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तमिल कम्ब रामायण एवं वाल्मीकि रामायण में राजा दशरथजी का अंतिम संस्कार किसने  क्यों किया? तथा श्रीराम के रावण वध उपरान्त दशरथजी के द्वारा श्रीराम को दो वरदान

तमिल कम्ब रामायण एवं वाल्मीकि रामायण में राजा दशरथजी का अंतिम संस्कार किसने  क्यों किया? तथा श्रीराम के रावण वध उपरान्त दशरथजी के द्वारा श्रीराम को दो वरदान

भारतीय संस्कृति में सोलह संस्कारों का अत्यन्त ही महत्व है तथा जीवन का अंतिम संस्कार उनमें से एक है। लगभग सभी भारतीय भाषाओं की श्रीरामकथाओं में इस मार्मिक प्रसंग का वर्णन एक समान ही है जिसमें भरतजी द्वारा महाराजा दशरथ के अंतिम संस्कार का वर्णन है किन्तु तमिल भाषा की कम्ब रामायण में यह मार्मिक प्रसंग अलग प्रकार के तर्कों सहित वर्णित है।
तमिल कम्ब रामायण में दशरथ का चितार्पण (दाहकर्म) पटल
दशरथ के दाह संस्कार का कम्ब रामायण के अयोध्याकाण्ड के पटल १० में पद्यांश ७९६ से ९३८ तक वर्णित है। महाराजा दशरथजी के शव को राजकीय सम्मान सहित सरयू तट पर ले जाया गया। वहाँ पहुँचकर शास्त्रियों ने दाहकर्म पूर्व कर्मविधि के अनुसार दशरथजी की चिता सजाई। चक्रवर्त्ती के शव को उस पर रखा, फिर भरतजी से कहा कि वीर आओ। पिता का भूलचूक के बिना उत्तम दाहकर्म पूर्ण करो।
अेनन्म वेलेयि लेलून्द् वीरनै, अनुनैतीमैया लरशमिन् नैयुम्
तुननु तुन्वत्तार् रुरनडु पोयिजान, मुन्न रयेन मुनिवन् कटिनान्
तमिल कम्ब रामायण अयोध्याकाण्ड पटल १०-९२५
यह सुनकर भरत उठे किन्तु मुनिवर वसिष्ठ ने उसको रोकते हुए कहा कि भरत! तुम्हारे पिता ने पहले ही तुम्हारी माता के कुकर्म से दु:खी होकर तुमको राजा दशरथ के दाहकर्म करने से वर्जित करके तुम्हें त्याग दिया है। भरतजी ने वसिष्ठजी की यह आज्ञा सुनकर कि पिता के अंतिम संस्कार का अधिकार रखने वाला मैं पिता के राज्य को लेने का अधिकारी भी कैसे हो सकता हूँ्?
अेन्रु करिनोन् दिडरिन् मूल्हुमत्, तनरु तारवर किलैय तोरन्लाल्
अन्रु नेरह्ड नमैव दाक्किनान निनरु नान् मेरे नेरिश्य्नीर्मैयान्
तमिल कम्ब रामायण अयोध्याकाण्ड पटल १०-९३२
ऐसा कहते हुए भरत दु:खी होकर वेदना सागर में डूब गये। तब चतुर्वेद- विहित शास्त्र मार्ग में रहकर कार्य करने वाले वसिष्ठजी ने पुष्प बहुल मालाधारी भरत के छोटे भाई शत्रुध्न के द्वारा उस दिन दशरथजी का दाहकर्म कराया।
