10 नवम्बर को बिहार विधानसभा के घोषित हुए चुनाव परिणाम वर्ष 2017 के गुजरात चुनाव परिणामों की याद ताजा करा देते हैं। उस वक्त अलगाववादी ताकतो के तरह-तरह के उपक्रमों के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस के जबड़ों से जीत छीन ली थी। कुछ ऐसा ही नजारा इस वक्त के बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों को लेकर है। एक्जिट पोल, सट्टा बाजार सभी यह मानकर चल रहे थे कि इस बार महागठबंधन की जीत और एनडीए की हार तय है। यह माने जाने के स्पष्ट और ठोस कारण थे। सबसे पहला कारण एम.वाई. (मुस्लिम-यादव) समीकरण था, जिसके बल पर लालू यादव ने बिहार में 15 वर्षें तक यानी वर्ष 1990 से 2005 तक राज किया। दूसरा बड़ा कारण नीतीश कुमार के विरूद्ध सत्ता विरोधी कारक था। तीसरा बड़ा कारण तेजस्वी यादव की 10 लाख नौकरियों की घोषणा थी। बावजूद इसके बिहार विधानसभा के चुनाव-नतीजे सामने आए, तो एनडीए को 125 सीटें और महागठबंधन को 110 सीटें ही प्राप्त हुई। इस तरह से 243 सदस्य विधानसभा में एनडीए को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया। यह बात अलग है कि अभी तक बडे भाई की भूमिका में रहने वाला जदयू ने 115 सीटों पर लड़कर मात्र 43 सीटें ही जीती और भाजपा 110 सीटें पर लड़कर 74 सीटों पर विजयी हुई। इस तरह से भाजपा नेतृत्व की प्रतिबद्धता के चलते नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ जाए, पर अब वस्तुत: जदयू, भाजपा के मुकाबले छोटे भाई की भूमिका में आ चुकी है। उल्लेखनीय हैं कि भाजपा का स्ट्राइक रेट जहां 67.22 रहा, वही जदयू का मात्र 37.39 प्रतिशत ही रहा। यद्यपि सबसे खराब स्ट्राइक रेट कांग्रेस पार्टी का मात्र 27.14 रहा।
बड़ा सवाल यह कि ऐसे कौन कारक रहे कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद एनडीए बहुमत में आ गया और तमाम संभावनाओं के बावजूद राजद के नेतृत्व में महागठबंधन सत्ता की दहलीज पर आकर रूक गया। निशचित रूप से इसका सबसे बड़ा कारण प्रधानमंत्री मोदी रहे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भाजपा को जदयू की तुलना में मिली सीटें हैं। वस्तुत: सत्ता में नीतीश की सहयोगी रहते हुए भी यदि भाजपा के विरूद्ध सत्ता-विरोधी कारक प्रभावी नहीं हुआ तो इसका एक मात्र कारण मोदी हैं। जनकल्याण की योजनाओं के अलावा कोरोना को जिस सफलता से उन्होंने विश्व के दूसरे देशों की तुलना में नियंत्रित रखा और चीन मामले में जिस तरह से 56 इंच सीने का उदाहरण प्रस्तुत किया, उसको लेकर लोगों में एक सकारात्मक भाव पैदा हुआ। तभी तो सिर्फ बिहार में ही नहीं, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक जैसे राज्यों के उपचुनावों में ही नहीं, मणिपुर और नागालैण्ड जैसे राज्यों में भी भाजपा को एकतरफा सफलता मिली। कुल मिलाकर 59 में 40 सीटें भाजपा को प्राप्त हुइंZ-जो मोदी फैक्टर का ही प्रभाव था। बिहार में इसका दूसरा कारण मतदाताओं में लालू राज के दौरान जंगलराज भी था, जिसमें अपहरण जैसे उस दौर में प्रभावी उद्योग लोगों के जेहन में थे। एनडीए सरकार की सफलता का तीसरा बड़ा कारण उसे महिलाओं में तुलनात्मक रूप से ज्यादा समर्थन मिलना भी रहा। घर-घर में गैस चूल्हा पहुचने, शौचालयों की सुविधा एवं शराबबंदी जैसे कदमों के चलते महिलाएं मूलत: एनडीए की पक्षधर रहीं। बताया जाता है कि महिलाओं ने पुरूषों की तुलना में 5 प्रतिशत ज्यादा वोट डाला, बडी संख्या में मुस्लिम महिलाओं ने भी चुपचाप एनडीए के पक्ष में मतदान किया। वस्तुत: मतदान के दौरान जिस साइलेंट वोटर की बात हो रही थी, वह यह महिलाएं ही थीं। प्रधानमंत्री मोदी ने तो महिलाओं को एनडीए का कोर वोटर तक बता दिया। महागठबंधन द्वारा अपनी पराजय का एक बड़ा कारण असुद्दीन ओवेसी को बताया जा रहा है। जिन्होने सीमांचल में 5 सीटे तो स्वत: जीत ली पर कई मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में राजद के वोट बैंक में सेंध लगा दी। पर यह तर्क तो लोजपा के बारे में भी दिया जा सकता है, जिसने एनडीए को कम से कम दो दर्जन सीटों पर हराने में भूमिका निभाई।
देखने की बात यह है कि जदयू की इतनी कम सीटों के होने के चलते क्या नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने को राजी होते हैं। फिर भी नीतीश मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते है, तो इतना तो तय है कि वह भविष्य में कोई एजेडा अपने आप पहले की तरह तक तय करने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसी स्थिति में भाजपा की लाइन पर चलने के अलावा उनके पास और कोई विकल्प नहीं है।
कुल मिलाकर कभी महाराष्ट्र में भी भाजपा, शिवसेना की तुलना में जूनियर पार्टनर थी। परन्तु वर्ष 2014 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने बदली हुई परिस्थितियों में शिवसेना के बराबर सीटें मांगी थी। परन्तु शिवसेना इसके लिए तैयार नहीं हुई। फलत: दोनो पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ी और शिवसेना को भाजपा की तुलना में आधी सीटें ही मिली।ं इसीलिए वर्ष 2019 में ऊधव ठाकरे ने भाजपा के जूनियर पार्टनर बतौर विधानसभा चुनाव लड़ा। पर स्वत: किसी तरह मुख्यमंत्री बनने की महात्वाकांक्षा के चलते हिन्दुत्व विरोधी पार्टियों की गोद में जाकर बैठ गए। कहने का तात्पर्य यह कि हार-जीत की बात अपनी जगह पर है, पर भाजपा एक बढ़ते क्रम की पार्टी है। उम्मीद है कि कुल मिलाकर नीतीश अपनी साफ-सुथरी छवि के चलते दूरगामी राजनीति भाजपा के साथ करना ही उचित समझेंगे।
वर्ष 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनावों में एक नारा मतदाताओं के बीच तेजी से फैला था। ’मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं।’ कमोवेश कुछ ऐसा ही माहौल इस बार बिहार विधानसभा के चुनावों में भी था। जिसका नतीजा चुनाव परिणामों में दिखा भी। कुल मिलाकर आज मोदी भाजपा की रामबाण औषधि हैं। लेकिन इससे ज्यादा बड़ा सच यह है कि यह भाजपा की ’नेशन फस्ट’Z या ’राष्ट्र सर्वोपरि’ जैसी विचारधारा एवं समर्पण जिसमें मोदी जैसे व्यक्तित्व भी समाहित हैं, उसकी विजय है।
(लेखक-वीरेन्द्र सिंह परिहार)
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मोदी तुझसे बैर नहीं .........