हमारे देश में जब किसी व्यक्ति का चयन किसी सरकारी सेवा के लिए हो जाता है तो उसे अपना चरित्र प्रमाण पत्र देना पड़ता है। उसे अपने रिहायशी क्षेत्र से संबध पुलिस थाने से एक अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना पड़ता है जिसमें पुलिस यह लिख कर देती है कि उस के विरुद्ध किसी तरह का आपराधिक मुक़दमा नहीं चल रहा है तथा उसका चरित्र व चाल-चलन ठीक है। यानी यदि पुलिस किसी तरह की नकारात्मक रिपोर्ट दे दे तो उस युवक की नौकरी भी ख़तरे में पड़ सकती है। यह वर्ग लोकतंत्र के चार स्तंभों में 'कार्यपालिका' वर्ग कहलाता है जो कि पूरे देश की सरकारी व्यवस्था को संचालित करता है। कार्यपालिका में हर तरह की सेवाओं के अलग अलग शैक्षिक मापदंड भी होते हैं। विभिन्न सेवाओं में आयु संबंधी मापदंड भी निर्धारित हैं। कई सेवाओं में शारीरिक मापदंड भी निर्धारित हैं। कई सेवाओं में अनुभव भी देखा जाता है। अधिकांश सेवाओं में प्रशिक्षण देने के बाद ही सेवा शुरू करने का अवसर दिया जाता है। इस व्यवस्था में अनुशासनहीनता करने या किसी आरोप में नाम आने पर नियमानुसार सेवा से निलंबित करने यहाँ तक कि सेवा मुक्त करने तक की भी व्यवस्था होती है।
यदि क्रम वार देखा जाए तो न्यायपालिका,कार्यपालिका,विधायिका तथा मीडिया के क्रम में विधायिका तीसरे स्थान पर तो ज़रूर है परन्तु स्वयंभू रूप से राजनीति के राष्ट्रीय नेटवर्क ने विधायिका को सर्वोच्च समझना शुरू कर दिया है। और दुर्भाग्यवश विधायिका या संसदीय व्यवस्था में दाख़िल होने के लिए ऐसी किसी योग्यता या आयु प्रमाण पत्र अथवा चरित्र प्रमाण पत्र की ज़रुरत नहीं जो कार्यपालिका के किसी भी विभाग में छोटे से छोटे पद पर सेवा करने हेतु ज़रूरी होता है। बल्कि कहना ग़लत नहीं होगा कि नीतियाँ व क़ानून बनाने वाली इस व्यवस्था में प्रायः नकारात्मकता को ही योग्यता का पैमाना माना जाता है। भारतीय फ़िल्म उद्योग भी हमारे देश की इस कड़वी परन्तु सच्चाई बयान करने वाली हक़ीक़त पर अनेक फ़िल्में बना चुका है जिसमें यहाँ तक दिखाया जा चुका है कि किस तरह अपराधी,माफ़िया व गैंगस्टर सफ़ेद पोश बनकर देश के नीति निर्माताओं की भूमिका अदा करते हैं। इस हक़ीक़त से रूबरू करने वाले असंख्य आलेख,कविताएं,व्यंग्य,कटाक्ष,कार्टून्स,फ़िल्मी गीत सब कुछ लिखे जा चुके हैं। देश की छोटी से लेकर बड़ी आदालतें तक अनेक बार इस हक़ीक़त को उजागर करते हुए कई फ़ैसले व टिप्पणियां दे चुकी हैं। संसद से लेकर विभिन्न विधान सभाओं तक कितने माननीय ऐसे हैं जो देश की विधायिका व्यवस्था पर बदनुमा दाग़ हैं इसकी विस्तृत सूची भी अक्सर मीडिया में प्रकाशित होती रहती है। परन्तु विधायिका के स्वयंभू ठेकेदारों को इन सब बातों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
हमारे देश में दंगाइयों को संरक्षण दिया जाता है। न केवल संरक्षण बल्कि उन्हें पुरस्कार स्वरूप विधान सभा,लोकसभा के चुनाव में अपना प्रत्याशी बनाया जाता है। चुनाव जीतने पर मंत्री पद से नवाज़ा जाता है। यूँ समझिये की जिसने जितना बड़ा दंगा कराया व जितने अधिक लोग दंगों में मारे गए उसे उतना ही बड़ा रुतबा दिया जाता है तथा दंगे भड़काने वाले ऐसे नेता को उतना ही बड़ा व प्रभावशाली नेता माना जाता है। दक्षिण भारत का एक विधायक जिसे पिछले दिनों फ़ेस बुक ने प्रतिबंधित करने की घोषणा की उसकी यू ट्यूब पर वी डी ओज़ देखें तो अधिकांश वी डी ओ में वह समुदाय विशेष को बुरा भला कहता,चुनौती देता व अपमानित करता सुनाई देता है। परन्तु वह अपनी पार्टी का इतना दुलारा है कि वह हर बार पार्टी टिकट भी पाता है और चुनाव भी जीतता है। दिल्ली दंगों में पूरा देश देख ही