लोकतंत्र में भटके नेतृत्व को दिशा निर्देश एवं संकटकाल की स्थिति में महत्वपूर्ण निर्णय की पृष्ठभूमि पर राष्ट्रपति एवं राज्यपाल पद की सार्थकता को दर्शाती है। परन्तु तत्कालीन बदलते राजनीतिक परिदृश्य में इस महत्वपूर्ण पद की गरिमा दिन पर दिन धूमिल एवं उपेक्षनीय पृष्ठभूमि से जुड़ती चली जा रही है। जहां स्वहित में उभरते टकराव एवं तनावमय स्थिति इस गरिमापूर्ण पद को भी संदेह के कटघरे में खड़ा कर बदनाम कर डालते हैं। ऐसे हालात में देश एवं राज्यों का सर्वोपरि यह पद प्रथम नागरिक होने का गौरव भी खो देता है। इस पद पर इस तरह के व्यकित को आसीन होना चाहिए जो निष्पक्ष भाव से सर्व एवं राष्ट्रहित में महत्त्वपूर्ण निर्णय ले सके।
भारतीय लोकतंत्र में देश में राष्ट्रपति एवं राज्य में राज्यपाल का पद सर्वोपरि है परन्तु इस पद के अनुरूप इसकी गरिमा व मर्यादा का खयाल सही मायने में किसी को भी नहीं है। दिन प्रतिदिन इस पर होते राजनीतिक प्रहार से सर्वोपरि इस पद की गरिमा धूमिल ही होती जा रही है। जहां से स्वतंत्र निर्णय लेने की पृष्ठभूमि को भी सदैव खतरा बना हुआ है। और जब कभी इस पद ने स्वतंत्रता की सांस लेने की कोशिश भी की है या अपने पद के अनुरूप अपने आपको पहचानने की चेष्टा की है, उसे कुंठित ही होना पड़ा है। सर्वशक्तिमान सा समझे जाने वाले सर्वोपरि इस पद की सारी शक्ति आज भारतीय लोकतंत्र के आधार स्तम्भ विधायिका के नीचे दबकर रह गयी है। जहां से इसके निर्जीव मूर्तिमान सा स्वरूप को साफ-साफ देखा जा सकता है। कभी-कभी इन सब परिस्थितियों के कारण इस तरह के महत्वपूर्ण पद भी अब मतभेद के दायरे में आने लगे हैं। भारतीय लोकतंत्र में सर्वोपरि राष्ट्रपति पद का चुनाव जनता के द्वारा सीधे न होकर जनप्रतिनिधियों के द्वारा किया जाना एवं राज्यपाल का केन्द्र में संचालित सत्ताधारी राजनीतिक दल के इसारे पर राष्ट्रपति द्वारा मनोयन किया जाना ही इस तरह की परिस्थितियों का कारण बन जाता है। जहां सर्वशक्तिमान सर्वोपरि पद की गरिमा एवं शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है। जहां विधायिका ही आज सर्वोपरि होती दिखाई दे रही है।
आजादी के बाद गणतंत्र भारत के लोकतंत्र में देश में राष्ट्रपति चुने जाने एवं राज्यों में राज्यपाल मनोयन की प्रक्रिया में आजतक कोई बदलाव नहीं आया जबकि केन्द्र की सत्ता बार - बार बदलती रही। देष के इन दोनों सर्वोपरि पद पर चयन प्रक्रिया में केन्द्र में सत्ताधारी राजनीतिक दल का ही वर्चस्व हावी रहता है। इस प्रक्रिया के चलते राष्ट्रपति व राज्यपाल दोनों पद पर आसीन का अपने हित में प्रयोग करते आसानी से देखा जा सकता। जिससे जिन राज्यों में सत्ताधारी राजनीतिक दल केन्द्र में शासित सत्ताधारी राजनीतिक दल के विपरीत होता है वहां आये दिन उभरे विवाद को देखा जा सकता। इस दिषा में देश एवं राज्य में समय समय पर घटित राजनीतिक उतार चढ़ाव की घटनाओं को देखा जा सकता है जहां किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं हांता उस हालात में इन पदों पर आसीन द्वारा केन्द्र शासित राजनीतिक दल के इसारे पर उसे मदद देने की पूरी कोशिष होती जिसके कारण देश के सर्वोपरि पद पर आसीन की गरिमा विवादों उलझकर धूमिल हो जाती। यदि इन पदों का चयन सीधे आमजनता द्वारा किया जाता तो ये पद कभी विवादास्पद नहीं होते । पर आज की
विधायिका इस तरह के प्रसंग को बदले, कहीं संभव नहीं दिखाई देता।
देश की आमजनता द्वारा सर्वोपरि पद का चयन नहीं किये जाने से इन पदों पर आसीन व्यक्ति की गरिमा को सदैव ठेस पहुंची है। यह स्थिति उस समय और अशोभनीय हो जाती जब केन्द्र की सत्ता बदलते ही राज्यों के राज्यपाल तत्काल बदल दिये जाते। राष्ट्रपति जिस तरह से देश का प्रथम नागरिक होता है राज्यपाल भी राज्य का प्रथम नागरिक माना जाता है। देश में केन्द की सत्ता बदलते ही राज्य के प्रथम नागरिक के साथ जो अशोभनीय आचरण उभर कर सामने आजतक आया है, लोकतंत्र के पृष्ठ को सदा कलंकित करता रहा है। इस तरह का परिवेश भविष्य में न उभरे, यह तभी संभव है जब राष्ट्रपति का चुनाव देश की आमजनता एवं राज्यपाल का चुनाव राज्य की आम जनता करे।
(लेखक.डॉ. भरत मिश्र प्राची )
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राष्ट्रपति एवं राज्यपाल का चुनाव जनता करे।