नई दिल्ली । बिहार विधानसभा चुनावों में वामपंथी दल भले ही इस बार महागठबंधन का हिस्सा हों लेकिन असल में उनके लिए यह अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई है। वामदलों की रणनीति राज्य एवं केंद्र सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को भुनाना है लेकिन सवाल यह है कि लगातार सिमट रहे वामदल इसमें कितने सफल हो पाएंगे। फिर, राज्य की जातीय राजनीति में केंद्र-राज्य की नाकामियों का वर्णन जनता में कितना प्रभाव डालेगा? एक वाम नेता ने कहा कि हम सिर्फ सीटें जीतने के लिए चुनाव नहीं लड़ते हैं। हम चुनाव में इसलिए भी उत्तरते हैं ताकि जो अहम मुद्दे हैं, उन्हें जनता के समक्ष रखा जा सके। हमारी उपस्थिति एक दबाव समूह का काम करती है। हारकर भी हम कामयाब होते हैं। वही बिहार में भी करेंगे। हम राज्य एवं केंद्र की विफलताएं जनता को बताएंगे। लोगों को बता रहे हैं कि किस प्रकार असल मुद्दों से ध्यान बंटाया जा रहा है। बेरोजगारी, आर्थिक विफलता, आतंकवाद एवं धर्म के नाम पर मतों के ध्रुवीकरण को बेनकाब करेंगे। पिछले चुनाव में वामदल महागठबंधन का हिस्सा नहीं थे और अलग चुनाव लड़े थे। नतीजा यह हुआ था कि सिर्फ तीन सीटें भाकपा-माले को मिली थीं। भाकपा और माकपा खाली हाथ रहे थे। इस बार तीनों दलों को गठबंधन मं 29 सीटें मिली हैं। माले 19, माकपा चार तथा भाकपा छह सीटों पर लड़ रही है। बिहार में किसी जमाने में भाकपा विपक्षी दल की भूमिका में हुआ करती थी। लेकिन पिछले चुनाव में उसका खाता तक नहीं खुल पाया था। अब वह कमजोर है। उससे ज्यादा मजबूत भाकपा माले है। 90 के दशक में लालू प्रसाद यादव की जातीय राजनीति के उभार से वामदल खत्म हुए थे लेकिन यह जातीय राजनीति आज भी कायम है। उल्टे जिस जातीय राजनीति के वे शिकार हुए उसी दल के साथ आज खड़े हैं। ऐसे में यह कितना असरदार होगा, नतीजे बताएंगे। हालांकि वामदलों का कहना है कि नई पीढ़ी जाति से अलग सोच रही है। नई पीढ़ी के मतदाता स्थितियां बदलेंगे। बिहार में वामदलों का वोट प्रतिशत पिछले कुछ चुनावों में तीन से चार फीसदी के बीच ही है। लेकिन जहानाबाद, बेंगूसराय, मिथिलांचल, सीवान, चंपारण, बरौनी आदि क्षेत्रों में उनकी पकड़ अच्छी है। ऐसे में यदि अच्छे उम्मीदवार हों तो महागठबंधन में उन्हें कई सीटों पर कामयाबी मिल सकती है। लेकिन सबकुछ इस बात पर निर्भर है कि वामदल अपने को किस प्रकार प्रस्तुत कर पाते हैं। दरअसल, वामदल राज्य में संगठन की कमी के साथ-साथ नेतृत्व के संकट से भी जूझ रहे हैं। कभी बड़े वाम नेताओं के गढ़ रहे बिहार में इस बार वामदलों की उम्मीदें स्टार प्रचारक कन्हैया कुमार पर टिकी हुई हैं।
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महागठबंधन में होगा बेड़ा पार