हमारी सामाजिक परम्परा एवं संस्कृति में भी माता-पिता के अंतिम संस्कार का अधिकार सबसे बड़े पुत्र या अनेक भाईयों के होने पर सबसे छोटे पुत्र को धर्मशास्त्र में दिया गया है। इनमें मध्य के पुत्र को प्राय: यह अधिकार नहीं दिया गया है, यदि ज्येष्ठ (सबसे बड़ा) या सबसे छोटा पुत्र न हो तो जो भी पुत्र ज्येष्ठ को प्राय: यह कर्म करने की परम्परा है। कम्ब रामायण में भरतजी को पिता के अंतिम संस्कार का कर्म न करने का कैकेयी के समक्ष रामजी के वनगमन के बाद दशरथजी ने स्वयं ही कहा था। जब श्रीराम-लक्ष्मण एवं सीता सहित वन चले गये तब वसिष्ठजी ने कैकेय से कहा कि तुमने चक्रवर्ती दशरथजी के अपने मुख से वन जाने की आज्ञा देने के पहले ही दशरथजी के रूप में उन्हें वनगमन का कह दिया। श्रीराम भी विस्तृत वन में कठोर मार्ग तय करते हुए जा पहुँचने से नहीं रूकेंगे। कैकेयी तुम भी कितनी क्रूर हो कि अपने यश और चक्रवर्ती राज्य के प्राण दोनों को ही जलाकर नष्ट कर दिया। आपके समान निर्मम-निष्ठुर स्त्री इस संसार में और कोई शायद ही होगी तथा मिलेगी भी नहीं। वसिष्ठजी ने जब यह बात कही तब महाराज दशरथ को सच्ची बात और स्थिति ज्ञात हो गई। उन्होंने अत्यन्त ही पीड़ा का अनुभव करते हुए विकल होकर जीभ से विष उगलने वाली कैकेयी से पूछा- क्या तुमने अपनी ओर से मेरे प्राणप्रिय पुत्र राम को वन जाने की आज्ञा दे दी। वह भी चला गया तथा कैकेयी से दशरथजी ने यह कहा-
कण्डे नेञ्जङ् गलियार कनिवाय विडना ऩेडुनाल्
उणडे ऩदऩा नीयेन नीयने नुयिरै मुदलो डुणडाय्
पणडे येरिमुन वाऩुनैय पावी दवि यहक्
कोणडे ऩललेन वेरोर् कूडर्न देडिक कोणडेन
तमिल कम्ब रामायण अयोध्याकाण्ड नगर निर्गमन पटल ४-३४२
चक्रवर्ती दशरथ ने कैकेयी से कहा कि- पापिनी मैंने तुम्हारा मन समझ लिया। बहुत दिन तक मैंने तुम्हारा बिंबाधर-निस्तृत विष पान किया था। अब उसके तुम मेरे प्राणों को मूल सहित पी चुकी हो। पहिले अग्नि को साक्षी बनाकर तुमसे विवाह करके मैंने रानी को नहीं वरा था परन्तु एक विलक्षण यम को ढूँढ लिया। तुमको रानी समझा था, किन्तु तुम तो यम (यमराज) निकली। पुन: दशरथजी ने कहा-
इऩने पलवुम् पहख निरङ्गा दालै नोकविच्
चोनऩे निऩरे यिवलेन रार मल्ल डुर्नदऩ
मऩने यावाऩ बरुमदे परदन् रऩेयुम् महऩेन
रूऩनेन मुनिवा ववनु माहा नुरिमैक् केन्रान्
तमिल कम्ब रामायण अयोध्याकाण्ड नगरनिर्गमन पटल ४-३४५
यह सुनकर कैकेयी कुछ भी नहीं पसीजी, तब राजा ने वसिष्ठजी से कैकेयी के सम्बन्ध में अपना निर्णर्य सुनाया। महर्षि वसिष्ठ! अभी कह देता हूँ। यह मेरी धर्मपत्नी नहीं है। उसको मैं त्याग चुका। उसके पुत्र भरत को भी जो कि राजा बनेगा अपना पुत्र नहीं मानता। उसे दाहक्रिया (अंतिम संस्कार) आदि पितृकर्म करने का अधिकार नहीं होगा। यही कारण था कि वसिष्ठजी ने दशरथजी की अंतिम इच्छानुसार तथा धर्मशास्त्र के अनुसार उनका अंतिम संस्कार भरत के हाथों न कराकर राजा दशरथ की अंतिम इच्छा की पूर्ति- धर्मशास्त्र एवं भारतीय संस्कृति की परम्परा का अनुसरण किया।
