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क्या आज आपातकाल जैसा दौर आ गया है...! 

क्या आज आपातकाल जैसा दौर आ गया है...! 

आज के दौर को 1975 की आपातकाल से भी ज्यादा भयानक दौर बताया जा रहा है। सी.ए.ए व एन.आर.सी. के आंदोलन के खिलाफ जिन देश की समाजसेवी महिलाओं, कलाकारों, चिकित्सकों, नाट्यकर्मियों ने गांधीवादी तरीकों से आंदोलन में सहयोग किया था उन्हें सियासतदां के इशारों पर दिल्ली पुलिस व उत्तर प्रदेश पुलिस आतंकवादी बताकर जेलों में डाल रही है। यही सब 1975 के आपातकाल में 45 साल पहले इन्दिरा गांधी, संजय गांधी, बंसीलाल विद्याचरण शुक्ल आदि ने किया था। उस दौर में मीडिया या टी.व्ही. चैनल आदि नहीं थे। 
भारत में कोविड के दौर में लगातार अर्थव्यवस्था गिरती जा रही है। करोड़ों युवाओं की नौकरियां चली गई हैं। हजारों लोग आत्महत्यायें कर रहे हैं। 60 हजार लोग कोविड-19 से काल के गाल में समा चुके हैं। चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है और केन्द्र सरकार व उसकी पार्टी की राज्य सरकारें व उनके नेता विधायकों को खरीद कर अपनी सरकारें बनाने में जुटे हैं। सरकारों के इशारों पर देश के लगभग 90 फीसद टी.व्ही. चैनल दो महीने से मुम्बई के फिल्मी कलाकार सुशांत सिंह के मामलों को घंटों दिखाकर ये बताने पर तुले हैं कि बेरोजगारी नहीं है, महंगाई नहीं है बस है तो सिर्फ सुशांत सिंह की हत्या का मामला। इतनी सी साधारण घटना को देशव्यापी घटना बताना सरकारों से मिलकर आम जनता को बेवकूफ बनाना धोखा देना माना जाता है। 
इन्दिरा ने राजाओं को सौंप दी 
अब तो सरकार के खिलाफ जरा सी भी बात कहने पर दिल्ली में व उत्तर प्रदेश में पुलिस राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत प्रोफेसर्स से लेकर डॉक्टर्स तक को जेलों में डालती दिखाई दे रही है। शायद इतना जुल्म इन्दिरा गांधी के राज में भी नहीं हुआ था। इन्दिरा गांधी तो एक भीड़ की नेता रही हैं। उन्होंने भारत में सबसे पहले गांधी वाद को नकार कर सामंती राजाओं महाराजाओं को सत्ता सौंप दी थी। आज वही पूर्व राजा उनकी कांग्रेस को खा गये और उन्हीं को आंखें दिखाने लगे हैं पर आज के दौर के नरेन्द्र मोदी, अनूप शाह तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्त्ता हैं। उनके संस्कार तो सामंती इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी से बेहतर होने चाहिए थे पर वो तो गांधी परिवार से भी कुछ ज्यादा दिल्ली के छात्रों के साथ दिल्ली पुलिस के माध्यम से जुल्म करते क्यों दिखाई दे रहे हैं क्या दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों मुसलमानों पर जुल्म करके उन्हें निराश करना भी संघ का एक खास एजेन्डा कहा जा सकता है। संघ के मुख्यालय नागपुर से ही डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भी जन आंदोलन चलाया था। उन्हें 190-40 के दौर में चन्द एक फीसदी ऊँचे सामंतों व कुछ ऊँची जाति के लोगों व मुस्लिमों का सहयोग भी मिला था। डॉ. अम्बेडकर ने अछूतों को डटकर अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखा दिया था। काशीराम का दलित पिछड़ों का आंदोलन भी डॉ. अम्बेडकर के विचारों को आगे बढ़ाने वाला कहा जा सकता है पर आज के दौर में संघ परिवार की मनुवादी व्यवस्था के चलते उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश के ज्यादातर बहुजन बहन मायावती के कमजोर होते नेतृत्व से निराश दिखाई दे रहे हैं। इस सब का लाभ कांग्रेसी व   भा.ज.पा. को जरूर राजस्थान, मध्य प्रदेश में मिलता देखा जा रहा है। 
अम्बेडकरवादी सक्रिय जरूर हैं 
डॉ. अम्बेडकर के लोग आज भी 10-12 फीसद तक सक्रिय हैं। उनके विचारों को फेसबुक, वाट्सअप से फैलाते देखे जा रहे हैं पर गांधी नेहरू के विचारों वाले लोग गायब हैं। मात्र एक फीसद तक ही लोगों में गांधीवाद सिमटता देखा जा रहा है वरना कांग्रेस की ये हालत न होती। संघ परिवार वालों ने भी कहीं-कहीं गांधी के फोटे पर कब्जा जरूर कर लिया है। विचार तो गांधी जी के सिर्फ दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान या 30 जनवरी मार्ग या राजघाट तक सिमट गये हैं। राहुल, प्रियंका गांधी कभी-कभी उनकी बातें जरूर करती दिखाई देती हैं। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह या राजस्थान में या फिर छत्तीसगढ़ में वहां के मुख्यमंत्री लोग कभी-कभी गांधीवादी बातें कर बैठते हैं। जयप्रकाश नारायण से जन्मे लालू प्रसाद यादव, शरद यादव तो हांसिये पर आ ही चुके हैं। आज के दौर की विचार धारा तो अवसरवाद, जातिवाद ही बची है जो कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी ने इसकी फसलें खूब बोयी हैं। पता नहीं चलता कौन सा कांग्रेसी नेता सत्ता के लिए भाजपाई हो जाये या कोई महाराजा अपनी सम्पत्तियां बचाने हेतु कब अपनी पार्टी का दामन छोड़ सत्ता का दूसरा मजबूत केन्द्र से जा लिपटे, आज कांग्रेस ने जो बोया था वही वो काट रही है। 
(लेखक - नईम कुरेशी)
 

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