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मोबाइल  व्यसन ---अभिशाप या वरदान  बनने जा रही हैं  

मोबाइल  व्यसन ---अभिशाप या वरदान  बनने जा रही हैं  

आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व अंग्रेंजो ने चाय का प्रचार प्रत्येक मोहल्ले ,.चौराहों पर मुफ्त में चाय एक सप्ताह बांटी और उसके बाद दूसरे मोहल्ले गए ,इस प्रकार पूरा शहर और उसके बाद पूरा देश चाय का परजीवी बन गया और उन्होंने चाय की पत्ती का व्यापार किया और आज चाय हमारे देश की राष्ट्रीय पेय मानी जानी लगी.यह एक प्रकार की लत या व्यसन का रूप बन गयी और आज हर समय हर जगह चाय ने प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। कुछ वर्ष पूर्व यह अफवाह फैली थी की चाय की पत्ती में कुछ कुछ अभक्ष्य पदार्थ मिलाया जाता हैं उसके फलस्वरूप कुछ लोगों ने चाय का त्याग किया पर आक्रामक व्यवसायीकरण ने इस अफवाह को  भी दफ़न कर दिया। 
जिस समय अर्जुन सुभद्रा को चक्रव्यूह के बारे में बता रहे थे और उसी समय उन्हें नींद आ जाने से अभिमन्यु जो गर्भस्थ थे चक्रव्यूह से बाहर निकलने का मार्ग नहीं सुन पाए और अंत में मृत्यु को प्राप्त हुए। 
एक डॉक्टर युगल दंपत्ति को शिशु का जन्म हुआ ,कुछ  समय के बाद  नौकरी जाने के समय होने पर  उन्होंने उस बालक को सुई की नौक बराबर अफीम चटाना शुरू किया उससे वह बालक लगभग ६ घंटे सोता रहता था। और उनकी नौकरी चलती रही ,कुछ समय बाद उस बालक की आदत अफीम की होने से उसके बिना बैचैन रहने लगा और अंत में अफीमची बना और मृत्यु को वरण किया। 
विगत दिनों मोबाइल के कारण १२ से १५ वर्ष के बच्चों ने  आत्महत्या कर ली। ये कोई नयी घटना नहीं हैं पर इन घटनाओं ने चिंतन मनन के लिए मजबूर किया।  इसमें कौन दोषी  हैं और कौन नहीं हैं यह महत्वपूर्ण नहीं हैं पर इस  प्रकार की घटनाओं का होना किस दिशा और दशा की  ओर  व्यक्ति ,परिवार ,समाज ,देश  को जाने के लिए मजबूर किया जा रहा हैं या किया गया हैं और किया हैं। 
इसमें अभिमन्यु का उदाहरण श्रेष्ठ लगा कारण वर्तमान में मोबाइल का चलन इतना अधिक हो गया की गर्भवती महिलायें उस अवस्था में भी मोबाइल ,टी वी ,कंप्यूटर का उपयोग अनवरत करती हैं और जो भी आधुनिकता की सामग्री के संपर्क में होने से उनका प्रभाव गर्भवस्थ शिशु पर पड़ता हैं और उसके बाद उस शिशु के जन्म से ही उसे वे सव परिवेश मिल जाते हैं जिसका प्रभाव उस अबोल शिशु पर बरबस पड़ता हैं और वह उसी समय से उसका आदी/अभ्यस्त होने लगता हैं। जैसे जन्म के समय ही उस शिशु को मोबाइल की चकाचौंध से प्रभावित कर दिया जाता हैं। तत्काल उस शिशु की फोटो सोसियल  मीडिया पर ,टी वी पर आ जाती हैं। उसके बाद उसी समय से माँ अपने मोबाईल  का उपयोग प्रसूति अवस्था में करती हैं ,अबोल बालक के कोरे मष्तिष्क पर इसका प्रभाव ध्वनि , प्रकाश के माध्यम से पड़ना शुरू होने लगता हैं। .इसके बाद उस बालक को टी वी के सामने लिटाया जाने के कारण वह टी वी के प्रति आकर्षित होकर उसके बिना छटपटाहट महसूस करके रोने लगता हैं और यहाँ से उसको इसके प्रति बीजारोपित किया जाने लगता हैं। 
इसके बाद माँ बाप और अन्य परिवारजन इस वातावरण में डूबे रहते हैं तो उस शिशु के लिए मोबाइल या टी वी  की शुरुआत कर दी जाती हैं ,उसकी सुविधा के लिए ,खाना पीने के लिए ,प्राकृतिक वातावरण में जीने के लिए इन माध्यमों का उपयोग शुरू होने लगता हैं ,वह शिशु अपनी दुनिया में खोने लगता हैं और माँ बाप अपने कार्यों के कारण उसे उपेक्षित करने लगते हैं या  उसे पराधीन बना देते हैं। 
फिर शिशु स्कूल जाने लगता हैं तब वह बैचैन अवस्था में आकर सबसे पहले टी वी खोलने लगता हैं और कोई कोई उसे मोबाइल के माध्यम से उसे गाफिल करने लगते हैं यानी खाना ,खेलना ,चलना फिरना पढ़ना टी वी के सीरियल के अनुसार होने लगता हैं उसे दिन याद नहीं रहता ,न समय मालूम होता की कितने बज गए पर सीरियल के अनुसार दिन और समय याद रहने लगता हैं। यह व्यसन की शुरुआत कह सकते हैं। 