यह प्रसंग यहीं नहीं समाप्त होता है तथा अन्य श्रीरामकथाओं के समान तमिल कम्ब रामायण में भरत तथा कैकेयी को दशरथजी ने रावण वध उपरान्त प्रसन्न होकर श्रीराम को दो वरदान देने तथा श्रीराम द्वारा इन दोनों को क्षमा कर उन्हें अपने-अपने अधिकार पुन: लौटा दिये। कम्ब रामायण में ऐसा वर्णन है कि श्रीराम द्वारा रावण वध उपरान्त शिवजी की कृपा पाकर दशरथजी अपने पुत्र (श्रीराम) को देखने की मोहपूर्ण इच्छा से भूमि पर आये। श्रीराम-लक्ष्मण और सीता ने दशरथजी के चरण स्पर्श किये तब-
आदि नुम्मुऩक कमैन्ददोन् रूरैयेन वलहन्
तीय लनरूनी तुरनदवन् तेयवसु महनुम
तायुत दमबियु माम्वरन दरूहनत् तालनवाने
वायति रनवलुन दार्ततन वुयिरेलाम् बाललति
तमिल कम्ब रामायण युद्धकाण्ड उत्तरार्द्ध प्रत्यागमन-४०२१
दशरथ जी ने श्रीराम से कहा- ''तुम्हें जो ठीक लगे वर माँग लोÓÓ श्रीराम ने कहा- आपने जिन्हें दुष्टा कहकर त्याग दिया था, उन मेरी आराध्या देवी माता कैकेयी को और उनके पुत्र (मेरे भाई भरत) को पुन: क्रमश: मेरी माँ और मेरा छोटा भाई बनाने (स्वीकार) का वर प्रदान करें। यह कहकर उन्होंने पिता के चरणों में प्रणाम किया। दशरथजी ने भी उत्तर में कहा कि हे राम! मेरी बात सुनो अकलंक भरत को वह भाग्य प्राप्त हो पर तुम्हारे मुकुट को छीनकर जिसने तुम्हें यह तपस्वी का वेश दिया था उस पापिनी पर मेरा कोप निश्चय ही दूर नहीं होगा। श्रीराम ने कहा कि शरीरबद्ध जीवों का खूब पालन करने का जिम्मेवार कार्य है बड़ा शासनाधिकार। वह बड़े-बड़े अपराधों हेतु बन सकता है। इसका विचार किये बिना ही राजपद को मानकर मैंने जो स्वीकारा वह मेरा अपराध था, नहीं तो इसमें मेरी जननी मान्या माता कैकेयी का इसमें क्या दोष हुआ? तब दशरथजी का यह क्रोध शान्त हो गया। जब सभी वरों से परे रहने वाले श्रीराम ने यह वाक्य कहा देवों को उन पर तरस आया।
उन्होंने कहा कि असीम शत्रुओं से भरे कानन में जिसने इन्हें भेजा उसे भी दो वर मिले। उन वरों को मानकर जो वन में आये उन्हें दिये गये वर भी दो ही हैं। अंत में दशरथजी राम द्वारा चाहे गए दो वर देकर स्वर्ग (व्योममध्य) पृथ्वी छोड़कर चले गये।
वाल्मीकि रामायण में राजा दशरथजी द्वारा कैकेयी तथा भरत को उनके अधिकार से वंचित करना। दशरथजी का अंतिम-संस्कार तथा श्रीराम के लंका विजय उपरान्त उन्हें अपने पिता द्वारा प्रदत्त दो वरदान।
श्रीराम के वनगमन उपरान्त दशरथजी की समस्त इन्द्रियाँ व्यथित हो उठी तथा वे कैकेयी से बोले-
कैकेयी मामकाङ्गानि मा स्प्राक्षी: पापनिश्चये।
नहि त्वां द्रुष्टुमिच्छामि न भार्यान च बान्धवी।।
वा.रा. अयोध्याकाण्ड सर्ग ४२-६
