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एक महान शिवभक्त मौनी बाबा !  (14 दिसंबर जयंती पर)  

एक महान शिवभक्त मौनी बाबा !  (14 दिसंबर जयंती पर)  

 मुझे बचपन से ही अनेक संत साधु,महात्माओ,सद्पुरुषों, साध्वी, विदुषियों का आशिर्वाद मिलता रहा है, जिनमे महामंडलेश्वर से लेकर शंकराचार्य  तक की गिनती की जा सकती है।लेकिन जो चेहरे पर तेज और रूहानियत का साक्षात्कार मुझे ज्ञान मार्ग की राजयोगिनी 104 वर्षीय दादी जानकी व भक्तिमार्ग के मौन साधक 106 वर्षीय मौनीबाबा से मिलकर हुआ था, उसे शब्दो मे अभिव्यक्त कर पाना आज भी सम्भव नही है।मौनीबाबा से मैं एक बार नही उनके ब्रह्मलीन होने से पहले कई बार मिला ।देश के जाने माने साहित्यकार डॉ योगेंद्र नाथ शर्मा 'अरुण 'ने जब से मौनीबाबा को मेरे बारे में बताया कि मैं हरिद्वार में 14 अगस्त सन 1942 को आजादी के आंदोलन में शहीद हुए जगदीश प्रसाद वत्स का भांजा हूं, तब से मौनी बाबा मुझसे बेहद स्नेह करने लगे थे।उनकी मौन मुखर मुस्कुराहट मुझे मेरे अंतकरण तक को अजीब सी ठंडक पहुंचाती थी।लगता था जैसे मौनीबाबा का सनिदय अनवरत मिलता रहे।परमात्मा शिव के परम उपासक मौनीबाबा के एक बार रुद्राभिषेक कार्यक्रम में मुझे शामिल होने का सौभाग्य मिला ।उस कार्यक्रम की आभा देखते ही बन रही थी। मौनीबाबा साक्षात रुद्र रूप में मुस्कुराते नज़र आ रहे थे।यह सच है भी है कि अगर कोई मौन में रहे अर्थात बोलने में अपनी उर्जा खर्च न करे तो वह दिर्धायु और सदैव उर्जावान रहता है। साथ ही मौन में रहने के कारण ऐसे व्यक्तियों में व्यर्थ के विचार भी जन्म नही लेते। परिणाम स्वरूप ऐसा व्यक्ति सहज ही ईश्वर का सानिदय प्राप्त कर लेता है। ऐसी महान विभूति थी मध्य प्रदेश के उज्जैन नगरी के सन्त सदपुरूष मौनी बाबा, जो अपने जीवन के पांच दशको तक मौन में रहे और शिव अराधना करके तथा भगवान शिव की तपस्या में लीन रहकर जनकल्याण करते रहे।इन्ही मौनी बाबा के कारण मौनी बाबा का शिप्रा तट पर बसा आश्रम  एक धाम के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। जो लोग उज्जैन में भगवान भोलेनाथ महाकाल के दर्शन करने जाते है, वे मौनी बाबा के आश्रम आकर अपने जीवन के एक शतक से भी ज्यादा समय से प्रभु भक्ति में लीन रह रहे मौनी बाबा के दर्शन करना नही भूलते थे। हमेशा साधनारत होने के कारण मौनी बाबा के दर्शन करना सहज भी नही था। संसारिक दुनिया से दूर रहकर हर समय साधनारत रहने वाले मौनी बाबा शतायु होकर भी न सिर्फ तेजस्वी रहे बल्कि आध्यात्म की प्रतिमूर्ति भी रहे, लेकिन अपने भक्तों को समय समय पर आर्शीवाद देकर वे संसारिक लोगो को सन्मार्ग दिखाते रहे।तभी तो उन्हे पूरी दुनिया गुरू के रूप देखती ,मानती और स्वीकारती रही है।  