भारत ने परंपरागत चिकित्सा को आधुनिक रूप देने की कोशिश की है। आयुर्वेद शिक्षण एवं प्रशिक्षण संस्थान, जामनगर को राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के रूप में और राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर को विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया है।
आयुर्वेद,भारत की महत्वपूर्ण विरासत है जिसके विस्तार में पूरी मानवता की भलाई समाई हुई है। किस भारतीय को खुशी नहीं होगी कि हमारा पारंपरिक ज्ञान, अब अन्य देशों को भी समृद्ध कर रहा है। गर्व की बात है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ग्लोबल सेंटर फॉर ट्रेडिशनल मेडिसिन की स्थापना के लिए भारत को चुना है।
आयुर्वेद ट्रेडिशनल मेडिसिन का स्थान नहीं ले सकता। आयुर्वेद स्वयं भारत की अमूल्य निधि हैं। वर्तमान में कोरोना के कारण आयुर्वेद ने स्वास्थ्य के संरक्षण और चिकित्सा में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया ,जिसकी बदौलत आज विश्व स्वास्थ्य संगठन को मज़बूरी में मान्यता देना पडी। आयुर्वेद की बहुत पुरानी परम्परा और इतिहास हैं। आचार्य चरक ,सुश्रुत ,वाग्भट्ट आदि के द्वाराअपने शोधों के माध्यम से हजारों हजारों फार्मूला तैयार हैं जो समय के कसौटी में खरे उतरे हैं बस विशाल हृदय की जरुरत हैं जिनको आज के वैज्ञानिक तरीकों से प्रस्तुत किया जाना उचित हैं। जिसके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन कटिबद्ध हुआ।
आयुर्वेद द्वारा चिकित्सा के साथ जीवन शैली हैं जिसके माध्यम से हम अपनी जीवन शैली को हितकारी बनाकर सुखद जीवन यापन कर सकते हैं। यहमात्र जड़ी बूटी का विज्ञानं नहीं हैं। यह एक सम्पूर्ण जीवन को परोपकार भी देता हैं। आयुर्वेद अष्टांग आयुर्वेद हैंजिसमे दिन चर्या ,चिकित्सा ,शल्य शालयक स्त्री रोग ,कुमारभृत्य विष विज्ञान ,बाजीकरण रसायन आदि से समृध्द हैं।
वैसे चिकित्सा चार स्तम्भों पर आधारित हैं --चिकित्सक ,औषधि ,उपस्थाता और रोगी। इनमे सबके चार गुण होते हैं। इस प्रकार जिस प्रकार चन्द्रमा की सौलह कलाएं होती हैं तभी वह सम्पूर्ण माना जाता हैं उसी प्रकार चिकित्सक में चार गुण होते हैं ,उसी प्रकार औषधि ,उपस्थाता और रोगी में भी चार चार गुण होते हैं तभी चिकित्सा परिपूर्ण मानी जाती हैं।
पहली प्राथमिकता चिकित्सको के अध्ययन अध्यापन की हैं तथा सर्वसुविधाओं से युक्त हो यानी प्रयोगशाला ,अनुभवी पढ़ाने वाले योग्य चिकित्सक /शिक्षक ,के अलावा उनमे रूचि भी हो। उसके साथ आजकल अंकों के आधार पर जो चुनाव होता हैं उसमे कभी कभी उदासीन छात्र प्रवेश ले लेते हैं। इसके लिए आयुर्वेद की रूचि रखने वाले ,समर्पित लोगों को आवश्यकता हैं। आयुर्वेद में काम करना एक तप के समान होता हैं। अच्छे ज्ञान के साथ प्रत्यक्ष कर्माभ्यासके साथ रोगी के प्रति समर्पित और शुचिता होना चाहिए। शुचिता आंतरिक और बाह्य होना चाहिए। यानी औषधियां का परिचय और उनकी उपयोगिता के प्रति जानकार हों।
