बहुत तरह के मानसिक भय हमें चारों तरफ से दबाए हुए हैं।उन्हें हमें पहचान लेना पड़ेगा।उन्हें हम बिना पहचाने छोड़ भी न सकेंगे।जिस भय को हम पहचान लेंगे, वह छूट जाएगा।लेकिन हम उन्हें पहचान नहीं पाते, नये-नये नाम दे देते हैं।और नाम धोखे के हैं।हम इतनी ज्यादा चालाकी में जिए हैं हजारों वर्षो में कि चीजों पर ठीक-ठीक नाम नहीं रहने दिये। हर डिब्बे पर नाम बदल दिया है। अंदर कुछ और है, ऊपर नाम कुछ और है।इसलिए खोज भी बहुत मुश्किल हो गई है कि कौन सी चीज कहां है। एक आदमी को हम कहते हैं- यह बहुत अच्छा आदमी है। और सौ अच्छे आदमियों में से अठानवे अच्छे आदमी अच्छे नहीं होते।सिर्फ डरे हुए लोग होते हैं और डर की वजह से अच्छे मालूम होते हैं।
मैं कहता हूं, मैं कभी चोरी नहीं करता।लेकिन अगर थोड़ी जांच-पड़ताल करूं तो पता चलेगा कि चोरी तो मैं भी करना चाहता हूं, लेकिन भय मुझे रोक लेता है।तब मैं अच्छा आदमी नहीं हूं, भयभीत आदमी हूं।लेकिन हम लेबल बदल देंगे। हमें पता ही नहीं चलता।एक आदमी कहता है, मैं बिल्कुल ईमानदार आदमी हूं। उसे थोड़ी जांच-पड़ताल करनी चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह बेईमान है और भयभीत है। यानी बेईमान भय, ईमानदार आदमी हो गया।लेकिन क्या यह ईमानदार की परिभाषा हुई? अगर कल उसे पता चल जाए कि एक दिन के लिए सब कानून उठा लिए गये और सब पुलिसवालों को छुट्टी दे दी गई और एक दिन के लिए कोई अदालत नहीं है, तब उसकी सारी ईमानदारी चली गई।यानी वह अब ईमानदार नहीं है। अच्छा आदमी इसीलिए कमजोर है।अक्सर ऐसा होता है कि अच्छा आदमी कमजोरी की वजह से अच्छा आदमी होता है।
और इससे उल्टा भी होता है कि बुरा आदमी अक्सर ताकत की वजह से बुरा हो जाता है।घर में एक बच्चा बिल्कुल गोबर गणोश हो तो मां-बाप कहेंगे-बहुत आज्ञाकारी है और दूसरा थोड़ा शक्तिशाली हो, तो कहेंगे- आज्ञा का उल्लंघन करता है, कहना मानता ही नहीं।लेकिन समझना जरूरी है कि गोबर-गणोश होना अच्छा होना नहीं है।हमने लेबल बदल कर लगाए हुए हैं। इसलिए जहां भय हैं वहां भी हम पकड़ नहीं पाते कि यह भय है।जहां हिंसा है, हिंसा पकड़ में नहीं आती।जहां घृणा है, घृणा पकड़ में नहीं आती।जहां प्रेम नहीं है, वहां पकड़ में नहीं आता।सब तरफ धोखा हो गया है।आदमी ने अपने भीतर की जो व्यवस्था की है, उसमें सब जगह गलत नाम लगा दिये हैं।
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(चिंतन-मनन) भय को पहचानो