यह सवाल लेखक का नही, बल्कि देश का आम जागरूक नागरिक केन्द्र सरकार की मौजूदा भूमिका को लेकर सामने रख रहा है, हमारे पूर्वज कवि चाहे शासकों को यह मंत्र दे गए हो कि- ”निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय“ किंतु शायद आज की राजनीति में यह मंत्र निरर्थक सिद्ध हो गया है, आज सरकार संसद में वही सब करने को आतुर है, जो तानाशाही सरकारों में अमूमन होता आया है, प्रतिपक्ष की अनुपस्थिति या वाद-विवाद के दौरान ध्वनिमत के नाम पर वे सभी विधेयक पारित कराये जा रहे है, जिन्हें प्रतिपक्ष या कानूनविदों ने देशहित में नहीं बताया। पहले विपक्ष के ’वॉकआउट‘ का फायदा उठाकर किसानों से सम्बंधित तीन विधेयकों को उच्च सदन में बिना किसी मतदान या ध्वनिमत के पारित घोषित कर दिया गया, जिसकी संसद के एक पूर्व महासचिव ने भी आलोचना की, और सब विवादित मजदूर विधेयक भी इसी हंगामें की श्रृ‘ंखला में पारित करवा लिये गए। यदि भारी विरोध के बावजूद भी सरकार के मन चाहे विधेयक पारित हो रहे है तो फिर संसद की जरूरत ही क्या है, संविधान में बहुमत के आधार पर संशोधन करवाकर पार्टी सांसदों की बैठक आयोजित कर उसी में ऐसे विधेयक पारित करवा लिए जाए, प्रतिपक्ष का जब कोई अर्थ या महत्व ही नहीं समझा जा रहा है तो फिर संसदीय औपचारिकता का क्या अर्थ है? क्या ऐसे कदमों में अभिवृद्धि होगी?
देश की आजादी के अब तक के सत्तर वर्षों में तो हर सरकार की यह परम्परा रही है कि कोई भी बड़ा फैसला यदि सरकार समूचे देश से सम्बंधित लेना चाहती थी तो वह राज्यों से भी उस फैसलें के बारे में राय या सुझाव लेती थी, फिर वह चाहे नेहरू, इंदिरा या राजीव, नरसिंह राव की कांग्रेसी सरकारें हो या मान्यवर अटल बिहारी वाजपेयी की, सभी ने राज्य सरकारों व प्रतिपक्ष को पूरा सम्मान दिया है, किंतु अब उस परम्परा का निर्वहन क्यों नहीं हो पा रहा है, यही आज सबसे बड़ा और अहम्् सवाल है।
इस अहम्् सवाल के साथ ही एक और अहम्् और महत्वपूर्ण सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि सरकार इतनी जल्दबाजी में क्यों है? मोदी जी की प्रथम सरकार के कार्यकाल में तो विश्वव्यापी दौरों के द्वारा अमेरिका सहित अन्यान्य देशों से सम्बंध मधुर बनाने के अलावा कुछ नहीं हुआ और अब अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी जी इतनी जल्दबाजी में नजर आ रहे है कि वे मान्य परम्पराओं को भूलते या उनकी जानबूझकर उपेक्षा करते नजर आ रहे है और कहा यह जा रहा है कि सरकार कथित जनहित के फैसलों का कीर्तिमान स्थापित कर रही है और इसके लिए तीन तलाक प्रथा के खात्में, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म करने, अयोध्या राम मंदिर आदि को गिनाया जाता है, जबकि भारतीय भूमि पर चीन, पाक या नेपाल के अवैध कब्जें इन देशों के नक्शों में भारतीय भूमि का समावेश जैसे मुख्य मुद्दों पर किसी का कोई ध्यान ही नही है, इसके अलावा गैर भाजपाई सरकारों के संचालकों पर पूर्वाग्रहपूर्ण कार्यवाही भी अच्छे संकेत नहीं दे रही है। सरकार के इन सभी कदमों को जल्दबाजी में उठाए गए कदमों की संज्ञा दी जा रही है। अरे..... अभी इस सरकार के पास अपने कार्यकाल के करीब साढ़े तीन साल (45 महीनें) शेष है, देश की हर बला को टालने या उसे खत्म करने के लिए यह अवधि कम नहीं है, फिर यह सरकार जल्दबाजी में क्यों है, यही आम देशवासी की समझ से परे है।
यह सही है कि मोदी जी ने अपने कार्यकाल को ’स्वर्णिम‘ साबित करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण जनहित के फैसलें लेने का निर्णय कर रखा है, किंतु क्या यह जरूरी नहीं कि हर फैसले पर अंतिम निर्णय लेने से पहले सम्बंधित फैसले के हितग्राहियों को विश्वास में लिया जाए और पूर्व सरकारों की तरह प्रतिपक्ष को भी अहमियत दी जाए? किंतु आज पता नहीं ये सब सामान्य प्रक्रियाओं को अछूती क्यों बना दी गई है? वैसे मोदी जी व्यक्तिगत रूप से तो एक आदर्श राजनेता है, फिर उनके राज में यह सब किसके इशारें पर हो रहा है? यही आम भारतवासी की समझ से परे है।
(लेखक -ओमप्रकाश मेहता)
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विपक्ष अर्थहीन.....! क्या तानाशाही की ओर बढ़ रही है सरकार.....?