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ब्राह्मी लिपी के संबंध में विभिन्न विचार धारा 

ब्राह्मी लिपी के संबंध में विभिन्न विचार धारा 

 वैसे इतिहास हमेशा विवाद का विषय रहा हैं या रहता हैं। कारण  हर विचारधारा वाला अपनी श्रेष्ठता बताने कुछ भी प्रमाण देते हैं वो चाहे संदर्भित हों या न हो। परन्तु विवाद समाप्त करने न्यायाधीश या उस विषय के विशेषज्ञ की बात मानना पड़ेगी। इस बात में अब कोई विवाद का स्थान नहीं रहा की ब्राह्मी लिपि भगवान ऋषभ देव जी ने अपनी  पुत्री ब्राह्मी को ब्राह्मी लिपि सिखाई और सुंदरी को अंक विज्ञान सिखाया। उक्त आधार पर भगवान् आदिनाथ की प्राचीनता अन्यों से कम हैं।
जैन परम्परा में मान्य चैाबीस तीर्थंकरों की श्रृखंला में भगवान ऋषभदेव का नाम प्रथम स्थान पर एवं अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हैं। जैनधर्म विश्व के प्राचीन धर्माें में से एक है किंतु अज्ञानता और प्रमाद के कारण आज भी अनेक व्यक्ति जैन धर्म के संस्थापक के रूप में भगवान महावीर को स्मरण करते हैं । विश्व के प्राचीनतम लिपिबद्ध धर्म ग्रंथों में से एक वेद में तथा श्रीमद्भागवत इत्यादि में आये भगवान ऋषभदेव के उल्लेख तथा विश्व की लगभग समस्त संस्कृतियों में ऋषभदेव की किसी न किसी रूप में उपस्थिति जैनधर्म की प्राचीनता और भगवान ऋषभदेव की सर्वमान्य स्थिति को व्यक्त करती है।
तीर्थंकर आदिनाथ प्रथम तीर्थंकर हैं, जिन्होंने मानव जाति को पुरूषार्थ का उपदेश दिया। अपने जीवन निर्माण के लिए, परिवार, राष्ट् के लिए उन्होंने कर्म का उपदेश दिया। मानव जाति से उन्होंने कहा कि- तुम पुरुषार्थ के द्वारा अपनी समस्याओं को हल कर सकते हो, इस दृष्टि से विभिन्न कलाओं का निरूपण किया। साम्राज्य का भी त्याग किया, तप, त्याग के द्वारा कैवल्य प्राप्त किया। वीतराग, निराकार हो गये। धर्म के उपदेश द्वारा समाज का सृजन किया। परमात्मा के रूप में ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, सर्वे भविन्तु सुखिनः’ को साकार करते रहे।
भगवान आदिनाथ के बारे में श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए भारत के राष्ट्पति डा0 शंकरदयाल शर्मा ने कहा था-’’मैंने विश्व के तथा अपने देश के करीब-करीब सभी धर्मों का थोडा बहुत अध्ययन किया है। जैनधर्म की अनेक सैद्धांतिक और व्यवहारिक बातों ने मुझे प्रभावित किया है। जैनधर्म के प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव की यह प्रतिमा दिखाई दे रही है, इसे मैं कई अर्थों में जैन सिद्धांतों का प्रतीक मानता हूं। इस प्रतिमा की विशालता, अपने  शाश्वत और भव्य स्वरूप में उपदेश दे रही है, हमें अपने हद्रय को इतना विशाल बनाना है, संकीर्ण विचारों, स्वार्थ लिप्सा की वृत्ति से ऊपर उठकर उदात्त बनाना है। श्री मदभागवत  के पांचवे स्कंध में अध्याय 2 से 6 में ऋषभदेव का वर्णन  मिलता है। इसमें अपने पुत्रों को दिये उनके उपदेश का उल्लेख है।
