कृषि प्रधान देश का कृषक समाज शरद ऋतू की कंपकंपाने वाली ठण्ड में घर से बेघर होकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए राजधानी दिल्ली को घेरे बैठा है। अपने कठोर निर्णय तथा उनसे पीछे न हटने के लिए अपनी पहचान बनाने वाली नरेंद्र मोदी सरकार के लिए तीन नए कृषि अध्यादेश 'सांप के गले में छछूंदर' की तरह हो गए हैं। न सरकार उन अध्यादेशों को वापस लेकर ' बुलंद इक़बाल ' की अपनी छवि बिगाड़ना चाह रही है न ही किसान महीनों लंबी लड़ाई लड़ने और सत्ता के दरवाज़े पर डेरा डालने के बाद सरकार से अपनी मांगों को मनवाए बिना पीछे हटना चाह रहे हैं। देश के अधिकांश बड़े किसान संगठन इन तीनों नए कृषि अध्यादेशों को समाप्त करने से कम पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं हैं। उधर सरकार के पैरोकार इस आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए लगभग सभी हथकंडे अपनाने पर उतारू हो चुके हैं। सरकार व सत्ता समर्थित मीडिया को लाखों निष्पक्ष किसानों की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही है न ही उनके परिवार के बुज़ुर्गों,बच्चों व महिलाओं की मांगें सुनाई दे रही हैं। बल्कि इन्हें,इन आंदोलनकारियों में घुसे वे चंद लोग नज़र आ रहे हैं जो वामपंथी विचारधारा से जुड़े हैं या इन्हें वह चंद लोग दिखाई दे रहे हैं जो ख़ालिस्तान की बात कर रहे हैं। इस आंदोलन में वे चेहरे तलाश रहे हैं जो शाहीन बाग़ के आंदोलन में सक्रिय थे। सत्ता को इन लोगों की इस आंदोलन में मौजूदगी इतनी नागवार गुज़र रही है कि यह इस किसान आंदोलन को कभी ख़ालिस्तानी आंदोलन बता रहे हैं कभी इसे माओवाद व नक्सलवाद से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
परन्तु सत्ता व गोदी मीडिया उन आंदोलनरत सैकड़ों परिवारों व उन अनेक संगठनों को नहीं देख रहा जिनके सदस्यों की हत्याएं ख़ालिस्तान समर्थकों द्वारा कर दी गयी थीं? देश के किसी भी नागरिक का वामपंथी विचारधारा से जुड़ा होना कोई अपराध तो नहीं ? क्या किसी वामपंथी विचारधारा के नेता का किसान आंदोलन में शामिल होना अपराध है?क्या स्वयं भाजपाइयों ने कांग्रेस विरोध का कोई भी अवसर संसद से सड़क तक कभी छोड़ा है ? साज़िश इस बात की भी हो रही है कि इस आंदोलन को देश के किसानों के आंदोलन के बजाए केवल पंजाब के सिख समुदाय द्वारा संचालित आंदोलन के रूप में प्रचारित किया जाए। निश्चित रूप से इसी उद्देश्य से रेल मंत्री पीयूष गोयल इन्हीं दिनों में कई बार यह दोहरा चुके हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व सिख समाज के बीच अटूट रिश्ते हैं। इन 'अटूट रिश्तों ' का 'सुबूत' देने वाली एक सचित्र ई पुस्तिका आई आर सी टी सी द्वारा करोड़ों आई आर सी टी सी यूज़र्स को भेजी गयी है। आई आर सी टी सी द्वारा इस प्रचार तंत्र में शामिल होना पूरी तरह से अनैतिक तथा अपने उपभोक्ताओं की निजता का हनन है। परन्तु सरकार व उसके ख़ुशामद परस्त मंत्रियों द्वारा सब कुछ किया जा रहा है।