आचार्य चरक के द्वारा स्पष्ट कहा गया हैं की इस विश्व में जितनी भी वस्तुएं हैं सब औषधि हैं इसके अलावा कुछ नहीं वर्तमान में आयुर्वेद के अनुसार हज़ारो जड़ी बूटियां लुप्त हो चुकी हैं और अनेकों जड़ी बूटियों को पहचानने वाले नहीं बचे। वैसे सबसे अच्छी औषधियां वे होती हैं जो हिमालय जैसे श्रेष्ठ जगह की हो ,बहुलता से मिलने वाली हो ,कई रूपों में उपयोग करने वाली हैं। इसी प्रकार उपस्थाता यानी पेरा
मेडिकल स्टाफ यानी नर्सिंग सेवाएं के अलावा रोगी में चार गुण होने चाहिए यानी रोग बताने की शक्ति ,चिकित्सक का आज्ञाकारी ,स्वस्थ्य हो और जीने की इच्छा हों।
आज हमारे देश में औषघि निर्माण बहुत जटिल हैं । अनुज्ञापन के लिए अपनी एक प्रक्रिया हैं। लाइसेंस एक दिन ,एक सप्ताह और एक साल में मिलता हैं। अनुज्ञापन के बाद औषधि की गुणवत्ता पर हमेशा प्रश्न चिन्ह रहता है। पहली बात आज अनेकों द्रव्य उपलब्ध नहीं हैं उनकी जगह अनेक द्रव्यों की जगह दूसरे द्रव्यों का उपयोग करते हैं या स्थानीय स्तर पर उनके नाम कुछ कहे जाते हैं और अन्य स्थान पर अन्य नाम से पहचाने जाते हैं। आजकल उनके सत्व या एक्सट्रैक्ट्स का उपयोग करने का चलन शुरू हुआ हैं। जो प्रक्रिया कितनी प्रभावकारी हैं यहाँ एक प्रश्न चिन्ह हैं। जैसे पालक ५०० मिलीग्राम का कैप्सूल और १०० ग्राम पालक की भाजी का उपयोग में कितना लाभ हैं। भाजी में फाइबर मिलता हैं ,कैप्सूल में नहीं। आचार्य चरक के अनुसार जिस देश की औषधि ,उसी देश के वासियों को लाभकारी होता हैं। इस कारण आयुर्वेद औषधियां अन्य देश में उतनी प्रभावकारी /लाभकारी नहीं हो रही हैं। हाँ औषघियां की रसायन तत्व को ज्ञात कर उसका उपयोग करना कितना लाभकारी होगा।
देश के अंदर कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक द्रव्य अनेक नामों से जाना जाता हैं और उसका उपयोग अलग अलग होता हैं जैसे दक्षिण में रास्ना और उत्तर भारत में रास्ना को अन्य नाम से जाना जाता हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा बहुत महत्वपूर्ण दायित्व भारत को दिया हैं जो गौरव की बात हैं। इसके अलावा चिकित्सकों का महत्वपूर्ण भूमिका रहेंगी। चिकित्सकों का शस्त्र ओषधियाँ होती हैं ,और चिकित्सा लाभकारी और फलदायी होना चाहिए जिससे जनता और रोगी में विश्वास पैदा हो सकेगी। आज आयुर्वेद मतलब जड़ी बूटी का शास्त्र कहकर हीन दृष्टि से देखते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भारत के ऊपर एक महती जिम्मेदारी दी हैं। यह अब भारत की जिम्मेदारी हैं की वह संगठन की कसौटी पर खरा उतरे। इस काम में करने वालों पर लालफीताशाही हावी न होुर बजट सम्बन्धी कोई कमी न होने दे। शोधकर्ताओं से अपेक्षा वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में कमी न करेंगे।
यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी प्रधान मंत्री जी के स्वप्नों को पूरा कर सकेंगे। यह सब भविष्य के गर्भ में छुपा हुआ हैं। पर हम उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ ,
आयुर्वेद में प्रत्येक वस्तु औषधि हैं इसके अलावा कुछ नहीं .हम उनके बारे में नहीं जानते तब उन्हें उपेक्षित कर देते हैं पर जानकार उनका उपयोग औषधि के रूप में कर लेता हैं .वर्तमान में मानव जाति के द्वारा जन्म से ही अंग्रेजी औषधि का उपयोग करने से मानव शरीर पूर्ण रूप से रासायनिक हो चूका हैं .और जिसका इलाज़ मात्र रासायनिक दवाएं हैं .