पापपूर्ण विचार रखने वाली कैकेयी! अंगों का स्पर्श न कर। मैं तुझे देखना नहीं चाहता। तू न तो मेरी भार्या है और न बान्धवी। जो तेरा आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करते हैं, मैं उनका स्वामी नहीं हूँ और वे मेरे परिजन नहीं है। तूने केवल धन में आसक्त होकर धर्म का त्याग किया है। इसलिये मैं तेरा परित्याग करता हूँ। इतना ही नहीं मैंने तेरे साथ जो पाणिग्रहण किया है और तुझे साथ लेकर अग्रि की परिक्रमा की है तेरे साथ वह सारा सम्बन्ध इस लोक और परलोक के लिये भी त्याग देता हूँ।

भरतेश्चेत् प्रतीत: स्याद् राज्य प्राप्यैतदव्ययम।
यन्मे स दद्यात् पित्रर्थं मामांतद्दत्तमागमत्।।
वा.रा. अयोध्याकाण्ड सर्ग ४२-९
तेरा पुत्र भरत भी यदि इस विध्न बाधा से रहित राज्य को पाकर प्रसन्न हो तो वह मेरे लिये श्राद्ध में पिण्ड या जल आदि दान करें तो वह मुझे प्राप्त न हो। इसके पश्चात दशरथजी परलोक चले गये। भरतजी के अपने मामा के यहां से आने के बाद अयोध्या में माता कैकेयी से दशरथजी के परलोकवासी होने, श्रीराम-लक्ष्मण सहित सीता का वनगमन तथा उनका राज्याभिषेक किये जाने का समाचार ज्ञात हुआ। भरतजी अत्यन्त ही शोक से संतप्त हो गये। तब वसिष्ठजी ने कहा- महायशस्वी राजकुमार! यह शोक छोड़ो, क्योंकि इससे कुछ होना जाना नहीं है। राजा दशरथजी के शव को दाहसंस्कार के लिये ले चलने का प्रबन्ध करो। विलाप करते हुए भरत को देखकर वसिष्ठजी ने कहा-
प्रेतकार्याणि यान्यस्य कर्तव्यानि विशाम्पते:।
तान्यण्यग्रं महाबाहों क्रियतामविचारिम्।।
वा.रा. अयोध्याकाण्ड सर्ग ७६-११
भरतजी के साथ अन्त में रानियों, मंत्रियों और पुरोहितों ने भी राजा दशरथ के लिये जलाञ्ञलि दी। भरतजी ने दसों दिनों तक भूमि पर शयन करते हुए बडे दु:ख से अपना समय व्यतीत किया।
ततो दशाहेऽतिगते कृतशौचो नृपात्मज:।
द्वादशेऽहनि सम्प्राप्ते श्राद्धकर्मर्ण्यकारत्।।
वा.रा. अयोध्याकाण्ड सर्ग ७७-१
तद्नन्तर दशाह व्यतीत हो जाने पर राजकुमार भरत ने ग्यारहवे दिन आत्म शुद्धि के लिये स्नान और एकादशाह श्राद्ध का अनुष्ठान किया फिर बारहवाँ दिन आने पर उन्होंने अन्य श्राद्धकर्म, मासिक और सपिण्डीकरण श्राद्ध किये।
रावण वध उपरान्त श्रीसीताजी की अग्रिपरीक्षा श्रीराम द्वारा लंका में ली गई। श्रीराम ने अग्रिदेव की आज्ञानुसार सीताजी को स्वीकार कर अग्रिदेव की आज्ञा का पालन किया। तदुपरान्त महादेवजी ने श्रीराम से कहा- ककुत्स्थनन्दन देखिये आपके पिता राजा दशरथ विमान पर बैठे हुए हैं। मनुष्यलोक में वे ही आपके यशस्वी गुरु हैं। ये श्रीमान् नरेश इन्द्रलोक को प्राप्त हुए हैं। आप जैसे योग्य पुत्र ने इन्हें तार दिया। आप अपने भाई लक्ष्मण सहित इन्हें प्रणाम करें। महादेवजी की बात सुनकर दोनों भाईयों ने विमान में बैठे अपने पिता को प्रणाम किया। दोनों भाईयों ने पिता को निर्मल वस्त्र धारण किये हुए दिव्य शोभा से देदीप्यमान देखा दशरथजी को भी दोनों भाईयों को देखकर प्रसन्नता हुई। राजा दशरथ ने उन्हें अपनी गोद में बैठाकर बाहों में भर कर कहा-
