उत्तराखंड में पांच सौ से अधिक ऐसे गाँव हैं, जहां से रोजगार की तलाश में लोग पलायन करके शहरों में जा बसे हैं।जिस कारण गाँव के गाँव खाली हो रहे हैं।लेकिन इसी उत्तराखंड में एक गांव ऐसा भी है जहाँ एक भी व्यक्ति ने पलायन नही किया है।पर्यटन नगरी
मसूरी से करीब 20 किलोमीटर दूर टिहरी ज़िले के जौनपुर ब्लॉक के गांव रौतू की बेली पनीर विलेज के नाम से मशहूर हो गया है। लगभग 1500 लोगों की आबादी के इस गाँव में 250 से अधिक परिवार रहते हैं।जिनका व्यवसाय पनीर बनाकर बेचना हैं।
रौतू की बेली गांव के निवासी कुंवर सिंह पंवार ने इस गांव में सबसे पहले पनीर बनाने का काम सन1980 में शुरू किया था,वे ब्लॉक प्रमुख भी रहे है।
कुंवर सिंह पंवार के ही शब्दों में, "सन1980 में पनीर मात्र पाँच रुपये प्रति किलोग्राम बिकता था। उस समय पनीर गांव से मसूरी के कई बड़े आवासीय स्कूलों में भेजा जाता था। वहाँ अच्छी कीमत मिल जाती थी।"
सन 1975 के आस पास इस क्षेत्र में वाहन चलाने शुरू हुए।इसके बाद यहाँ से बसों और जीपों में रखकर पनीर मसूरी भेजा जाने लगा।लेकिन उस समय स्थानीय स्तर पर पनीर नहीं बिक पाता था।अधिकांश लोग पनीर के बारे में जानते नहीं थे,जो जानते थे उनके पास इतने पैसे नही होते थे। लोगो को यह भी पता नही था कि पनीर की सब्ज़ी भी बनती है।
गांव के लोग बताते हैं, "गांव में पनीर घर घर मे ख़ूब बनाया जाता है।सन 2000 में उत्तराखंड राज्य बनने पर उसके तीन वर्ष के बाद इस गांव को उत्तरकाशी ज़िले से जोड़ने वाली एक सड़क सन 3003 में बनी। जिससे इस गांव के लोगों को काफ़ी सुविधा शहर जाने आने के लिए मिल गई।उत्तरकाशी व देहरादून जाने वाली सड़क बन जाने से इस गाँव से होकर देहरादून और उत्तरकाशी आने-जाने वाले लोगों की संख्या में इजाफ़ा हुआ है।"जैसे जैसे लोगो को
यहां के पनीर के बारे में पता चला ,वैसे वैसे लोग पनीर खरीदने यहां आने लगे। यानि अब गाँव में ही पनीर के ग्राहक बहुतायत में आने लगे ।सबसे बड़ी विशेषता रौतू की बेली गाँव के पनीर में मिलावट न होना और बाजार की अपेक्षा यहां पनीर सस्ता होने की वजह से देहरादून तक के लोग यहां पनीर ख़रीदने आने लगे।"
तभी तो उत्तराखंड के अन्य गांवों की तुलना में टिहरी ज़िले में यह पहला गाँव है जहां सबसे कम पलायन हुआ है।मात्र तीन चार दर्जन युवा ही गाँव से बहार पलायन करके काम करने के लिए गए,वे भी कोरोना महामारी के चलते वापस घर लौट आए है।
गाँव में पलायन न होने का सबसे बड़ा कारण यह है की यहाँ के लोग अपनी आजीविका चलाने के लिए पनीर का काम कर आत्मनिर्भर हो गए हैं। साथ ही खेती भी करते हैं, जिस कारण पलायन करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
यहां के लोग दूध के लिए मवेशी स्वयं ही पालते है। मवेशियों के लिए घर की महिलाएं जंगलों से चारा ले आतीं हैं। लेकिन प्रतिवर्ष अप्रैल के महीने में घास कम हो जाती है तब यहाँ मवेशियों के लिए घास ख़रीदनी पड़ती है। रौतू की बेली गांव में रहने वाली महिलाएं बतातीं हैं, "पशुओं के लिए घास और चुल्हा जलाने के लिए लकड़ी वे जंगल से लाती हैं। जो लकड़ी जंगल से लाते हैं उसी को चूल्हे में जलाने के लिए उपयोग में लाते हैं और उसी से पनीर बनता है। जंगल में घास और ईंधन के लिए बहुत दूर मीलो जाना पड़ता हैं।''
''वे सुबह -आठ नौ बजे जंगल में घास और लकड़ियां लेने जाती हैं और फिर शाम को चार -पांच बजे तक घास और लकड़ियां लेकर वापस आती हैं।सुबह- शाम को दूध निकालकर पनीर बनाना इनकी दिनचर्या में शामिल हो गया हैं।"इस व्यवसाय को प्रोत्साहन देने के लिए अगर राज्य सरकार गाय -भैंस ख़रीदने के लिए ऋण की सुविधा दे दे और मवेशियों के लिए चारा मुफ़्त में या सब्सिडी के आधार पर मिलने लग जाए तो लोगों को बड़ी राहत मिल सकती है और पनीर उद्योग को संरक्षण मिल जाएगा। "गांव के लोग गांव में एक ही जगह पर नही बल्कि अलग-अलग जगह पर रहते हैं। पहाड़ों पर ही इनका निवास होता है।''
''जिन स्थानों पर ये लोग खेती करते है या पनीर बनाते है। वह स्थान सड़क से काफी दूर और ऊँचाइयों पर हैं, इन स्थानों पर अभी भी सड़क नहीं पहुंची हैं।"
जिस कारण लोग अपना पनीर घोड़े खच्चरों के द्वारा से नीचे सड़क तक ले जाते हैं। जिसमें काफी किराया भाड़ा लग जाता है।'यहां की इस सड़क को बनवाने के लिए पिछले 15 सालों से लोग संघर्ष कर रहे हैं,स्वयं मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत सन 2011 में जब वह कृषि मंत्री थे तब उन्होंने इस सड़क का शिलान्यास किया था, लेकिन यह उनके मुख्यमंत्री बन जाने पर भी यह सड़क अभी तक तैयार नहीं हुई है।"जिसे गांव के लोग दुर्भाग्यपूर्ण मानते है।
(लेखक- डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट)
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