आयुर्वेद औषधियां जब ही लाभकारी होती हैं जब हम अपनी दिनचर्या ,आहार चर्या आदि आयुर्वेद के अनुसार पालन करे .जिस कारन औषधियां कारगर नहीं हो पाती हैं .इसके अलावा जिस देश ,प्रान्त की पैदा होने वाली औषधियां उसी प्रान्त के लोगों के अनुकूल होती हैं .इसी कारण आयुर्वेद औषधीय विदेशों में लाभकारी नहीं हो पाती .इसके अलावा अनेकों औषधियां विलुप्त होने से प्रभावकारी और गुणवत्तायुक्त औषधियां न निर्मित हो रही हैं और जो बन रही हैं उनकी गुणवत्ता भी संदिग्ध होती हैं ,औषधि गुणकारी और प्रभावशाली न होने से रोगमुक्त करने में सफल होने से जन सामान्य पर उनका विश्वास नहीं होता हैं .दूसरा इलाज़ आधुनिक समय बिना मरीज़ देखे करने का प्रथा होने से असफल होने के अवसर बहुत होते हैं .क्योकि रोगी का इलाज़ प्रकृति के अनुरूप होना चाहिए तभी लाभप्रद चिकित्सा होती हैं .और चिकित्सक भी रोगी के प्रति संवेदनशील हो .
प्राचीन काल से ही विभिन्न पुराणों, ग्रन्थों एवं साहित्यिक रचनाओं में वनस्पतियों का उल्लेख होता रहा है। इन वनस्पतियों का वर्णन औषधियों, सौन्दर्य प्रसाधन, कृषि, भवन, श्रृंगार , वस्त्र, विधि— विधान, संस्कार, अनुष्ठान इत्यादि के रूप में किया जाता है। प्रकृति के अत्यन्त समीप होने से मनुष्य को वनस्पतियों के स्वभाव एवं उपयोगिता की बहुत अधिक जानकारी थी, आचार्यों एवं ऋषि, मुनियों ने जंगलों के प्राकृतिक वातावरण में रहकर ही इन वनस्पतियों का अध्ययन किया एवं ग्रन्थों की रचना की।
यदि वनस्पतियों की उपलब्धता एवं उत्पत्ति के इतिहास का अवलोकन किया जावे तो ज्ञात होता है कि अनेकों वनस्पतियां कालान्तर में लुप्त होती चली गई एवं केवल साहित्य एवं पुस्तकों में ही उनका वर्णन प्राप्त होता है। पर्यावरण परिवर्तन, अनियंत्रित दोहन, प्राकृतिक आपदा एवं वर्तमान में प्रदूषण जैसे कारणों के परिणाम स्वरूप ही ऐसा हुआ है। जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने भी इस दिशा में मानव कल्याण हेतु अपनी लेखनी चलाई एवं वनस्पतियों के अपने ज्ञान से जन—जन को लाभान्वित किया।
ऐसा प्रतीत होता है कि जैन शास्त्रों एवं पुराणों में वर्णित विभिन्न प्रकार के कल्प वृक्षों का नामकरण, शायद इन्हीं विभिन्न उपयोगों के आधार पर किया गया हो।
जैनाचार्यों की रूचि का कारण :—
जैन धर्म पूर्ण रूप से आत्मपरक एवं अहिंसा वादी रहा है जहां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी भी प्रकार की हिंसा का निषेध किया है। अत: भोजन एवं औषधियों के निर्माण हेतु ऐसी वनस्पतियों का चयन किया गया जो कि शुद्ध शाकाहार की श्रेणी में आती हैं एवं इनके उत्पादन में भी न्यूनतम हिंसा होती है। इन वनस्पतियों के उपयोग का परिचय प्राप्त होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि अहिंसावादी प्रवृत्ति ने ही जैनाचार्यों को इस दिशा में कार्य करने हेतु प्रेरित किया होगा। शायद