रहा है कि किस तरह पुलिस बेक़ुसूरों को जेल भेज रही है और दंगा भड़काने वालों को संरक्षण दे रही है। यदि निकट भविष्य में दिल्ली के भाजपा नेता कपिल मिश्रा को पार्टी कोई बड़ी ज़िम्मेदारी दे या दिल्ली चुनाव उन्हीं के चेहरे पर लड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि इस समय देश में विधायिका के सर्वोच्च समझे जाने पदों पर बैठे अनेक लोगों पर गंभीर अपराध के अनेक छींटे पड़े हुए हैं। भले ही अपने रसूक़,क़ानूनी तिकड़मबाज़ी,ऊँचे वकील,झूठ व दहशत का वातावरण पैदा कर वे सज़ा याफ़्ता होने से बच गए हों परन्तु इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि उन्होंने अपराध नहीं किया या अपराध को संरक्षण नहीं दिया अथवा उसकी साज़िश में शामिल नहीं हुए।
अब दल बदल को ही ले लीजिये। देश की आम जनता नेताओं के स्वार्थ पूर्ण व असैद्धांतिक दल बदल को अच्छी नज़रों से नहीं देखती। अन्यथा दलबदलू,अवसरवादी या पलटी बाज़ जैसे शब्दों का चलन न होता। आज लगभग प्रत्येक पार्टियों के नेता केवल अपनी कुर्सी व पद के लिए ही एक दल से दूसरे दल में जाते हैं। परन्तु उस दलबदलू को नया दल कितना सम्मान देता है यह भी देश देखता रहता है। इनका कोई सिद्धांत नहीं होता इन्हें केवल पद चाहिए। जो पार्टी इन्हें कुर्सी का प्रस्ताव दे वही इनका सिद्धांत व विचारधारा है। गत दिनों बंगलौर के युवा सांसद तेजस्वी सूर्या को अखिल भारतीय जनता युवा मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया। यह बचपन से ही आर एस एस की शाखाओं में जाया करते थे। शायद यही वजह है कि मुस्लिम विरोध इन्हें संस्कारों में हासिल हुआ है। अनेक बार यह अपने विवादित बयानों के लिए सुर्ख़ियाँ बटोर चुके हैं। इन्होंने अरब देशों की महिलाओं के बारे में कुछ ऐसी अभद्र बातें की थीं कि मध्य पूर्व के कई देशों के नेतृत्व ने सीधे प्रधानमंत्री को इनके बयानों के संबंध में अपना विरोध आपत्ति दर्ज कराई थी। गोया इनके बयानों से देश को शर्मिंदा होना पड़ा था। परन्तु पार्टी के शीर्ष द्वारा उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई करना या बयान देना तो दूर उल्टे आज उन्हें संगठन में बड़ी ज़िम्मेदारी दे दी गयी है। बिहार के आगामी चुनावों में संभवतः वे कुछ ऐसे ही पूर्वाग्रही व विभाजनकारी बयान देते भी दिखाई दे सकते हैं।
इसी तरह पिछले दिनों देश का एक छद्म टी वी चैनल जो कई वर्षों से देश में सांप्रदायिक दुर्भावना फैलाने में सक्रिय है,अचानक उस समय सुर्ख़ियों में आ गया जबकि उसके स्वामी व संपादक ने संघ लोक सेवा आयोग के पारदर्शी तरीक़ों पर सवाल उठाया तथा समुदाय विशेष को अपमान जनक तरीक़े से निशाना बनाया। निश्चित रूप से देश की न्यायपालिका ने तो उसपर लगाम कसने का काम किया परन्तु पिछले दरवाज़े से सरकार ने उसे बचने व उसके पक्ष में खड़े होने का अपना 'फ़र्ज़ ' निभाया। इसी वाद विवाद में पड़कर सुर्ख़ियों में आने के बाद आज उस टी वी चैनल की गिनती देश के प्रमुख टी वी चैनल्स में हो चुकी है। बदक़िस्मती से देश की राजनीति में इस प्रकार के सैकड़ों ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाएंगे जबकि नकारात्मकता ही योग्यता बन जाती है। और सुसंस्कार,सदभावना,सौहार्द,योग्यता,शराफ़त व सामाजिक एकता की बातें करने वाले देश के वास्तविक हित चिंतक अयोग्य साबित कर दिए जाते हैं। भारतीय समाज को एकजुट होकर पूरे देश को नकारात्मकता की बढ़ती जा रही प्रवृति व इसे मिलती जा रही मान्यता जैसे वातावरण से निजात दिलाने की ज़रुरत है।
(लेखिका- निर्मल रानी )
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जब नकारात्मकता ही योग्यता बन जाए?