न मे स्वर्गो बहु मत: सम्मानश्च सुरर्षभै:।
त्वया राम विहीनस्य सत्यं प्रतिश्रृणोमि ते।।
वा.रा. युद्धकाण्ड ११९-१३
हे राम! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, तुमसे विलग होकर मुझे स्वर्ग का सुख तथा देवताओं द्वारा प्राप्त सम्मान भी अच्छा नहीं लगता। तुमने शत्रुओं का वध किया तथा वनवास की अवधि पूर्ण कर ली यह सब देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता है। हे सौम्य: आज इन देवताओं के माध्यम से मुझे ज्ञात हुआ कि रावण वध करने के लिये स्वयं पुरुषोत्तम भगवान ही तुम्हारे रूप में अवतीर्ण हुए है।
जब दशरथजी बात कह चुके तब श्रीरामजी हाथ जोड़कर उनसे बोले- धर्मज्ञ महाराज! आप कैकेयी और भरत पर प्रसन्न होकर उन दोनों पर कृपा करें। श्रीराम ने दशरथजी से कहा-
सपुत्रां त्वां त्यजामीति यदुक्ता केकयी त्वया।
स शाप: केकयीं घोर: सु पुत्रां न स्पृशेत्प्रभो।।
वा.रा. युद्धकाण्ड सर्ग ११९-२६
हे प्रभो! आपने जो कैकेयी से कहा था कि मैं पुत्र सहित तेरा त्याग करता हूँ, आपका वह घोर शाप पुत्र सहित कैकेयी का स्पर्श न करूँगा। तब दशरथजी ने श्रीराम से कहा बहुत अच्छा तथा उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली एवं हाथ जोड़े खड़े हुए लक्ष्मण को हृदय से लगाकर कहा- वत्स तुमने सीता के साथ राम की भक्तिपूर्वक सेवा करके मुझे बहुत प्रसन्न किया है। तुम्हें इस धर्म के पालन का फल प्राप्त होगा। तत्पश्चात सामने खड़ी हुई पुत्रवधू सीता को बेटी कहकर पुकारा और धीरे से मधुर वाणी में कहा- विदेहनन्दिनी! तुम्हें इस त्याग को लेकर श्रीराम पर कुपित नहीं होना चाहिए क्योंकि ये तुम्हारे हितैषी हैं और संसार में तुम्हारी पवित्रता प्रकट करने के लिये ही इन्होंने ऐसा व्यवहार किया है। बेटी! तुमने अपने विशुद्ध चरित्र को परिलक्षित कराने के लिये जो अग्रिप्रवेश कर अग्रिपरीक्षा दी है, यह दूसरी स्त्रियों के लिये अत्यन्त ही दुष्कर है। पति-सेवा के सम्बन्ध में भले ही तुम्हें कोई उपदेश देने की आवश्यकता न हो, किन्तु इतना तो अवश्य बता देना चहिये कि ये श्रीराम ही तुम्हारे सबसे बड़े देवता है।
रति प्रतिसमादिश्य पुत्रौ सीतां च राधव:।
इद्रलोकं विमानेन ययौ दशरथौ नृप:।।
वा.रा. युद्धकाण्ड सर्ग ११९-३८
इस प्रकार दोनों पुत्रों और सीता को आदेश एवं उपदेश देकर रघुवंशी राजा दशरथ विमान के द्वारा इन्द्रलोक को चले गये।
(लेखक-डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता )

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