जयप्रकाश जी को लोकनायक का संबोधन देश की जनता ने 1974 में दिया था, जब उन्होने बिहार आंदोलन और उसके बाद समूचे देश में सम्पूर्ण क्रांति के नाम से आंदोलन का नेतृत्व किया था। निस्संदेह 1974 का आंदोलन आजादी के बाद के देश में हुये आंदोलनों में सबसे व्यापक था। 1874 की रेल हड़ताल जो शायद दुनिया की सबसे बड़ी हड़ताल थी, के हिस्सेदार देश के 20 लाख कर्मचारी थे। परन्तु जे. पी. के आंदोलन में शारीरिक और मानसिक भागीदारी करोड़ों लोगों की थी।
1952 के संसदीय आम चुनाव के बाद जिसमें तत्कालीन सोशलिस्ट पार्टी पराजित हुई थी। जे. पी. जो समाजवादी नेता थे, पार्टी व राजनीति छोड़कर सर्वोदय में चले गये थे। डॉ. लोहिया जो 1940 के दशक से जे. पी. के समतुल्य समाजवादी नेता थे और जयप्रकाश और लोहिया का नाम समाजवादी कार्यकर्ताओं के लिये आदर्श समाजवादी नाम थे। यहाँ तक कि समाजवादी आंदोलन के नारों में भी लोहिया और जयप्रकाश के नारे साथ साथ ही लगते थे।
लोहिया, जयप्रकाश की व्यापक छवि और प्रभाव को समझते थे और इसीलिये अपनी मृत्यु के कुछ दिनो पूर्व डॉ. लोहिया ने पटना में भाषण देते हुये जयप्रकाश जी का पुन: समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व करने का आवाहन किया था। लोहिया ने कहा था कि “ जयप्रकाश, तुम देश को हिला सकते हो बशर्ते खुद न हिलो “ और इस दूसरी पंक्ति का तात्पर्य जे. पी. की भावुकता से था।
1974 में गुजरात के नौजवानों ने छात्रावासों के भोजनालयों में भोजन की थाली के बढ़े दाम के विरूद्ध आंदोलन शुरू किया था और जो धीरे धीरे समूचे प्रदेश के छात्रों का आंदोलन बन गया। रविशंकर महाराज जो गुजरात के सर्वमान्य गांधीवादी नेता थे, ने आंदोलन की अगुवाई की थी और स्व. मोरारजी भाई देसाई ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार जिसके मुख्यमंत्री चिमनभाई थे, को बर्खास्त करने की मांग की थी और अनिश्चित कालीन उपवास शुरू किया था। श्रीमति इंदिरा गांधी जो प्रधानमंत्री थी, को जनता के दबाब में अपनी ही पार्टी की सरकार को बर्खास्त करना पड़ा। इस आंदोलन में शामिल होने को जब जे. पी. पहुँचे तो उन्हे स्वत: ही एक प्रकार का आत्मविश्वास प्राप्त हुआ और उन्होने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि गुजरात के नौजवानों ने मुझे नई रोशनी दिखाई है। गुजरात से लौटने के बाद ही जे.पी. ने बिहार के छात्रों के आंदोलन की अगुवाई की और बिहार आंदोलन के नाम से शुरू हुआ आंदोलन लगभग समूचे देश में फैला। हालांकि इसकी सघनता उत्तर भारत, पश्चिमी भारत और पूर्वी भारत में जितनी ज्यादा थी उतनी दक्षिण भारत में नही थी।
जे.पी. ने सम्पूर्ण क्रांति का अर्थ व्यवस्था में सम्पूर्ण बदलाव कहा था और स्व. डॉ. लोहिया के द्वारा दुनिया में बदलाव के लिये तय की गई सप्त क्रांति का सगुण कार्यक्रम माना था।
जे.पी. ने सम्पूर्ण क्रांति के आंदोलन की अगुवाई करते समय जिन कार्यक्रमों पर तत्कालीन रूप से ज्यादा जोर दिया था उनमे चुनाव सुधार, भ्रष्टाचार की समाप्ति, विकेन्द्रीकरण, मंहगाई को रोकना, बेरोजगारी और राजकीय दमन और काले कानून की समाप्ति प्रमुख रूप से थी। जे. पी. के इस आंदोलन में समाजवादी तो अपनी सम्पूर्ण भावना के साथ थे क्योंकि उनका जे. पी. के साथ लगभग 35 वर्षों का कार्यात्मक और रागात्मक लगाव था। समाजवादी साथियों ने कभी भी जे.