपालिका के न्यायाधीशों को भी नियुक्ति के समय ईमानदारी, निष्ठा व संविधान की शपथ दिलाई जाती है, किंतु अब धीरे-धीरे विधायिका व उसकी सहायक कार्यपालिका इतनी निरंकुश होती जा रही है कि उसने न सिर्फ स्वतंत्र न्यायपालिका को गलत तरीकों से प्रभावित करने की कोशिशें की, बल्कि कई बार इस स्तंभ पर भी अपना अधिकार जताने की कोशिशें की, जबकि हमारे संविधान में तीनों स्तंभों की पृथक-पृथक कार्यक्षेत्र सीमाएँ तय की गई है तथा प्रत्येक स्तंभ को कहा गया है कि वह दूसरे स्तंभ के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करें, पिछले सत्तर सालों में सत्ताधीशों ने अपनी सुविधा के अनुरूप संविधान में सवा सौ से भी अधिक संशोधन कर दिए हो उन्हीं सत्ताधीशों ने हर समय न्यायपालिका की स्वंतत्रता पर कुठाराघात करने का भी प्रयास किया, यही नहीं संविधान की भावना के खिलाफ उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों को राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों पर नियुक्तियाँ देकर न्याय खरीदने की कोशिशें भी की गई और इसी कारण अब न्यायपालिका की निष्पक्षता विवादों के घेरे में आई, जिसका ताजा उदाहरण पीएम केयर्स फण्ड को लेकर ताजा फैसला और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम अधिवक्ता प्रशांत भूषण पर मानहानि का प्रकरण है। पीएम केयर्स फण्ड व प्रशांत भूषण द्वारा कथित मानहानि ये दोनों प्रकरण राजनीति के दायरें के है, जिन पर सुप्रीम कोर्ट का नजरिया साफ नजर आया है। पीएम केयर्स फण्ड वाले मामले के पीछे कांग्रेस सहित सभी प्रतिपक्षी दल है, तो प्रशांत भूषण के पीछे डेढ़ दर्जन सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश व तीन सौ के करीब देश के वरिष्ठ अधिवक्ता है, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र सौंपा है। 
अब जहां तक पीएम केयर्स फण्ड का सवाल है, प्रधानमंत्री जी ने 22 मार्च 2020 को इसकी स्थापना कर कोरोना पीड़ितों की सहायता के लिए इस कोष की स्थापना की, जिसे खर्च करने का पूर्ण दायित्व प्रधानमंत्री को सौंपा गया, इसका प्रतिपक्षी दलों ने विरोध किया व इसके खर्च करने का दायित्व एक विधिवत कमेटी गठित कर उसे सौंपने की मांग की। अर्थात्् प्रतिपक्षी की इस मांग के पीछे प्रधानमंत्री की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाना रहा होगा, मामला सुप्रीम कोर्ट में ले जाया गया और सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के पक्ष में फैसला सुना दिया। ऐसी ही कुछ चर्चा प्रशांत भूषण के मामले को लेकर है, क्योंकि प्रशांत भूषण जी कांग्रेस से जुड़े है। 
यहाँ मेरा इरादा माननीय सुप्रीम कोर्ट व उसके माननीय न्यायाधीशों की कार्यप्रणाली पर कोई आक्षेप लगाना कतई नहीं है, किंतु यह तो एक कटु सत्य है कि देश की आवाम का विधायिका व कार्य पालिका की तरह अब न्यायपालिका से भी धीरे-धीरे विश्वास कम होता जा रहा है। इस पर समय रहते सभी पक्षों को गंभीर चिंतन कर दुरूस्त करने का व न्यायपालिका के प्रति पूर्ववत आस्था कायम करने के प्रयास करना चाहिए। 
(लेखक-ओमप्रकाश मेहता )

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