जम्मू-कश्मीर में इन दिनों जिला परिषदों के चुनाव जारी है, ये चुनाव राज्य के विधानसभा चुनावों के लिए जहां निर्णायक सिद्ध होगें, वहीं पन्द्रह माह पूर्व केन्द्र सरकार द्वारा इस राज्य को विशेष दर्जा प्रदान करने वाले अनुच्छेद-370 को हटाने के फैसले की भी ’अग्निपरीक्षा‘ सिद्ध होगें ये ही चुनाव देश पर राज कर रही भाजपा के लिए भी ये तय करेंगे कि राज्य का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद वहां की आवाम का इस पार्टी के प्रति रूख कैसा है और यही चुनाव प्रदेश में राष्ट्रपति शासन का भविष्य तय करेंगे और विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद ही यह तय होगा कि देश के सत्तारूढ़ दल के लिए इस प्रदेश में विधानसभा चुनाव कराना अभी उचित है या नहीं?
वैसे यदि हम जम्मू-कश्मीर का देश की आजादी के समय विभाजन का इतिहास उठाकर देखें, तो पाकिस्तान के निर्माण के समय मोहम्मद अली जिन्ना व पण्डित जवाहरलाल नेहरू के बीच यह तय हुआ था कि जम्मू-कश्मीर में जनमत करवाकर यह तय कर लिया जाए कि उस प्रदेश की कौम हिन्दुस्तान के साथ रहना चाहती है या पाकिस्तान के साथ? किंतु राजनीति के चतुर खिलाड़ी पं. नेहरू यह जानते थे कि कश्मीर के शत-प्रतिशत मुस्लिम नागरिक पाकिस्तान के साथ जाना चाहते है, इसलिए उन्होंने व इंदिरा जी ने अपने कार्यकाल में जनमत नहीं होने दिया और इसी कारण आज भी कश्मीरियों को राष्ट्रभक्ति के मामले में आशंका की नजर से देखा जाता है और कश्मीरी वरिष्ठ नेता फारूख अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370 के बारे में तो यह सिद्ध भी कर दिया कि वे चीन पाकिस्तान की मद्द से कश्मीर में फिर से 370 लौटा जाएगें अब जम्मू-कश्मीर के केन्द्र शासित राज्य बनने के बाद वहां पहले चुनाव हो रहे है और भाजपा और प्रतिपक्ष दोनों ही के लिए 370 प्रतिष्ठा का प्रश्न व मुख्य चुनावी मुद्दा बना हुआ है, इस मामले पर जम्मू-कश्मीर के सभी क्षेत्रीय दल एक जुट हो गए है और अनुच्छेद 370 की वापसी का नारा लगाकर चुनाव लड़ रहे है, वहीं भाजपा अपने तर्कों से 370 के अवगुण प्रतिपादितकर जनता का समर्थन प्राप्त करने की कौशिश कर रही है, अब ये चुनाव यह सिद्ध कर देंगे कि आम कश्मीरी केन्द्र के फैसलों के साथ है या उसे अपने स्थानीय नेताओं व उनके नेतृत्व पर भरोसा है?
जम्मू कश्मीर में जिला विकास परिषदों के सदस्यों की संख्या 280 है, जिन पर आठ चरणों में चुनाव होना है, जबकि विधानसभा के सदस्यों की संख्या इससे एक तिहाई है, इसीलिए जिला परिषदों के इन चुनावों को भविष्य के विधानसभा चुनाव का पैमाना समझा जा रहा है। वैसे राजनीतिक दलीय हिसाब से कश्मीर में देश के दोनों राष्ट्रीय दलों भाजपा व कांग्रेस का अपना कोई विशेष अस्तित्व नहीं है, जहां तक देश पर राज करने वाली भाजपा का सवाल है, उसकी तो कश्मीर में तनिक भी जमीन नहीं है, पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को जम्मू से ही 32 सीटें मिली थी, कश्मीर से एक भी सीट नहीं मिल पाई थी, इसलिए भाजपा को अपनी स्थिति का पूरा ज्ञान है, अब कश्मीर में भाजपा को जितनी भी सीटें मिलेगी, वे ही उसके लिए ’उपहार‘ सिद्ध होगी, हाँ.... जम्मू में अवश्य भाजपा काफी सफलता अर्जित कर सका है और वह करेगी भी.... किंतु यह तय है कि कश्मीर में भाजपा का कोई अस्तित्व न पहले था और न अब केन्द्र में विराजित होने के बाद कायम हो पाया? हाँ कांग्रेस का वहां समर्थन रहा है और गुलाम नबी आजाद जैसे नेता उसके सर्वेसर्वा रहे है, अब आजाद का कांग्रेस के प्रति मुखर हो जाना जम्मू-कश्मीर पर क्या असर डालता है? यह भी जिला परिषदों के चुनाव परिणामों के बाद स्पष्ट हो जाएगा? किंतु यह सही है कि कश्मीर में सभी क्षेत्रीय दल अब एकजुट हो गए है। भाजपा से आर-पार के ’मूड‘ में आ गए है और जहां तक भाजपा का सवाल है, वह भी कश्मीर के असरदार स्थानीय नेताओं पर व्यक्तिगत हमलों पर उतर आई है, जिसका ज्वलंत उदहारण ”रोशनी जमीन घोटाला“ सामने लाना है, जिसमें प्रदेश के दिग्गज नेता फारूख अब्दुल्ला व महबूबा मुती पर अवैध रूप से जमीनों पर कब्जा करने के आरोप लगाए गए है। उल्लेखनीय है कि भाजपा ने महबूबा मुती के साथ मिलकर ही यहां सरकार चलाई थी और अब एक दूसरे के कट्टर विरोधी है और यह सब मोदी जी के प्रधानमंत्रित्व काल का ही प्रसंग है, अब देखते है धारा 370 और क्या गुल खिलाती है?
(लेखक-ओमप्रकाश मेहता )
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अनुच्छेद 370 पर केन्द्र की ’अग्निपरीक्षा‘....? (जम्मू कश्मीर चुनाव)