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सतर्कता जागरुकता का प्रतिफल 

सतर्कता जागरुकता का प्रतिफल 

आइना वही रहता है चेहरे बदल जाते हैं....राजनीति का हश्र भी यही है, जिसमें चेहरे बदल जाते हैं परन्तु चरित्र नहीं बदलता। संस्कारों की बुनियाद पर परिष्कृत व्यक्तित्व का पथिक सत्ता के गलियारे से गुजरते ही मदमस्त हाथी के समान अपने ही बनाये मापदण्डों को रौंदता हुआ निकलता है। राष्ट्रवाद और राजनीति के चिंतक गोविन्दाचार्य की दृष्टि में ऐसे हाथी को नियंत्रित करने के लिए समाज का अंकुश जरूरी है। शायद इसलिए उन्होंनें अटलजी को मुखौटा कहा था। शास्त्रों से राजनीति में आते-आते धर्म की व्याख्या बदल गई है। महात्मा गांधी और दीनदयाल उपाध्याय के रामराज्य की अवधारणा को अवसरवादी ढाॅंचे में ढालकर व्याख्या की जाने लगी है। अर्थव्यवस्था, गरीबी और कर निर्धारण पर यूपीए-नीति सरकार का विरोध जिस जयप्रकाश, लोहिया, अटल और कुशाभाऊ ठाकरे ने किया था आज उनकी ही सरकार के कार्यकाल मंे विकास के कई मानकों पर भारत को बांग्लादेश जैसे गरीब देशों से बदतर स्थिति में ला दिया है। ऐसे में भी निर्वाचन आयोग ने सांसदों और विधायकों के लिए चुनाव खर्च दस फीसदी बढ़ा दिया है। अर्थात् अब विधानसभा उम्मीद्वार 28 लाख की जगह 30 लाख 80 हजार तथा लोकसभा प्रत्याशी 70 लाख की जगह 77 लाख रुपये खर्च कर सकेंगे। चुनाव खर्च में पारदर्शिता की अनिवार्यता लंबे समय से महसूस की जाती रही है। दरअसल चुनावों में धनबल का प्रदर्शन अब खुले आम होने लगा है। शराब, साड़ी, गहने, नगदी, बर्तन आदि बांटने का चलन सा हो गया है। क्योंकि यह गुप्त तरीके से होता है अतएव आयोग उन खर्चों को चुनावी खर्च में जोड़ पाने में असमर्थ रहे हैं। वैसे भी दागी उम्मीद्वारों की तरह देश में बाहुबलियों का वर्चस्व रहा है जिससे उनके लिए संविधान से अलग विशेष न्याय की व्यवस्था रही है। जब इस तरह से खर्च कर जनप्रतिनिधि सदन में पहुंचता है तो उसका संव्यवहार परिवर्तन स्वभाविक है, चाहे वह लोकहित में सदन में पूछे जाने वाले सवाल ही क्यों न हों? 
आज देश की नीतियां विकास के अंतिम छोर पर खड़े जन के हित को ध्यान में रखकर भले ही बनाई जा रही है लेकिन जब तक सत्ता स्वयं को बचाने के लिए अपनों के हितों का तुष्टिकरण करती रहेगी तब तक महान विचार दंत्तोपंत ठेगड़ी के ‘‘देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम’’ के साथ न्याय नहीं कर सकती। साम्यवाद की आंधी को चीरकर दक्षिणपंथ के अनुगामियों का तिलिस्म उस समय टूटा जब उनके ही प्रधानमंत्री के उत्तरदायी मंत्रालय सूचना और प्रसारण मंत्रालय के आकाशवाणी और दूरदर्शन के शीर्षस्थ प्रशानिक अधिकारियों की लोलुपता के कारण वर्ष 2013 में ठेकेदारों के चंगुल में फंसे आकस्मिककर्मी ‘यूज एण्ड थ्रो’ की तरह पारिश्रमिक के बदले अनुचित कमीशन देने को अभिशप्त हैं। जिसका हिसाब मांगने पर ‘किक’ के दंश से भयग्रस्त है। इस प्रकार अनैतिक गतिविधियो से त्रस्त असहाय नागरिक परिवार का भरणपोषण छूट जाने के भय से मौन है। शंघाई देशों के समक्ष भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत की प्रतिबद्धता और प्रधानमंत्री की सतर्कता जागरुकता ने जब हमें इस व्यवस्था से संघर्ष का संबल प्रदान किया तब इस पत्र के माध्यम से अपनी व्यथा कहने का साहस जुटा पा रहे हैं।   
(लेखक- राकेश कुमार वर्मा )

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