शास्त्रों में  गुरू शब्द के शाब्दिक अर्थ 'भारी' को अपनी तपस्या से सिद्ध कर चुके मोनी बाबा आयु व चेहरे पर तेज की दृष्टि से आध्यात्मिक क्षेत्र में सिद्ध पुरूष रूप में प्रतिष्ठित हुए है। कहा भी गया है कि जो ज्ञान से भारी है,वह गुरू है और मौनी बाबा का ज्ञान स्वयं में एक ऐसा अथाह सागर है जिसकी थाह ले पाना भी आसान नही है।  गुरू शब्द जिसके सामने लग जाता है उसे अन्यो से श्रेष्ठतम और विशिष्ठतम बना देता है। यथा गुरूत्वाकर्षण ,गुरूज्ञान आदि ,यही गुरु की महत्ता है।चूंकि मौनी बाबा भी श्रेष्ठ महापुरूष रहे।इसी कारण मौनी बाबा के नाम से मौनतीर्थ धाम प्रतिष्ठा सम्पन्न हुआ है। 
वस्तुतः   गुरू को ही विष्णु,गुरु को ही ब्रहमा और गुरु को ही महेश्वर कहा गया है। मौनी बाबा भी गुरु देवता तूल्य रहे है। मौनी बाबा की इस तुलना का अर्थ मात्र गुरू का महिमा मण्डन करना मात्र नही है। कई मायनो में मौनी बाबा भी ब्रहमा, विष्णु व महेश के समतूल्य कहे जा सकते है।क्योकि मौनी बाबा ही थे जो अपने शिष्यो और अनुयायियों को ब्रहमा, विष्णु और महेश से मिलाने के लिए ,उन्हे आत्मसात करने का मार्ग बताते रहे। तभी तो प्रभु शरणम से पहले गुरू शरणम का प्रचलन है ।
   अपने जमाने के युगप्रर्वक संत कबीर दास ने गुरू के सच्चे रूप और कार्य का वर्णन अपने एक दोहे में किया है। गुरू गोविन्द दोउ खडे काके लागू पाये,बलिहारी गुरू आपनो गोविन्द दियो बताए। यानि गुरू और गोविन्द दोनो खडे हो और पहले पैर किसके छूयें को लेकर संशय हो तो पहले गुरू के पैर छूने चाहिए क्योकि गुरू ही वह माध्यम है जो गोविन्द से मिलने का मार्ग बताता है। कई बार गुरू और अध्यापक को एक दूसरे का पर्याय मान लिया जाता है। परन्तु यह ठीक नही है। गुरू और अध्यापक एक नही हो सकते। अध्यापक अधिकाशत भौतिक विधाएं सिखाता है। लेकिन गुरू मनुष्य रूपी शिष्य को पूर्ण रूपेण विकास व समग्र कल्याण के लिए तैयार करता है। उसी प्रकार मौनी बाबा अपने भक्तों को शिवमय बनने का रास्ता दिखाकर अपने भक्तों पर उपकार करते रहे है। जो मौनी बाबा की सोच है कि ,मनुष्य जीवन का उददेश्य है जीवन मरण के चक्र से निकलना और अपने कर्मो को भोगकर मोक्ष प्राप्त करना होता है। मोक्ष प्राप्ति की इस प्रक्रिया में गुरू की भूमिका बहुत बडी है।  गुरू अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है। साथ ही अनेक भौतिक विधाओं का ज्ञान देता है। गुरू  ही वह व्यक्ति है जो सत्य और असत्य के बीच का अन्तर समझाकर अपने शिष्य को सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। जब तक मनुष्य अपने सभी कर्तत्यों को पूर्ण कर प्रभु प्राप्ति के पथपर अग्रसर नही होता, तब तक गुरू उसे निरंतर निर्देश देकर उसे अपने उददेश्य की सतत याद दिलाता रहता है।ताकि शिष्य गुरू की इच्छा के अनुरूप जीवन के सन्मार्ग पर चलकर गुरू को अमरत्व प्रदान कर सके। 