जैनधर्म के लिए यह गौरव की बात है कि इन्हीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से इस देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ। इतना ही नहीं, अपितु कुछ विद्वान भी संभवतः इस तथ्य से अपरिचित होंगे कि आर्यखण्ड रूप इस भारतवर्ष का एक प्राचीन नाम नाभिखण्ड ‘अजनाभवर्ष’ भी इन्हीं ऋषभदेव के पिता ‘नाभिराय’ के नाम से प्रसिद्ध था। ये नाभि और कोई नहीं, अपितु स्वायंभ्व मनु के पुत्र प्रियव्रत और प्रियव्रत के पुत्र नाभि थे। नाभिराय का एक नाम ‘अजनाभ’ भी था। स्कंधपुराण में कहा है- ‘हिमाद्रिजलधरेन्तर्नाभिखण्डमिति स्मृतम्’-1/2/37/55        
श्रीमदभागवत में कहा है अजनाभवर्ष ही आगे चलकर ‘भारतवर्ष’ इस संज्ञा से अभिहित हुआ।
श्रीमद्भागवत 5/4/9, व 11/2/17 में इसके प्रमाण देखे जा सकते हैं। मार्कण्डेय पुराण में 10/10-11, वायुपुराण पूर्वार्ध, नारद पुराण पूर्वखण्ड, लिंगपुराण, शिवपुराण, मत्स्यपुराण ब्रहााण्ड पुराण पूर्व में भी इसके प्रमाण देखे जा सकते हैं।
जैनधर्म के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव इस विश्व के लिए उज्जवल प्रकाश हैं। उन्होंने कर्मों पर विजय प्राप्त कर दुनिया को त्याग का मार्ग बताया। भगवान ऋषभदेव की शिक्षाएं मानवता के कल्याण के लिए हैं, उनके उपदेश आज भी समाज के विघटनशोषण,साम्प्रदायिक विद्वेष एवं पर्यावरण प्रदूषण को रोकने में सक्षम एवं प्रासंगिक हैं।
भारतीय संस्कृति के प्रणेता एवं जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की जनकल्याणकारी शिक्षा द्वारा प्रतिपादित जीवन-शैली, आज के चुनौती भरे माहौल में उनके सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की प्रासंगिकता है।
तीर्थंकर ऋषभदेव अध्यात्म विद्या के भी जनक रहे हैं। उनके पुत्र भरत और बाहुबली का कथन इस तथ्य का प्रमाण है, कि संसारी व्यक्ति कितना रागी द्वेषी रहता है, जो अपने सहोदर के भी अधिकार को स्वीकार नहीं कर पाता। दोनों भाइयों के बीच हुआ युद्ध हर परिवार के युद्ध का प्रतिबिम्ब है। बाहुबली का स्वाभिमान हर व्यक्ति के स्वाभिमान का दिग्दर्शक है। सामथ्र्य होने पर भी अपने बडे भाई को न मारना, उनके सहज कर्तव्य का स्फुरण है। अन्त में दोनों का वीतरागी बनकर मोक्ष प्राप्त करना, जीव की स्वाभाविक परिणति का सूचक है। निरासक्त व्यक्ति की यह आध्यात्मिक दृष्टि है।
सामाजिक संरचना में उन्होंने प्रजाजनों केा तीन श्रेणियों में विभाजित करते हुए उनको अपने अपने कत्र्तव्य, अधिकार तथा उपलब्धियों के बारे में प्रथम मार्गदर्शन किया। सर्वांगीण विकास के मूल आधारभूत तत्वों का विवेचन कर वास्तविक समाजवादी व्यवस्था का बोध कराया।
प्रत्येक वर्ण व्यवस्था में पूर्ण सामंजस्य निर्मित करने हेतु तथा उनके निर्वाह के लिए आवश्यक मार्गदर्शक सिद्धांत, प्रतिपादन करते हुए स्वयं उसका प्रयोग या निर्माण करके प्रात्याक्षिक भी किया। अश्व परीक्षा, आयुध निर्माण, रत्न परीक्षा, पशु पालन आदि बहत्तर कलाओं का ज्ञान प्रदर्शित किया । उनके द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं का वर्गीकरण कुछ इस प्रकार से किया जा सकता है-