पी. को अलग नही माना और सर्वोदय में जाने के बाद भी वे समाजवादियों के लिये पूर्ववत मान्य नेता थे। सर्वोदय के वैचारिक रूप से दो हिस्से हो गये थे और जो लोग विनोवा जी को अपना अंतिम वाक्य मानते थे उन्हे छोड़कर एक बड़ा हिस्सा जे. पी. के साथ संघर्ष में आया। बावजूद इसके कि विनोवा जी अन्यानिक कारणों से आंदोलन के हक में नही थे। वामपंथियों में भी बँटवारा हुआ था और सी. पी. आई. कांग्रेस के साथ थी परन्तु सी. पी. एम. और अन्य मार्क्सवादी धड़े इस आंदोलन के सहभागी थे। भारतीय क्रांतिदल जिसका नेतृत्व स्व. चरण सिंह, बीजू पटनायक, राजनारायण और कर्पूरी ठाकुर अपने अपने राज्यों में करते थे, सम्पूर्ण तौर पर सम्पूर्ण क्रंाति के आंदोलन का हिस्सेदार था क्योंकि भारतीय क्रंातिदल में भी राजनारायण और कर्पूरी जैसे समाजवादी नेताओं की बड़ी ताकत थी। जनसंघ और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ भी अपने निर्णय के माध्यम से इस आंदोलन में सहभागी बने। जब जनसंघ और संघ इसका हिस्सेदार बना तो तत्कालीन सरकार के इशारे पर प्रचार तंत्र ने यह कहकर आंदोलन को विभाजित करने का प्रयास किया था कि जे. पी. के आंदोलन में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ जैंसी संस्थायें जो फासिस्ट हैं, शामिल हैं। तत्कालीन सरकारी पार्टी की ओर से कुछ लोगो ने जे. पी. को राष्ट्रद्रोही की संज्ञा भी दी थी और जे. पी. ने उत्तर देते हुये कहा कि अगर में राष्ट्रद्रोही हो जाऊँगा तो इस देश में कोई राष्ट्रभक्त नही बचेगा। यह उनका अपनी राष्ट्रभक्ति के प्रति गहरा विश्वास था। जे. पी. यह जानते थे और उनका विश्वास इतना गहरा था कि देश कभी भी उनके राष्ट्र प्रेम, लोकतांत्रिक और धर्म निरपेक्ष चरित्र पर शक नही करेगा। जे. पी. को यह भी विश्वास था कि इस आंदोलन में शामिल होने से नई युवा शक्ति का उदय होगा और जो राजनैतिक दल शामिल हुये थे उनके स्वभाव और चरित्र भी बदलेंगे। अपने इसी विश्वास के आधार पर जे. पी. ने 1977 के आम चुनाव के पूर्व सबको मिलाकर एक जनता पार्टी का गठन कराया। केवल सी. पी. एम. ने अपना पृथक अस्तित्व बचाये रखा। हालांकि जनता पार्टी जिसकी सरकार चुनाव के बाद केन्द्र में बनी और अनेक राज्यों में बनी से जे. पी. को धोखा हुआ, उनका विश्वास खंडित हुआ। जनता पार्टी सरकारों ने जे. पी. के सम्पूर्ण क्रंाति आंदोलन के मुद्दे को लेकर लगभग कुछ भी नही किया और केवल सत्ता और संगठन के कब्जे के अंतरखेल में ही पार्टी फंसी रही। जनसंघ के जो लोग सरकारों में आये थे उन्होने सरकारों को चलाना ही अपना लक्ष्य समझ लिया और जिस बदलाव की उम्मीद जे. पी. ने की थी उसे निराशा में बदल दिया। दो घटनाओं का मैं विशेष उल्लेख करूँगा -:
1. बिहार सरकार के जनसंघ और संघ पृष्ठभूमि के मंत्री श्री दीनानाथ पांडे, नाथूराम गोडसे के भाई श्री गोपाल गोडसे को लेकर बिहार में दौरा करने लगे और गांधी जी की हत्या को उचित ठहराने लगे।
2. 26 जून 1979 को पटना में जे. पी. का अभिनंदन कार्यक्रम था और एक सम्पूर्ण क्रांति सम्मेलन रखा गया था। इस सम्मेलन में मैं स्वत: भी शामिल था तथा तत्कालीन सर संघ संचालक स्व. बालासाहब देवरस इस सम्मेलन में जे. पी. का अभिनंदन करने आये थे। उनका भाषण जो टेप भी है और 27 जून 1979 के पटना के समाचार पत्रों में छपा भी है वह तथ्य को समझने के लिये महत्वपूर्ण है। स्व. देवरस ने अपने भाषण में कहा था कि ”मैं अक्सर संघ कार्यों के लिये यात्रा में रहता हूँ अत: मैं नही पढ़ सका या जान सका कि सम्पूर्ण क्रंाति क्या है? परन्तु जे. पी. जैंसे महान व्यक्ति जब उसकी चर्चा कर रहे हैं तो मुझे लगता है कि वह कुछ अच्छी ही बात होगी“। क्या बाला साहब का यह कथन मुद्दों से बच निकलने का कथन नही था। 1977 के चुनाव के पूर्व आपातकाल में वे स्वत: जेल में थे और क्या उन्हे इतनी लम्बी अवधि में सम्पूर्ण क्रांति के बारे में पढ़ने या जानने का अवसर नही मिला होगा ?