इसी तारतम्य में आहार एवं औषधियों के अलावा जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी वनस्पतियों की उपयोगिता से संबंधित ज्ञान को लिपिबद्ध किया गया । साधु—वर्ग होता है जहां समाज के प्रत्येक प्रकार के गृहस्थ का सम्पर्क होता है। इसी सम्पर्क के कारण साधुओं को समाज की मानसिकता ज्ञात होती है। अत: यह भी संभव है कि सही दिशा-निर्देश एवं अहिंसक जीवन यापन के उद्देश्य से आचार्यों का सोच वनस्पतियों की दिशा में भी रहा होगा।
आचार्यों का योगदान:—
अनेक जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने वनस्पतियों की प्रकृति, उपयोगिता एवं उनकी भक्ष्य—अभक्ष्यता का वर्णन अपने ग्रन्थों में किया है। कुछ प्रमुख क्षेत्रों में जहां आचार्यों ने अपनी लेखनी चलाई है, निम्न हैं :—
(१) भक्ष्य एवं अभक्ष्य वनस्पतियां:—
अति प्राचीनकाल से ही इस प्रकार की वनस्पतियों का उल्लेख अनेक ऐसे ग्रन्थों में मिलता है जो कि आहारसहिंता से संबंधित है। अभक्ष्यों का निषेध सर्व प्रथम किसने किया ऐसा वर्णन नहीं प्राप्त होता है। शायद श्रुत परंपरा से ही इनका उल्लेख होता रहा है। फिर भी ‘धवला,’ ‘गोम्मटसार’ एवं ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ आदि ऐसे अनेक ग्रन्थ हैं जिनमें ऐसी वनस्पतियों का विशेष उल्लेख है।
उदाहरणार्थ— पंच उदम्बर, भूमिगत, बहुबीजी इत्यादि अभक्ष्यों की श्रेणी में रखी गई हैं।
आधुनिक जीव वर्गीकरण में फफूद एवं वेक्टीरिया (जीवाणु) इत्यादि को वनस्पतियों की श्रेणी में रखा गया है। अति सूक्ष्म एवं प्राय: दिखाई न देने वाली इस प्रकार की वनस्पतियों को जैनाचार्या ने भी अलग वर्ग में ही रखा। उनकी मान्यता थी कि निगोदिया आदि जैसे सूक्ष्म जीवों से युक्त पदार्थ अखाद्य होते हैं। जैनाचार्यों ने प्रारम्भ से ही ऐसे पदार्था को अभक्ष्य माना जिनमें ऐसे सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं जैसे कि— मर्यादा रहित— दही, अचार, आटा एवं अन्य भोज्य पदार्थ। इससे स्पष्ट है कि ऐसी सूक्ष्म वनस्पतियों का इन्हें समुचित ज्ञान था । बसुनन्दि कृत ‘श्रावकाचार’ में असेवनीय, अभक्ष्य वस्तुओं का पूर्ण निषेध किया गया है। ‘उपासक दशांग सूत्र’ में भी ऐसी अभक्ष्य वनस्पतियों का वर्णन है।
(२) श्रंगारिक वनस्पतियां:—
अनेक ग्रन्थों विशेष रूप से पुराणों में ऐसी अनेक वनस्पतियों का उल्लेख है जो या तो प्राकृतिक सौन्दर्य बढ़ाती थी अथवा नारियों द्वारा सोन्दर्य प्रसाधन के रूप में उपयोगिता थी। पद्म पुराण, हरिवंश पुराण, पाण्डव पुराण, महावीर पुराण, श्रेणिक चरित्र, सुदर्शन चरित्र, प्रद्युम्न चरित्र, सुकुमाल चरित्र इत्यादि में विभिन्न उद्यानों, वनों एवं प्रासादों का वर्णन आता है जहां कई प्रकार के वृक्ष, गुल्म, लतायें, झाड़ियां इत्यादि उपसिंचित थे। नारियां भी हल्दी, चन्दन, इत्यादि से उबटन कर गुलाब, चमेली , मोगरा, जूही, बेला, मालती इत्यादि के पुष्पों को शरीर पर धारण करती थीं। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्यों ने उस काल के मनुष्यों के रहन—सहन एवं वातावरण को दर्शाने हेतु ही श्रंगारिकता का वर्णन किया होगा । आम्रबंदनवारों, केले के तनों एवं पुष्प जल से निर्मित सुगंधित पदार्थों का वर्णन भी किया गया है। आचार्य कुमदेन्दु स्वामी विरचित ‘ग्रन्थराज सिरि भूवलय’ में अनेकों ऐसी वनस्पतियां वर्णित हैं जो कि शारीरिक सुंदरता हेतु प्रयुक्त होती थीं जैसे कि— नागचम्पा के पुष्पों से बनी रस मणि को काय—सौन्दर्य, आयु, शक्ति एवं यौवन वृद्धि हेतु प्रयुक्त किया जाता था। तीर्थंकर ऋषभ देव की पत्नी यशस्वती देवी ‘न्योग्रोध’ के पुष्पों को केशों पर धारण करती थीं।
कामदेव बाहुबलि भी इस पुष्प को धारण करते थे । भरत चक्रवर्ती की पत्नी कुसमा देवी ने भी अपने सभी अलंकरण न्योग्रोध पुष्प के पहिने थे। केतकी पुष्प को कामदेव बाहुबलि अपने हाथों में धारण करते थे।
चमत्कारिक एवं अर्थ प्राप्ति वनस्पतियां:—
’सिरि भूवलय’ ग्रन्थ में इस प्रकार की वनस्पतियों के कुछ उदाहरण निम्नवत् मिलते हैं :— (१) पनस पौधे से रसादि तैयार कर आकाश गमन हेतु प्रयुक्त करना।
(२) गिरिकार्णिका नामक पुष्प के रस पारा सिद्ध होता है जिसके द्वारा आकाश—पाताल गमन एवं चमत्कारिक कार्य किये जा सकते हैं ।
(३) अशोक पुष्प के रस को सिद्ध कर, तैयार रसमणि की सहायता से रवेचस्व सिद्धि, जलगमन, दुलेरी इत्यादि क्रियाओं में उपयोग।
(४) मादल (बिजौरा) के पुष्प पद्मावती देवी के सिर के स्पर्श से प्रभावशाली हो जाते थे। इन पुष्पों से अनेक चमत्कारिक कार्य करने का वर्णन उल्लिखित है। इसके पुष्पों के रस को सिद्ध करने की विधि का ‘पारस रस सिद्ध’ नाम दिया गया।
(५) दारू वृक्ष की जड़ से तैयार रसमणि के स्पर्श मात्र से लोह स्वर्ण बन जाता है।
वैसे उक्त के अलावा भी कुछ आचार्यों ने इस प्रकार की वनस्पतियों का उल्लेख किया है। पद्म पुराण, हरिवंश पुराण इत्यादि ग्रन्थों में भी कुछ ऐसे वर्णन हैं।
औषधीय वनस्पतियां एवं जैन आयुर्वेद :—
वनस्पतियों से संबंधित विषय ही ऐसा है जिस पर जैनाचार्यों ने सर्वाधिक लेखनी चलाई। जैन आगमों का एक भाग चौदह पूर्व के रूप में जाना जाता है। इन चौदह पूर्वों में ‘कल्याण वाय’ पूर्व के पश्चात् ‘प्राणावाय — प्राणावाद’ पूर्व नामक ग्रंथ जैन आयुर्वेद का प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है जिसकी उपलब्धता, रचियता एवं काल के बारे में अनेकों धारणायें है। फिर भी आचार्य निकलंक देव ने ‘प्राणावाय’ को पुनर्लिखित किया ऐसा विवरण प्राप्त होता है।
जय धवला (१/१४६) में भी वर्णित है कि — ‘प्राणावाय प्रवासो दसविध पाषाणं हाणि बड़ढीओ वण्णेदि’ अर्थात प्राणावाय दस प्रकार के प्राणों की हानि एवं वृद्धि उल्लेख करने वाला ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में पशु—पक्षियों की चिकित्सा का भी वर्णन है। षटखण्डागम (४/३२) एवं कषाय पाहुड (१/११३) पर आचार्य वीरसेन द्वारा रचित धवला एवं जयधवला टीका तथा उनके शिष्य जिनसेन की टीका में प्राणावय की अष्टांग चिकित्सा का उल्लेख है।