यदि पूरे परिवार का वातावरण टी वी मोबाईल संस्कृति से परिपूर्ण हैं तो कोई समस्या नहीं ,पर यदि माँ बाप जागरूक हो गए तब उसका विरोध करने पर बालक का आक्रोश या विद्रोह उभर कर सामने आने लगता हैं। वर्तमान में एकल परिवार और एकल बच्चा होने से माता पिता उसके सामने घुटने टेकने लगते हैं और उसकी आपूर्ति करते हैं न होने पर अज्ञात भय से ग्रस्त होने लगते हैं। यह क्रम कुछ वर्षों तक चलने से उसका व्यसन बन जाता हैं और फिर अंग्रेजों की चाय की स्थिति बनने से उसके बिना वह रह नहीं सकता। इसके बाद उसे अफीम जैसा नशा होने से वह अपनी दुनिया में रहने लगता हैं और या तो बेगाफ़िल होने   लगता हैं  या मरणासन्न हो जाता हैं जिसके कारण उसके सोचने समझने ,विचार करने की क्षमता ख़तम होने लगती हैं और वह काल्पनिक दुनिया में रहने लगता हैं। और उसकी स्वतंत्रता में जो बाधा पहुंचाता हैं वह उसका दुश्मन हो जाता हैं और वह दुशमन को दुश्मन समझकर व्यवहार करता हैं.इस प्रकार आपका बालक इस समाज का एक इकाई होने से वह समूह बनाकर समाज को निर्मित करता हैं और  फिर अप्रत्यशित घटनाएं घटित होने लगती हैं। यह अवस्था असाध्य रोग की स्थिति में आ जाती हैं। जिसका इलाज़ कभी कभी मृत्यु होती हैं। 
इसमें अब दोषी कौन हो सकता हैं तो सबसे पहले सुभद्रा को नींद का  आना ,यानी हम जन्म के पहले से अपने शिशु को प्रभावित करते हैं और उसके बाद उसकी हर क्रिया को मोबाईल या कैमरे के माध्यम से कैद करने की होड़ लग जाती हैं ,और वह चाय जैसा व्यसनी होकर अफीमची बन जाता हैं। इस बात में कोई दो मत नहीं हैं की आधुनिक परिवेश की हर सामग्री हमारे लिए उपयोगी हैं उसके बिना जिंदगी सामान्य नहीं चल सकती। पर उपयोग ,सदुपयोग और दुरुपयोग करना हमारे हाथ में हैं। क्या हमारे जन्म के समय ये सुविधाएँ न होने पर हम अपना जीवन नहीं जी रहे। कभी कभी सामग्री होते हुए भी अभावजन्य जीवन जीना चाहिए कारण कभी उपलब्धता न होने पर हम विचलित न होने पाए पर जब हम शुरुआत से ही सुविधाएँ  देंगे तो स्वाभाविक हैं हम पराधीन या परजीवी जरूर बनेंगे। 
आज भी कई सुविधा सम्पन्न लोगों के यहाँ टी वी नहीं चलती या सीमित चलती हैं ,आज भी करोड़ों लोग सम्पन्न होते  हुए भी सामान्य किस्म को मोबाईल उपयोग करते हैं या नहीं भी करते हैं। वे फ़ोन के माध्यम से अपना काम सम्पादित करते हैं। .यदि हमें अपना और संतानों को जीवन सुखद बनाना हैं तो इस माध्यम को नियंत्रित करे या उपयोग न करे तब तक जब तक की बालक अपने पैर पर खड़ा न हो जाए या स्वावलम्भी न बन जाए ,हम उसे समय से पहले ज्ञानवान बनाना चाहते हैं तो आत्महत्या। हत्या ,या अयोग्यता को स्वीकारना पड़ेगा। यदि बालक योग्य निकल गया तो सोने में सुहागा अन्यथा वह नासूर बनकर जिंदगी भर कष्ट देगा। 
यदि हमें अपने बालकों का भविष्य सुरक्षित रखना हैं तो स्वयं  अनुशासित ,नियंत्रित होना होगा। हमें सामाजिक प्रतिस्पर्धा से दूर होकर स्वार्थी बनकर अपने बच्चों और बच्चियों के भविष्य को सुखद बनाना होगा इसके लिए बाह्य आवरण प्राकृतिक रखकर वास्तविक दुनिया में रहन होगा अन्यथा एक क्षण की भूल जिंदगी भर के लिए गुनाहगार बना देती हैं। यदि यहीं रफ़्तार रही तो सभी लोग एकाकी जीवन यापन कर अपना जीवन शीघ्र समाप्त करने में नहीं हिचकिचाएंगे। 
विषय गंभीर हैं ,पर साध्य हैं इसके लिए हमें अनुशासित होना होगा। इसमें अन्य से तुलना करना उचित नहीं हैं ,क्योकि जब हम अपनों से प्रभावित होते हैं तब अहसास होता हैं। ऐसे में कोई  अन्य मदद नहीं करता।
(लेखक- वैद्य  अरविन्द प्रेमचंद  जैन)

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