जो मुद्दे सम्पूर्ण क्रांति के मुद्दे थे वे अभी भी लगभग अनिर्णीत है - बेरोजगारी चरम पर है, भ्रष्टाचार और मंहगाई चरम पर है, चुनाव सुधार यद्यपि टी. एन. शेषन ने कुछ शुरूआत की थी परन्तु बड़े सुधार अभी भी लंबित है। आज केन्द्र में श्री नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री है और उनकी पार्टी की अकेले बहुमत की सरकार है। श्री नरेन्द्र मोदी जी, जे. पी. आंदोलन के मानसिक हिस्सेदार भी रहे हैं तथा समय समय पर जे. पी. की याद भी करते हैं और उसका उत्तर वे कैंसे देते हैं वही इतिहास में उनका स्थान तय करेगा। जो लोग आपातकाल में जेलो में रहे हैं या बाहर रहकर भी आपातकाल के खिलाफ संघर्ष में सहयोगी रहे हैं और जो विभिन्न प्रदेशों में दलीय सत्ताओं के आधार पर विभिन्न संगठनों में कार्यरत है आज उनके सामने भी यह चुनौती है।
प्रधानमंत्री से मेरी अपेक्षा है कि वे 11 अक्टूबर को जयप्रकाश जी के जन्मदिन के अवसर पर निम्न कार्यक्रमों की घोषणा करें -:
1. चुनाव सुधार लागू हों जिनमे समूचे देश के पंचायत से लेकर संसद तक याने जनपद, जिला पंचायत, सहकारी समितियाँ, सहकारी बैंक, विधानसभा और संसद तक एक साथ हो। हर पाँच वर्ष में एक माह चुनाव के लिये निर्धारित हो जिसमे सारे चुनाव एक साथ हों जिससे चुनाव खर्च भी सीमित होगा और देश का अमूल्य समय, धन और साधन भी बचेगा। साथ ही एक व्यक्ति केवल एक स्थान से ही चुनाव लड़ सके यह कानून बनाये।
2. बाजार की मंहगाई को रोकने के लिये “ दाम बाँधो “ नीति का एलान करें ताकि लागत खर्च और बाजार मूल्य में आखिरी छोर तक 50 पैसे से ज्यादा फर्क न हो।
3. कृषि उपजों के दो फसलों के बीच का उतार चढ़ाव 6 प्रतिशत से अधिक न हो, का कानून बने तथा खाद्यान्न की सुरक्षा और संधारण के लिये कृषक भंडारगृह जो किसान के ही घर मे हो योजना शुरू हो तथा क्षेत्रीय उत्पाद के आधार पर खाद्य प्रस्ंस्करण के क्षेत्रीय उद्योग लगाये जाने की घोषणा करें जिससे कुछ माह के अंदर ही देश में 30 - 40 लाख लोगों को रोजगार मिल सकता है।
4. लोकतंत्र को नियंत्रित या समाप्त करने वाले काले कानूनों को समाप्त किया जाये।
5. सभी बेरोजगारों को बेकारी भत्ता न्यूनतम 3 हजार रूपया और चयन परीक्षाओं के शुल्क को समाप्त करने की घोषणा करें।
अगर प्रधानमंत्री जी ये घोषणायें करेगे तो वह लोक नायक जयप्रकाश के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। आपातकाल के मीसाबंदियों या आपातकाल के विरूद्ध आंदोलन के सहयोगी मित्रों से मैं अपील करूँगा कि आज भी हमारा दायित्व इन बुनियादी सवालों के प्रति है और इसीलिये हमे दलीय खाकों से उपर उठकर अपने और पराये का भेद छोड़कर गीता को सम्मुख रखकर उपरोक्त कार्यक्रमों को पूरा कराने के लिये लड़ने की तैयारी करना होगी। सरकारों में बैठे लोग हमारे अपने है शत्रु नही है परन्तु नीति और कर्त्तव्य की पुकार है कि हम उन्हे प्रेरित करने और बाध्य करने के लिये पुन: सिविल नाफरमानी के मार्ग पर उतरें।
(लेखक - रघुठाकुर)