अभी भी अनेक ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं जिनसे स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने आयुर्वेद साहित्य की वृद्धि में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है। जिन जैनाचार्यों ने धर्म, न्याय, दर्शन, व्याकरण, काव्य, अलंकार, ज्योतिष आदि क्षेत्रों में अदभुत योगदान दिया उन्हीं आचार्यों ने आयुर्वेद के अनेक ग्रन्थों की रचना कर मानव समाज पर उपकार भी किया है।
परम पूज्य आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, सिद्धसेन, मेघनाद, गोम्मटदेव, पादलिप्त, धनन्जय, जिनदास, हेमचंद्र, पं. आशाधर, हंसदेव , यशकीर्ति, सिहंदेव, अनन्तदेवसूरि, नामदेव, माणिक्यचंद, मंगराज, जयरत्नगणि, चारू चंद, हर्षकीर्ति, हंसराज, कण्डसूर, हेमनिधान, महिम आचार्य एवं विद्वान हुये जिन्होंने वनस्पतियों का विभिन्न आयुर्वेदिक औषधियों के रूप में वर्णन किया है।
प्राकृत भाषा में विमलसूरि द्वारा लिखित ‘पउमचरियं’ में भी आयुर्वेद के कुछ तथ्यों का वर्णन है इसी प्रकार हरिषेण द्वारा रचित ‘जोणिपाहुड’ भी प्राकृत भाषा का ऐसा स्वतंत्र ग्रन्थ है जो कि पूर्ण रूप से आयुर्वेद के लिये लिखा गया । इस ग्रन्थ में अष्टांग चिकित्सा पद्धति का वर्णन किया है। इस ग्रन्थ की भी अनेक गाथायें प्राप्त नहीं हो सकी हैं। जैनाचार्यों द्वारा रचित आयुर्वेद के ऐसे ग्रन्थ की संख्या अल्प है जिनका प्रकाशन किया गया हो अथवा जिनकी पाण्डुलिपियों प्राप्त हुई हों। अधिकांश ग्रन्थ ऐसे हैं जिनका उल्लेख दूसरे ग्रन्थ में मिलता है।
उग्रादित्याचार्य (९ वीं सदी) कृत ‘कल्याणकारक’ ग्रन्थ का प्रकाशन सन् १९४० में सेठ गोविन्द जी रावजी दोशी, सोलापुर ने सखाराम नेमचन्द्र ग्रन्थमाला के अन्तर्गत किया था। पं. वर्धमान पाश्र्वनाथ शास्त्री ने इसका हिन्दी अनुवाद किया था। आचार्य श्री कुमदेन्दु स्वामी द्वारा रचित सिरिभूवलय ग्रन्थ (९ वीं सदी) की प्रस्तावना एवं एक अंश का प्रकाशन १९८८ में जैन मित्र मण्डली, धर्मपुरा, दिल्ली द्वारा कराया गया। आचार्य पूज्यपाद स्वामी द्वारा कथित औषधि योगों के संकलन, ‘वैद्यसार’ का प्रकाशन जैन सिद्धान्त भवन , आरा द्वारा किया गया। इसका सम्पादन एवं हिन्दी पं. सत्यन्धर जैन काव्यतीर्थ द्वारा किया गया।
कुछ अन्य ग्रन्थ, जैसे कि मेघमुनि द्वारा रचित ‘मेघ विनोद,’ कवि नैनसुख द्वारा रचित ‘वैद्य मनोत्सव,’ श्री कण्ठसूरि कृत ‘हितोपदेश वैद्यक,’ हर्षकीर्ति सूरि कृत ‘ योग चिन्तामणि’, अनन्त देव सूरि कृत ‘रसचिन्तामणि,’ श्री भंगराज कृत ‘खगेन्द्र मणि दर्पण,’ आदि ग्रन्थ भी प्रकाशित किये जा चुके हैं । उक्त ग्रन्थों में से अनेक ग्रन्थों की उपलब्धता संदिग्ध है।
