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उत्तम शौच - चक्कर लोभ और लाभ का  ( जैन दस लक्षण धर्म विशेष)

उत्तम शौच - चक्कर लोभ और लाभ का  ( जैन दस लक्षण धर्म विशेष)

साफ और स्वच्छ दर्पण में उभरने वाला प्रतिबिम्ब स्वच्छ होता है। दर्पण के मलिन होने पर उसमें हमारी स्वच्छ छवि प्रतिबिम्बित नहीं होती। शान्त और स्वच्छ जल में हम अपना प्रतिबिम्ब देख सकते हैं, उसका अनुमान कर सकते हैं, लेकिन गन्दा जल हमारे किसी काम का नहीं। वैसे ही गन्दा मन भी हमारे किसी काम का नहीं। जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए स्वच्छता व सफाई जरूरी है। इसी सफाई का नाम शौच धर्म। ‘‘शुचेर्भावं शौचम्‘‘ शुचिता के भाव को शौच कहते हैं। आत्मा की विशुद्धि के लिए चित्त के दर्पण की स्वच्छता जरूरी है।
पवित्रता अपेक्षित है, स्वच्छता होनी चाहिए। बाहर की स्वच्छता का हम दिन-रात ध्यान रखते हैं। अपने शरीर की स्वच्छता में पूर्णतः जुटे रहते हैं। हर क्षण उसके साज-सम्हाल में तत्पर रहते हैं, लेकिन बाहर की सफाई, सफाई नहीं, मन की सफाई ही सबसे बड़ी सफाई है। तन को नहीं, मन को साफ करो, हमने आज तक तन को साफ किया है, मन अछूता रहा है। शौच धर्म मन को परिमार्जित करने का धर्म है।
इच्छा कभी तृप्त नहीं होती, किन्तु कोई मनुष्य उसे त्याग दे तो वह उसी क्षण पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। इच्छायें आकाश के समान अनन्त हैं। इच्छाओं को कोई कितनी भी पूरी करने की कोशिश करे, वे कभी पूरी नहीं होती है। कुछ करना ही है तो इच्छा पूर्ति का एक ही मार्ग है संतोष। यदि संतोष आपको प्राप्त हो जाये, तो संभव है धर्म की ओर आपकी कुछ प्रवृत्ति हो सके। अन्यथा आपकी ये सब योजनायें आपके साथ ही जायेगी। आपाधापी के इस युग में हर व्यक्ति धन का दीवाना बना हुआ है। आज के सामाजिक मूल्य भी अर्थप्रधान बन गये हैं। आज के संदर्भ में यह कहा जाता है कि अर्थ है, तो कुछ अर्थ है, अन्यथा सब व्यर्थ है। इसी अर्थ की लिप्सा में वह न जाने कितना अनर्थ कर डालता है। अर्थ के लोभी मनुष्य को उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे का कुछ भान नहीं होता। धन भाईयों के हृदय में घ्रणा पैदा कर देता है, धन परिवारों में विवाद उत्पन्न कर देता है, धन मित्रों को अलग-अलग कर देता है और गृह युद्धों का जनक भी धन है। धन संपदा से महत्वपूर्ण जीवन है। संतों ने कहा है ‘‘जड़ धन की नहीं जीवन धन की चिंता करो‘‘। 
गरीब वही है जिसके अंदर तृष्णा है। धन के अभाव में भी व्यक्ति के मन में यदि संतोष है तो वह सुखी रह सकता है। गरीबी नहीं तृष्णा दुष्कर्मों की जननी है। मनुष्य पाप अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नहीं करता। पाप का कारण उसके मन में पल रही आकांक्षाऐं और तृष्णा है। हर मनुष्य जानता है कि धन सम्पदा उसके साथ जाने वाली नहीं है, उसे यह भी पता है कि मैं यदि अपने पुत्र-पौत्रों के लिये जोड़कर जाऊँ तो वे उसका उपभोग करें ही, यह जरूरी नहीं है। कुछ लोग भविष्य की चिन्ता में बड़े व्याकुल रहते हैं। भविष्य की चिन्ता में अपने वर्तमान को खोना बुद्धिमानी नहीं है। लोभी मनुष्य की वृति बड़ी विचित्र होती है। उसे अपने जीवन से भी अधिक धन की चाह होती है। ऐसे लोग ‘‘चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए‘‘ के सिद्धांत पर चलने वाले होते हैं। धन को जीवन निर्वाह का साधन मानकर चलना चाहिये। धन जीवन का साध्य नहीं है। धन जीवन की आवश्यकता हो सकती है पर अनिवार्यता नहीं। सन्त कहते हैं जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक धन का संचय करो, पर उसे आसक्ति का रूप मत लेने दो। धन की आसक्ति मनुष्य को एक ऐसे अन्धकूप में ढ़केल देती है जिससे निकल पाना बहुत कठिन होता है। अपेक्षा है धन की आवश्यकता और अनिवार्यता के अन्तर को समझने की, साध्य और साधन के भेद को जानने की। तभी जीवन को समृद्ध और सुखी बनाया जा सकता है। 
धन जीवन का साध्य नहीं है, धन जीवन की आवश्यकता हो सकती है, पर अनिवार्यता नहीं। संत कहते हैं जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक धन का संचय करो, पर उसे आसक्ति का रूप मत लेने दो। धन की आसक्ति मनुष्य को एक ऐसे अंधकूप में ढकेल देती है जिससे निकल पाना बहुत कठिन होता है। अपेक्षा है धन की आवश्यकता और अनिवार्यता के अंतर को समझने की, साध्य और साधन के भेद को जानेंगे तभी जीवन समृद्ध और सुखी होगा यही उत्तम शौच धर्म है।
नोट:-लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष है।
 (लेखक - विजय कुमार जैन)
 

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