सरकार द्वारा किसान संगठनों में फूट डालने के प्रयास भी जारी हैं। सत्ता के पक्षधर किसान नेताओं की तलाश की जा रही है। केंद्रीय मंत्रियों,भाजपाई मुख्यमंत्रियों व सांसदों,विधायकों से राष्ट्रीय स्तर पर किसान आंदोलन विरोधी बयान दिलवाए जा रहे हैं तथा सत्ता समर्थक लेखकों से आंदोलन विरोधी आलेख लिखवाए जा रहे हैं। परन्तु आश्चर्य इस बात का है कि अभी तक सत्ता के पक्ष में उन आवाज़ों ने उठने का साहस नहीं किया है जो सी ए ए व एन आर सी विरोधी आंदोलन के समय अनुराग ठाकुर,प्रवेश वर्मा व कपिल मिश्रा जैसे नेताओं के मुंह से सुनी जा रही थीं। शाहीन बाग़ का धरना बलपूर्वक समाप्त करने का दंभ भरने वाले कपिल मिश्रा जैसे नेता इस आंदोलन में ज़्यादा उत्साही नहीं दिखाई दे रहे हैं ? निश्चित रूप से यह आग लगाऊ नेता सिर्फ़ इसी लिए ज़हर उगलते नहीं सुनाई दे रहे क्योंकि यह इन किसानों की ताक़त व इनके इतिहास से भी भलीभांति वाक़िफ़ हैं। और यही वजह है कि जो प्रधानमंत्री सी ए ए व एन आर सी विरोधी आंदोलन के समय आंदोलनकारियों की पहचान उनके कपड़ों से करने की बात कर रहे थे उन्हीं प्रधानमंत्री को इन्हीं किसानों की पगड़ी व लिबास में अपनी फ़ोटो जारी कर यह बताना पड़ रहा है कि 'मेरे तो आप से अटूट रिश्ते हैं'? गोया सरकार मोदी के सिक्खों से गहरे व मधुर रिश्ते बताकर भावनात्मक रूप से तो उनका दिल जीतना चाहती है परन्तु उनकी शंकाओं पर आधारित कृषि अध्यादेश को वापस नहीं लेना चाहती ? आख़िर ऐसे कथित 'अटूट रिश्तों' से सिखों या किसानों को क्या हासिल ?
बहरहाल आंदोलनरत किसानों व सत्ता के बीच चल रही कश्मकश के बीच अब यह किसान संगठनों के समक्ष बड़ी चुनौती है कि वे स्वयं को जहाँ मीडिया के दुष्प्रचार से बचाने की कोशिश करें वहीं सत्ता व सत्ता समर्थकों के उन हथकंडों पर भी नज़र रखें जो उनके आंदोलन को बदनाम करने के लिए किये जा रहे हैं और आगे भी जारी रह सकते हैं। इसका सबसे अच्छा व एकमात्र उपाय यही है कि किसान आंदोलन को किसानों की मांगों तक ही सीमित रखा जाए। किसी की रिहाई की मांग करना,अलगाववादी नारे लगाना,किसी धर्म-वर्ग-समाज के ख़िलाफ़ बोलना,किसी वर्ग विशेष को किसान आंदोलन के मंच से अपमानित करना जैसी बातें इस आंदोलन के लिए क़तई वाजिब नहीं हैं न ही इतनी बड़ी संख्या में आई किसानों की महिलाएं,बच्चे व बुज़ुर्ग इस तरह की विवादित मांगों व बातों के समर्थन में इस आंदोलन में शरीक हुए हैं। किसानों को सोचना चाहिए कि जो सरकार विपक्षी दलों का किसानों के साथ खड़े होना सहन नहीं कर पा रही है और बार बार यह कह रही है कि कांग्रेस पार्टी किसानों को उकसा कर आंदोलन करा रही है वह सरकार इस आंदोलन में ख़ालिस्तान या वामपंथ समर्थक नारों को लेकर क्या कुछ नहीं कह सकती है। किसान आंदोलन इस समय कठिन परीक्षा के दौर से गुज़र रहा है। इस समय किसानों के समक्ष एकजुट रहने तथा केवल अपनी मुख्य मांगों के प्रति ध्यान केंद्रित रखने की ज़रूरत है।
(लेखक -निर्मल रानी)
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किसान आंदोलन के समक्ष दरपेश चुनौतियां