आचार्य राजकुमार जैन (अर्हत् वचन, ८ (१९९६) इन्दौर) ने जैनाचार्यों एवं विद्वानों द्वारा विभिन्न भाषाओं में रचित अनेक आयुर्वेद के ग्रन्र्थों की सूची प्रस्तुत की है जिसमें ग्रन्थों की उपलब्धता, अनुपलब्धता एवं रचनाकाल भी दर्शाया है। सुधर्माचार्य / पुष्पाचार्य (तीसरी सदी पूर्व) द्वारा रचित ‘पुष्पायुर्वेद’ के बारे में भी जानकारी प्राप्त हुई परन्तु यह ग्रन्थ भी अनुपलब्ध है। इस ग्रन्थ में पुष्पों का उल्लेख है ऐसा कहा जाता है।
उक्त वर्णन से प्रतीत होता है कि जैनाचार्यों एवं जैन विद्वानों को वनस्पतियों का समुचित ज्ञान था एवं उन्होंने अपनी श्रमण परम्परा का निर्वाह करते हुये अनेक ग्रन्थों की रचना की। औषधियों के निर्माण एवं प्रयोग में भक्ष्य एवं अभक्ष्य वनस्पतियों के उपयोग पर विशेष विचार किया गया।
विविध क्षेत्र:—
उपरोक्त के अलावा जैनाचार्यों को वनस्पति जगत के अन्य विषयों का वृहद् ज्ञान था। यदि वर्गीकरण की दृष्टि से देखें तो ‘गोम्मटसार’, ‘मूलाचार’ आदि कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें वनस्पतियों को विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है। अत: स्पष्ट है कि पौधों का वर्गीकरण प्राचीनकाल से ही होता रहा है । विभिन्न मापदण्डों को लेकर उन्होंने आधुनिक वनस्पतियों की तरह ही वर्गीकरण पद्धति दी। आचार्य वीरसेन कृत ‘धवला’ ग्रन्थ में सुख—दुख के संदर्भ में वनस्पतिकायिक जीवों का उल्लेख है। वर्तमान में आचार्य तुलसी एवं मुनि नथमल द्वारा रचित ‘अतीत का अनावरण’ पुस्तक में जैन सूत्रों में भवनवासी, वयन्तवासी देवों के चैत्य वृक्ष एवं चौबीसी तीर्थंकरों के ज्ञान वृक्षों का वर्णन है। हालांकि अनेक पुराणों में भी यत्र—तत्र इस प्रकार के वृक्षों का वर्णन आता है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन १९६९ में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा किया गया। युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा रचित ‘आभामण्डल’ में वनस्पतियों की चैतन्यता का वर्णन किया गया है। इसका प्रकाशन १९८० में जैन विश्व भारती, लाडनूं द्वारा किया गया । कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार—९३ से पुरस्कृत पं. नाथूलाल जैन शास्त्री द्वारा लिखित ‘प्रतिष्ठा प्रदीप’ मंर धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होने वाली वनस्पतियों की जानकारी दी गई है।३
इस लेख में जैनाचार्यों के वनस्पतियों से संबंधित ज्ञान एवं ग्रन्थों के केवल कुछ ही उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं कि इस प्रकार के दुर्लभ ग्रन्थों की खोज कर उनका उचित संरक्षण कर प्रकाशन किया जावे।
(लेखक-वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन)
आर्टिकल
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