    वैदिक दर्शन में गुरू को एक चेतन देवता माना गया है। माता, पिता,पति, पत्नि,आचार्य इन सभी को चेतन देवता कहा गया है। मनुष्य के उपर इन पांचो देवताओं तथा जल, वायु ,अग्नि, वनस्पति आदि जड देवताओं का कर्ज होना माना गया है। आचार्य कर्ज मुक्ति के लिए उनके द्वारा दिये गए ज्ञान को जीवन में उतारना और दूसरो में बांटना जरूरी है। मनुष्य के लिए आवश्यक है कि सभी जड और चेतन देवताओं के साथ साथ आचार्य कर्ज भी इसी जीवन में उतारेे।जिसके लिए गुरू पूर्णिमा जैसे अवसरों पर गुरू दक्षिणा देकर गुरू पथगामी बना जा सकता है। इससे गुरू के प्रति श्रद्धा तो बढती ही है गुरू का आर्शीवाद भी अपने शिष्यों पर बना रहता है।  
मौनी बाबा सोचते थे कि गुरू का भारतीय समाज में एक विशिष्ट स्थान है। गुरू ही बालक में संस्कार भरकर उसे एक ऐसा मनुष्य बनाता है जो संस्कारो, विधाओं और विचारो से परिपूर्ण हो। इस समाज को ऐसे ही गुरू की आवश्यकता है जो विधाविभूषितकर कल्याण के मार्ग का पथिक बना सके। ऐसे ही गुरू थे मौनी बाबा, जो मौन रहकर भी समाज को अपनी दिव्य ज्ञान ज्योति से प्रकाशमान करते रहे । हरि के द्वार यानि हरिद्वार के गंगा तट कनखल जो महाराज दक्ष की स्थली भी है ,से प्रकट होकर अपनी साधना और भक्ति के बल पर उज्जैन की शिप्रा नदी के तट को गंगा धाट में तब्दील कर देने वाले मौनी बाबा ने शतायु से अधिक जीवन जिया  है।उन्होंने समाज में आध्यात्मिक व व्यवहारिक ज्योति पुजं प्रज्जवलित की। अधिकाशं समय साधना में लीन रहने वाले मौनी बाबा जब जब भी आमजन से मिलते थे। उन्हे अपने दिव्य स्वरूप का साक्षात कराकर खास बना देते थे।वे अपनी लेखनी सवांद माध्यम से आमजन को सदमार्ग दिखाते रहे। उन्हे धर्म और कर्तव्य का महत्व समझाते रहे।वैराग्य और वीतराग की यह पवित्र आत्मा जनकल्याण  और धर्मकल्याण के प्रति समर्पित रही है। जिनके दर्शन मात्र से श्रद्धालु धन्य हो जाता था।बाबा को गो सेवा पसन्द थी तो समाज को सत्य की राह दिखाने के लिए ऐसे आचार्य तैयार करना भी उनका लक्ष्य रहा जो गुरूकुल परम्परा से शिक्षित और दीक्षित होकर समाज और राष्टृ कल्याण में सहायक सिद्ध हो। ऐसे धर्मानुरागी और कल्याणकारी सिद्धपुरूष मौनी बाबा का आर्शीवाद व मार्गदर्शन हमेशा हमेशा स्वयं पर बनाये रखने के लिए उनके प्रति समर्पण भाव रखना आवश्यक माना जाता था।  मौनी बाबा की शिवमय मौन साधना इतनी अधिक थी कि उन् जैसा भक्तिमार्ग में सन्त होना बेहद दुर्लभ है।उनकी जयंती पर उन्हें शत शत करते हुए मुझे यह आभास हो रहा है कि मौनी बाबा ने भले ही शरीर त्याग दिया हो लेकिन आत्म स्वरूप में वे आज भी हमारे साथ है।
(लेखक-डा0श्रीगोपालनारसन एडवोकेट )

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