1. असि-शस्त्र विद्या, 2. मसि-पशुपालन, 3. कृषि- खेती, वृक्ष, लता वेली, आयुर्वेद, 4.विद्या- पढना, लिखना, 5. वाणिज्य- व्यापार, वाणिज्य, 6.शिल्प- सभी प्रकार के कलाकारी कार्य।
ऋषभदेव ने महिला साक्षरता तथा स्त्री समानता पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। अपनी दोनों पुत्रियों को ब्राही को अक्षर ज्ञान के साथ साथ व्याकरण, छंद, अलंकार, रूपक, उपमा आदि के साथ स्त्रियोचित अनेक गुणों के ज्ञान से अलंकृत किया। दूसरी पुत्री सुंदरी को अंकगणतीय ज्ञान से पुरस्कृत किया। आज भी उनके द्वार निर्मित व्याकरणशास्त्र तथा गणितिय सिद्धांतो ने महानतम ग्रंथों में स्थान प्राप्त किया है।
प्रशासनिक कार्य में इस भारत भूमि को उन्होंने राज्य, नगर, खेट, कर्वट, मटम्ब, द्रोण मुख तथा संवाहन में विभाजित कर सुयोग्य प्रशासनिक, न्यायिक अधिकारों से युक्त राजा, माण्डलिक, किलेदार, नगर प्रमुख आदि के सुर्पुद किया। आपने आदर्श दण्ड संहिता का भी प्रावधान कुशलता पूर्वक किया।
ब्राह्मी एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। देवनागरी सहित अन्य दक्षिण एशियाई, दक्षिण-पूर्व एशियाई, तिब्बती तथा कुछ लोगों के अनुसार कोरियाई लिपि का विकास भी इसी से हुआ था।इथियोपियाई लिपि पर ब्राह्मी लिपि का स्पष्ट प्रभाव है।अभी तक माना जाता था कि ब्राह्मी लिपि का विकास चौथी से तीसरी सदी ईसा पूर्व में मौर्यों ने किया था, पर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के ताजा उत्खनन से पता चला है कि तमिलनाडु और श्रीलंका में यह ६ठी सदी ईसा पूर्व से ही विद्यमान थी।
कई विद्वानों का मत है कि यह लिपि प्राचीन सरस्वती लिपि (सिन्धु लिपि) से निकली, अतः यह पूर्ववर्ती रूप में भारत में पहले से प्रयोग में थी। सरस्वती लिपि के प्रचलन से हट जाने के बाद संस्कृत लिखने के लिये ब्रह्मी लिपि प्रचलन मे आई। ब्रह्मी लिपि में संस्कृत मे ज्यादा कुछ ऐसा नहीं लिखा गया जो समय की मार झेल सके। प्राकृत/पाली भाषा मे लिखे गये मौर्य सम्राट अशोक के बौद्ध उपदेश आज भी सुरक्षित है। इसी लिये शायद यह भ्रम उपन्न हुआ कि इस का विकास मौर्यों ने किया।
यह लिपि उसी प्रकार बाँई ओर से दाहिनी ओर को लिखी जाती थी जैसे, उनसे निकली हुई आजकल की लिपियाँ। ललितविस्तर में लिपियों के जो नाम गिनाए गए हैं, उनमें ‘ब्रह्मलिपि’ का नाम भी मिला है। इस लिपि का सबसे पुराना रूप अशोक के शिलालेखों में ही मिला है।
उक्त आधार पर यह सुस्पस्ट होता हैं की भारतवर्ष  में ब्राह्मी लिपि और अंक विद्या के जनक भगवान् ऋषभदेव को माना जाना उचित हैं।
(लेखक - वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन )

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